गायत्री उपासना अनिवार्य है - आवश्यक है

कर्मकाण्डों में भावनायें भी समाविष्ट रहें

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उपासना में कर्मकाण्डों का महत्त्व है। उस आधार पर साधक इष्ट के प्रति अपनी भावनाओं का विकास करता है और भाव सामीप्य के द्वारा इष्ट की सी विशेषताओं का अर्जन करता है। अतः सम्पन्न किये जाने वाले क्रिया- कृत्यों में भावनाओं का भी समावेश होना चाहिए। बेमन से किये गये कर्मकाण्डों का कोई प्रभाव नहीं होता। कर्मकाण्डों में भाव संचार अपनी श्रद्धा भावना के अनुपात से ही होता है इसलिए साधकों के लिए अनिवार्य रूप से यह निर्देश दिया गया है कि कर्मकाण्ड- यंत्र की तरह न किये जावें। क्रियाओं के साथ- साथ उनसे सम्बन्धित भावनाओं को भी अन्तःकरण में जाग्रत किया जाना चाहिए।

गायत्री साधना के साथ यज्ञ का अनिवार्य सम्बन्ध है। दोनों अन्योन्याश्रित  हैं। गायत्री को भारतीय संस्कृति की माता कहा गया है, तो यज्ञ को उसका पिता। अतएव गायत्री साधक को गायत्री उपासना के साथ- साथ यज्ञ- हवन भी संपन्न करना चाहिए। उसका विधि- विधान अलग से गायत्री के अनुष्ठान और पुरश्चरण पुस्तक में दिया गया है। बड़े यज्ञ और लम्बे समय में संपन्न होने वाले यज्ञों को प्रतिदिन किया जाना आज के समय में संभव नहीं है। थोड़े ही समय में किये जा सकें, ऐसी हवन विधि का विवेचन उपर्युक्त पुस्तक में है। उनमें भी क्रियाओं के साथ भावनाओं को अनिवार्य रूप से जोड़े रखा जाना चाहिए।

दैनिक उपासना, न्यूनतम साधना के लिए भी वही बात लागू होती है। षट्कर्म, देवपूजन आदि क्रियाओं से सम्बन्धित भावों का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है। इन्हें पढ़कर हृदयंगम कर लेने से क्रियाकृत्य के साथ समुचित भावनायें उभरने लगती हैं।

आत्म- शुद्धि के षट्कर्म प्रख्यात हैं। देवपूजन आरम्भ करने से पूर्व इन उपचारों को सम्पन्न किया जाता है। किसी श्रेष्ठ सत्ता को बुलाने और बिठाने से पूर्व उसके लिए उपयुक्त स्वच्छता उत्पन्न करना आवश्यक है। गुरुजनों, महामानवों, राजनेताओं को घर बुलाना होता है तो उनके लिए आवश्यक सफाई करानी पड़ती है और स्वच्छ उपकरण एकत्रित करने पड़ते हैं। दिवाली पर लक्ष्मी के आगमन की सम्भावना देखकर लोग सबसे अधिक ध्यान घर की सफाई पर देते हैं, ताकि स्वच्छ वातावरण में उसको प्रसन्नता मिले और वह ठहर सकें। सर्वविदित है कि गन्दे स्थान पर ठहरना किसी को पसन्द नहीं, गन्दे लोगों के साथ सम्बन्ध रखने, उनके पास जाने तथा बुलाने में सामान्य लोगों को भी रुचि नहीं होती, फिर देव- शक्तियाँ तो उसके लिए तैयार होंगी ही क्यों ? झूँठे और मैले बर्तन में बहुमूल्य भोजन परोसने से भी खाने वाले को घृणा ही उत्पन्न होती है। साधक की पवित्रता एवं पात्रता का चुम्बकत्व ही देव शक्तियों के अनुग्रह को अपनी ओर आकर्षित करता है। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए साधना विज्ञान के ज्ञाताओं  ने सर्वप्रथम आत्मशोधन की ओर ध्यान देने का विधान बनाया है। प्रस्तुत कर्मकाण्डों के सहारे जीवन में परिष्कार की ओर अधिकाधिक तत्परता बरतने के लिए उत्साह उत्पन्न किया जाता है।

प्राथमिक उपासना के पाँच भाग हैं- (१) आत्मशोधन (२) देव- पूजन (३) जप (४) ध्यान (५) सूर्यार्घ्य दान ।।

आत्मशोधन के पाँच अंग हैं- (१) पवित्रीकरण (२) आचमन (३) शिखा बन्धन (४) प्राणायाम (५) न्यास इन्हें ही ब्रह्मसंध्या कहा जाता है।

(१) पवित्रीकरण- साधना के लिए साधक यथासाध्य शुद्ध होकर ही बैठता है, किन्तु फिर भी जो कमी रह गयी हो, उसे दिव्य सहयोग द्वारा पूरी करने के लिए यह कृत्य किया जाता है। मात्र क्रिया से वह उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। अभिमन्त्रित जल को समस्त शरीर पर छिड़का जाये और यह भावना की जाये कि इस मंत्रपूत जल के साथ विश्व ब्रह्माण्ड में संव्याप्त पवित्रता तत्त्व की हमारे ऊपर वर्षा हो रही है और फुहारे के नीचे बैठकर स्नान करने की तरह उस वर्षण का आनन्द लिया जा रहा है। पवित्रता शरीर के भीतर प्रविष्ट होकर समस्त चेतना को, भाव संस्थान को, पवित्र बनाती चली जा रही है।

(२) आचमन- तीन आचमनों का तात्पर्य काया, विचारणा और भावना इन तीन चेतना के केन्द्रों में शान्ति, शीतलता, सात्विकता का समावेश करना है। प्रथम आचमन काया में सच्चरित्रता, सात्विकता और वाणी में सदाशयता की स्थापना करने के लिए हैं। वाणी की विशेष पवित्रता इसलिए है कि उसके द्वारा उच्चरित जप- प्रार्थना भगवान तक पहुँच सके। अनीति उपार्जित अन्न खाने वाली और असत्य, विक्षोभकारी वचन बोलने वाली वाणी का तेज नष्ट हो जाता है और इसके उच्चारण, मन्त्र- शक्ति उत्पन्न नहीं कर सकते। इस तथ्य को स्मृति में जमाये रहने के लिए प्रथम आचमन है।

द्वितीय आचमन विचारणा में चिन्तन की शीतलता, सात्विकता स्थापित करने के लिए है। अशुद्ध, अपराधी, दुष्ट, दुर्बुद्धि के कारण यदि मस्तिष्क में अशांति के आँधी- तूफान उठते रहेंगे तो उसमें मनस्विता एवं तेजस्विता उत्पन्न न हो सकेगी। बहुमूल्य विचारशक्ति ऐसे ही वांछनीय छिद्रों में होकर नष्ट होती रहेगी। मानसिक पवित्रता को साधना की सफलता के लिए नितांत आवश्यक माना जाये। इस मान्यता को सुदृढ़ बनाने की बात ध्यान में बनी रहे, यह उद्देश्य दूसरे आचमन का है।

तीसरा आचमन भाव शुद्धि के लिए है। जीवनोद्देश्य के प्रति उच्चस्तरीय निष्ठा और चिन्तन एवं कर्तृत्व की श्रेष्ठता बनाये रहने वाली आस्था ही भाव निष्ठा है। प्रपंच, प्रलोभनों के आकर्षणों में व्यस्त निरर्थक अनर्थ भरा पतनोन्मुख जीवन जीने वाले लोग आत्मबल सम्पादित नहीं कर पाते। आकांक्षाओं का स्तर ऊँचा रहना ही भाव शुद्धि है। यह तथ्य सदा स्मरण बना रहे, इसलिए तीसरा आचमन किया जाता है।

जैसे बालक माता का दूध पीकर उसके गुणों और शक्तियों को अपने मे धारण करता है और परिपुष्ट होता है, उसी प्रकार साधक मंत्र- बल से आचमन के जल को गायत्री माता के दूध के समान बना लेना है और उसका पान कर अपने आत्मबल को बढ़ाता है। इस आचमन से उसे त्रिविध ह्रीं श्रीं, क्लीं शक्ति से युक्त आत्म- बल मिलता है, तदनुसार उसको आत्मिक पवित्रता, सांसारिक समृद्धि को सुदृढ़ बनाने वाली शक्ति प्राप्त होती है।

(३) शिखा बन्धन -शिखा भारतीय संस्कृति की धर्म- ध्वजा है। सद्बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी गायत्री की प्रतीक है। भारतीय संस्कृति के प्रति निष्ठावान हर व्यक्ति, शरीर के सर्वोच्च स्थल पर सद्विचारणा - सद्बुद्धि के नियंत्रण की घोषणा है। इस दिव्य प्रतीक को, दिव्य प्रेरणाओं का स्मरण तथा उसके प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए धारण किया जाता है।

शिखा जिस स्थान पर रखी जाती है वहाँ सूक्ष्म शक्तियों से सम्पर्क करने वाले विशेष केन्द्र होते हैं। जल के स्पर्श तथा भावना के प्रभाव से उपासना काल में उन्हें विशेष रूप से सक्रिय बनाया जाता है ताकि दिव्य आदान- प्रदान का विशेष लाभ प्राप्त किया जा सके।

(४)प्राणायाम- संध्या का तीसरा कोष है, प्राणायाम अथवा प्राणाकर्षण। गायत्री की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए पूर्व पृष्ठों में यह बताया जा चुका है कि सृष्टि दो प्रकार की है- (१) जड़ अर्थात् परमाणुमयी, (२) चैतन्य अर्थात् प्राणमयी। निखिल विश्व में जिस प्रकार परमाणुओं के संयोग- वियोग से विविध प्रकार के दृश्य उपस्थित होते रहते हैं, उसी प्रकार चैतन्य जगत की विविध घटनाएँ घटित होती हैं। जैसे वायु अपने क्षेत्र में सर्वत्र भरी हुई है, उसी प्रकार वायु से भी असंख्य गुना सूक्ष्म चैतन्य प्राणतत्त्व सर्वत्र व्याप्त है। इस तत्त्व की न्यूनाधिकता से हमारा मानस- क्षेत्र बलवान् तथा निर्बल होता है। इस प्राणतत्त्व को जो जितनी मात्रा में आकर्षित कर लेता है, धारण कर लेता है, उसकी आन्तरिक स्थिति भी उतनी ही बलवान हो जाती है। आत्मतेज, शूरता, दृढ़ता, पुरुषार्थ, विशालता, महानता, सहनशीलता, धैर्य, स्थिरता सरीखे गुण प्राणशक्ति के परिचायक हैं। जिनमें प्राण कम होता है, वे शरीर से स्थूल भले ही हों, पर डरपोक, दब्बू, अपराधी मनोवृत्ति के, घबराने वाले, अधीर, तुच्छ नीच विचारों में ग्रस्त एवं चंचल मनोवृत्ति के होते हैं। इतने दुर्गुणों के होते हुए कोई व्यक्ति महान नहीं बन सकता ।। इसलिए साधक को प्राणशक्ति अधिक मात्रा में अपने अन्दर धारण करने की आवश्यकता होती है। जिस क्रिया द्वारा विश्वव्यापी प्राणतत्त्व में से खींचकर अधिक मात्रा में प्राण शक्ति को अपने अन्दर धारण करते हैं, उसे प्राणायाम कहा जाता है।

प्राणायाम के चार भाग हैं- (१) साँस भीतर ले जाने की क्रिया को पूरक (२) भीतर रोकने को अन्तःकुम्भक (३) बाहर निकालने को रेचक (४) बाहर रोके रहने को बाह्य कुम्भक कहते हैं। जब साँस- क्रिया आरम्भ की जाये तो साँस खींचते समय भावना करनी चाहिए कि निखिल आकाश में वायु तत्त्व के साथ घुला हुआ प्राणतत्त्व साँस के साथ हमारे भीतर प्रवेश करते हुए दिव्य शक्ति भर रहा है। सांस रोकते समय भावना करती चाहिए कि उस दिव्य शक्ति को शरीर के अवयवों, रक्तकणों एवं चेतना संस्थानों द्वारा सोखा और सदासर्वदा के लिए धारण किया जा रहा है। साँस निकालते समय भावना करना चाहिए कि सूक्ष्म, स्थूल और कारण शरीरों के मल अवरोध, विक्षेप, दोष, विकार बाहर निकले जा रहे हैं। बाहर साँस रोकने के समय भावना करनी चाहिए कि निकले हुए विकारों को वापस न लौटने के लिए द्वार बन्द कर दिया गया है। ऐसे तीन प्राणायाम किये जाने चाहिए।

(५) न्यास- न्यास कहते हैं- धारण करने को। अंग- प्रत्यंग में गायत्री की सतोगुणी शक्ति को धारण करने, स्थापित करने, भरने, ओत- प्रोत करने के लिए न्यास किया जाता है। गायत्री के प्रत्येक शब्द का महत्त्वपूर्ण मर्म- स्थलों से घनिष्ठ सम्बन्ध है, जैसे सितार के अमुक भाग में, अमुक आघात के साथ उँगली का आघात लगाने से अमुक ध्वनि के स्वर निकलते हैं, उसी प्रकार शरीर वीणा को सन्ध्याकाल में उँगलियों के सहारे दिव्य भाव से झंकृत किया जाता है।

ऐसा माना जाता है कि स्वभावतः अपवित्र रहने वाले शरीर से दैवी सान्निध्य ठीक प्रकार से नहीं हो सकता, इसलिए उसके प्रमुख स्थानों में दैवी पवित्रता स्थापित करके उसमें इतनी मात्रा दैवी तत्त्वों की स्थापित कर ली जाती है कि वह दैवी- साधना का अधिकारी बन जावे।

न्यास के साथ जिन अंगों का स्पर्श किया जाता है, उनमें एवं सारे शरीर में ईश्वरीय दिव्य चेतना के संचार का ध्यान किया जाता है। दिव्य चेतना के संचार से वे पवित्र, बलिष्ठ एवं सक्षम होते हैं। भावना करनी चाहिए कि जिस दिव्य सत्ता के अनुदान से यह तेजस्वी बन रहे हैं, उसके गौरव के अनुरूप श्रेष्ठ कार्यों में ही इनका उपयोग हो। मस्तिष्क श्रेष्ठ चिन्तन में लगे, नेत्र सद्दर्शन, कान सद्श्रवण, मुख सात्विक आहार, कण्ठ शुभ वाणी, हृदय सद्भाव, नाभि प्रदेश श्रेष्ठ, प्राण ऊर्जा एवं हाथ- पैर सत्कार्य, सत्प्रयोजन के लिए ही नियोजित हों।

(६) पृथ्वी पूजन -धरती माता- मातृभूमि को प्रत्यक्ष देवता मानकर उसका अभिसिंचन अभिवादन करने की भावना से उपलब्ध अनुदानों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए जल, अक्षत, पुष्प, चन्दन से पूजन किया जाये। मातृभूमि के लिए समस्त जड़- चेतन जगत द्वारा मिले लाभों के प्रत्युपकार में बढ़- चढ़कर त्याग- बलिदान करने की भावनाएँ जगाना इस ‘पृथ्वी पूजन ’ प्रक्रिया का उद्देश्य है। इसे आसन पवित्रीकरण भी कहते हैं। आसन का अर्थ है- आधार। हम जिस आधार जिस उद्देश्य से, जिन साधनों के माध्यम से साधना करें उनकी पवित्रता पर भी ध्यान दें। धरती माता की गोद में बैठकर साधक साधना का केवल कल्याणकारी प्रयोग ही कर सकता है। माँ की गोद में बैठकर किसी के अकल्याण की कल्पना भी सम्भव नहीं।

दूसरा चरण है देव- पूजन, गायत्री माता की छवि को देवत्व के प्रतीक प्रतिनिधि के रूप में पूजा वेदी पर स्थापित करते हैं। उन्हें कुछ देते हैं इसी अनुदान के प्रतिदान में देव- अनुग्रह प्राप्त होता है, देवता देते हैं। उन्हें वे भी प्रिय होते हैं जो देने की गरिमा स्वीकार करते हैं और उसका ही शुभारम्भ अपने आप से करते हैं। बीज गलने को तैयार होता है तो धरती माता उसे पोषण देकर विशालकाय वृक्ष बनने का वरदान एवं अनुदान प्रदान करती है। यही नीति देवताओं की भी है। वृक्ष अपने फल दूसरों को देते हैं। भेड़- बकरी भी ऊन दूसरों को देती है। नदियाँ अपना जल दूसरों को पिलाती है। इसी देव प्रकृति को अपनाये जाने पर प्रसन्न होकर देवता उन्हें अधिकाधिक अनुग्रह देते चले जाते हैं। कृपणता बरतने वाले अनुदार, स्वार्थ परायणों के प्रति देवता भी निष्ठुर ही बने रहते हैं। इस तथ्य को ठीक तरह हृदयंगम करने के लिए पूजा की चौकी पर स्थापित गायत्री प्रतिमा के सम्मुख साधक को पंचोपचार के रूप में पाँच प्रतिवेदन प्रस्तुत करने होते हैं। इससे यह आत्म- शिक्षण मिलता है कि समर्थ देवताओं का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए क्या रीति- नीति अपनानी होगी। जीवन- चर्या निर्धारण में किस स्तर की गतिविधियों का समावेश करना होगा ।।

आत्मा को परमात्मा से मिलाने वाली योग साधना के पथ पर अग्रसर होने की दिशा में प्रथम कक्षा साकार उपासना की है। उसमें आकृति सहित परमात्मा की कल्पना करनी पड़ती है। उसे उच्चस्तरीय श्रेष्ठताओं से सम्पन्न माना जाता है, समीप उपस्थित अनुभव किया जाता है, सघन श्रद्धा का आरोपण करते हैं, गहरी प्रेम- भावना उमगाते हैं और उनके साथ घनिष्ठता बनाते हैं। इसी कृत्य के अंतर्गत आने वाली विविध उपचार भक्ति साधना कहे जाते हैं। ‘लय’ प्रक्रिया का यह प्रथम सोपान है। अचिन्त्य चिन्तन में असमर्थ- स्थूल भूमिका की मनःस्थिति के लिए यही कृत्य सरल पड़ता है और चेतना का स्तर आगे बढ़ाने में सहायता करता है। प्रतीक उपासना का सारा ढाँचा इसी प्रयोजन के लिए विनिर्मित हुआ समझा जाना चाहिए।

सार्वजनिक मन्दिरों में अथवा पूजा कक्षों में भगवान के विविध प्रतीकों की स्थापना करके उनका महामानव गुरुजनों जैसा स्वागत- सत्कार किया जाता है। पंचोपचार, षोडशोपचार के विधान उसी के लिए बनाये गये हैं। जितनी देर प्रतिमा सामने रहती है, उतने समय ईश्वर के सान्निध्य का अनुभव होता है, उसका बड़प्पन स्वीकारा जाता है और श्रद्धाभिव्यक्ति से उन्हें सम्मानित करने वाले शिष्टाचारों का प्रदर्शन किया जाता है। पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान, पुष्प, चन्दन, धूप, दीप, अक्षत, नैवेद्य, आरती, नमस्कार आदि के विविध कृत्य समीपता और श्रद्धा की अनुभूति को विकसित करने में सहायता करते हैं। निष्ठा की परिपक्वता के लिए कल्पित देव प्रतिमाओं को यथार्थ मानने की मनःस्थिति उत्पन्न की जाती है।

इससे आगे की सूक्ष्म प्रतीक पूजा वह है, जिसमें आँख बन्द करके अथवा अधखुली रखकर इष्टदेव की प्रतिमा का ध्यान किया जाता है और श्रद्धा, समीपता एवं एकता की वैसी ही भावना की जाती है, जैसी कि मूर्ति- पूजा में स्थूल प्रतिमा की। अन्तर इतना ही रहता है कि मूर्ति पूजा में प्रतीक उपकरणों की प्रत्यक्ष आवश्यकता पड़ती है, जबकि ध्यान में वह सारे कार्य कल्पना के सहारे ही पूरे हो जाते हैं। ध्यान में इष्ट देव को हँसता, मुसकता और श्रद्धा- समर्पण के अनुरूप प्रत्युत्तर देता सोचा जा सकता है। यह स्थिति अधिक उत्साहवर्धक होती है और एकाग्रता का लाभ भी अधिक होता है। इसलिए इस मानसपूजा को भावनाशील, कल्पनाशील साधकों के लिए प्रयुक्त होने वाली उपासना का अगला ऊँचा चरण माना गया है। सामान्य व्यक्ति के लिए तो कर्मकाण्ड युक्त भावना समन्वित उपासना ही श्रेयस्कर है। ब्रह्मसंध्या के षट्कर्मों में संयुक्त की जाने वाली भावनाओं के बाद पूजा के पंचोपचार के साथ जुड़े हुए क्रिया- कृत्यों में जोड़ी जाने वाली भावनाओं का यहाँ विवेचन किया जाता है।

पूज्य गुरुजन जब सामने उपस्थित होते हैं, तो उनके प्रथम दर्शन पर सम्मान, शिष्टाचार प्रदर्शित किया जाता है। उपासना मे समय अपने इष्ट के प्रतीक में देव शक्ति का आह्वान करने के उपरान्त उसका सम्मानोपचार किया जाना चाहिए। इससे भाव निष्ठा में और भी अधिक परिपक्वता उत्पन्न होने का अवसर मिलता है। इस प्रयोजन के लिए ही पूजन की परम्परा प्रचलित है। पंचोपचार में (१) जल (२) चावल- नैवेद्य (३) पुष्प (४) धूप- दीप (५) चावल- रोली को गिना जाता है। इन्हें एक तश्तरी में रखना चाहिए और क्रमशः एक- एक को पास मे रखी दूसरी तश्तरी में श्रद्धा, सम्मान की अभिव्यक्ति के लिए छोड़ते जाना चाहिए। यही दो ईश्वरीय शक्तियाँ लीला कर रही हैं। प्रकृति का प्रतीक जल और पुरुष का प्रतीक अग्नि को माना गया है। यह भी एक प्रकार से चित्र- स्थापना ही है।

उपचार के इन उपकरणों के पीछे जीवन के दिव्य निर्माण की प्रेरणा है। इस विश्व ब्रह्माण्ड को ईश्वर का विराट् रूप माना जाना चाहिए और लोकमंगल की क्रिया- प्रक्रिया द्वारा उसकी यथार्थ पूजा में संलग्न रहा जाना चाहिए। यह इस दिशा में पहला चरण अपने आपको पवित्र, संयत एवं आदर्श बनाकर ही बैठाया जा सकता है। आत्म- निर्माण और विश्व- निर्माण की उभयपक्षीय जीवन- साधना सम्पन्न करने के लिए किन आदर्शों को सामने रखा जाय, इसी का दिशा निर्देश इस पंचोपचार पूजा में प्रयुक्त होने वाले पदार्थों के साथ जुड़ा हुआ है।


(१) जल- शीतलता, शान्ति, नम्रता, विनय, सज्जनता का प्रतीक है, सत्प्रयोजनों के लिए हमें समय लगाना एवं श्रम बिन्दुओं का समर्पण करना है। उसी से श्रेष्ठ सत्कर्म बन पड़ते हैं। पाद्य, अर्घ्य, स्नान के चार चम्मच इसीलिए चढ़ाये जाते हैं कि हम अपना श्रम, मनोयोग, प्रभाव एवं धन इन चारों उपलब्धियों का यथासम्भव अधिकाधिक भाग ईश्वरीय प्रयोजन के लिए समर्पित करेंगे।

(२) अक्षत- उपार्जित अन्न, धन, वैभव का प्रतीक है, अपनी कमाई को आप ही खाते रहने वाले अनुदार स्वार्थी को शास्त्रकारों ने ‘चोर’ कहा है। उपार्जन को अपने तथा परिवार के उपयोग भर में सीमित नहीं किया जाना चाहिए वरन् उसमें देश, धर्म, समाज- संस्कृति का भी भाग स्वीकार करना चाहिए। ईश्वर अर्थात् साकार रूप में विराट् विश्व एवं निराकार रूप में सद्भाव, सदुद्देश्य। इनके लिए अपनी कमाई का एक बड़ा भाग नियमित रूप से निकाला जाये, यह अक्षत समर्पण की प्रेरणा है।

(३) पुष्प- अर्थात् खेलने- खिलाने की, हँसने- हँसाने की हल्की- फुल्की जिन्दगी और सत्प्रवृत्ति। हम फूल जैसे कोमल रहें। भीतर और बाहर सर्वांग सुन्दर बनें। इस विश्वोद्यान को शोभायमान बनाने वाला जीवन जियें। अपनी गर्दन नुचवाना और मर्म भेदी हुई सुई को छेदा जाना स्वीकार करके प्रभु के गले का हार बनने की आकांक्षा रखें।

(४) दीपक- स्नेह से, चिकनाई से भरा- पूरा, स्वयं जलकर दूसरों को प्रकाश देने वाला, ऊपर को उठती हुई ज्योति- दृष्टि ।। इन्हीं विशेषताओं के कारण दीपक को पूजा में स्थान मिला है। जिनके अन्तःकरण में असीम स्नेह, सद्भाव भरा है, जो परमार्थ के लिए बढ़- चढ़कर त्याग, बलिदान कर सकते हैं, कष्ट सह सकते हैं। जिनकी दृष्टि, महत्त्वाकांक्षा ऊर्ध्वगामी हैं, वे उत्कृष्ट आदर्शवादी हैं, वे जीवन- दीप कहे जा सकते हैं। अपने को इसी मार्ग का पथिक बनाकर हम ईश्वर के निकटवर्ती और अनुकम्पा के अधिकारी बन सकते हैं। धूपबत्ती में अग्नि- स्थापना भी प्रकारान्तर से दीपक से दीपक की ही आवश्यकता पूर्ति करती है और यही उसकी प्रेरणा भी है।

(५) चन्दन- वह वृक्ष, जिसका कण- कण सुगन्धित है और जो समीपवर्ती झाड़- झंखाड़ों को भी सुगन्धित करता है। अपनी शीतलता से साँप, बिच्छू जैसे विष- वंश वालों तक को शान्ति प्रदान करता है। कहते हैं चन्दन वृक्ष पर लिपटे हुए सर्प, बिच्छू शान्ति पाते हैं। उसी छाया में बैठने वाले सुगन्ध भरी शीतलता प्राप्त करते हैं। उसकी लकड़ी काटने, बेचने वाले, पत्थर पर घिसने वाले कष्टदायक लोग भी बदले में प्रतिशोध नहीं, उपकार ही पाते हैं। नष्ट होते- होते भी चन्दन अपनी लकड़ी से भजन करने की माला, हवन सामग्री का चन्दन चूरा आदि दे जाता है। हमारी शक्ति- सामर्थ्य का उपयोग भी इसी प्रकार होना चाहिए।

इसी प्रकार जल- तरलता का प्रतीक, पवित्रता का, मिष्ठान्न मधुर व्यवहार का प्रतीक मानना चाहिए। पूजा सामग्री देखकर मन में यह भाव उठें कि भगवान ऐसे गुणवानों को ही अंगीकार करते हैं। हम भी अपनी विशेषताओं को विकसित करें। सामग्री चढ़ाते हुए अपने श्रेष्ठतम साधनों, प्रवृत्तियों, शक्तियों को प्रभु के लिए, प्रभु कार्य के लिए समर्पित करने का उल्लास जगे तो पूजन- क्रिया सार्थक समझी जायेगी।

आत्म- शोधन में व्यक्तित्व को पवित्र परिष्कृत बनाने का भाव है और देवपूजन में सदुद्देश्यों के लिए अधिकाधिक अनुदान देने का उत्साह उत्पन्न करने का निर्देश है। इन्हें प्रकारान्तर से चरित्र- निष्ठा और समाज- निष्ठा कह सकते हैं। ईश्वर भक्ति, योग साधना की पृष्ठभूमि कह सकते हैं। उसके उपरान्त मन्त्र साधना आरम्भ होती है। मन्त्र- साधना के दो भाग हैं (१) जप (२) ध्यान। इन दोनों का साथ- साथ समन्वय करके चलना पड़ता है।

जप- प्रक्रिया में गायत्री मन्त्र की बार- बार पुनरावृत्ति एक क्रम- बद्ध प्रक्रिया के आधार पर करनी होती है। जिस तथ्य पर मन को सघन करना होता है, तो उसको उच्चारण क्रिया अथवा ध्यान के माध्यम से बार- बार दुहराने की आवश्यकता पड़ती है, इसी उपाय से उन तथ्यों को मन की पृष्ठभूमि पर सघन होने का अवसर मिलता है। बच्चों को प्राथमिक कक्षा में प्रायः इसी आधार पर अपनी पढ़ाई आरम्भ करनी होती है। वे वर्णमाला अथवा गिनती पहाड़े  बार- बार दुहराते- रटते हैं। तभी उनके स्मृति- पटल पर वह बातें स्थान जमा पाती हैं। संगीत शिक्षा में आरम्भ से अन्त तक दुहराने की प्रक्रिया चलती रहती है। फौजी सैनिकों को कदम मिला कर चलने से लेकर थोड़े से ही अभ्यासों को आये दिन दुहराना पड़ता है। इष्ट के साथ एकाकार होने के लिए उस महान गरिमा के अन्तःकरण पर दृढ़ता पूर्वक जमाने के लिए भी उसका नामोच्चार बार- बार करना होता है। खोये हुए को पुकारने के लिए बार- बार नाम लेना होता पड़ता है। भगवान राम वनवास में सीता को खोजते हुए उनका नाम जोर- जोर से लेकर पुकारते हैं। बिल्ली, लोमड़ी गाय के बच्चे जब इधर- उधर भटक जाती हैं, तो बार- बार आवाज देकर अपनी उपस्थिति का परिचय देती हैं और उन्हें बुलाती हैं। मनुष्य से उसका लक्ष्य- इष्ट स्वरूप छूट गया है। इसके बिना वह मणिहीन सर्प की तरह बिलखता है। ग्राह के चंगुल में फंसे हुए गज ने भगवान को अनेक नाम लेकर उन्हें पुकारा और बुलाया था। जप में बार- बार भगवान की रट लगाई जाती है और प्यासा पपीहा जिस तरह पिऊ- पिऊ पुकारता है, उसी प्रकार भगवान को, इष्ट को दूरी समीप करके निकट बुलाने का आह्वान किया जाता है।

चेतना पर संस्कार डालना कठिन है। कठिन और कठोर कार्यों को धीरे- धीरे घिस- घिस कर, रगड़- रगड़ कर ही पूरा किया जाता है। स्नान, हाथ- मुँह धोना, बर्तन साफ करना, झाड़ू लगाना, कपड़े धोना जैसे कार्य बार- बार रगड़ने घिसने से ही पूरे होते हैं। पॉलिश किसी पर भी किसी प्रकार की भी करनी हो, उसमें घिसाई आवश्यक होती है। आरी से काटने में भी घिसना पड़ता है। रस्सी को रगड़ने से पत्थर पर निशान बनता है और कठोर मनोभूमि पर सुसंस्कार डालने के लिए रगड़ का अभ्यास करना पड़ता है। नाम- जप से यही प्रयोजन पूरा होता है।

विज्ञान के विद्यार्थी जानते हैं कि ताप की तरह ही शब्द में भी एक प्रचण्ड शक्ति है। इन दिनों श्रवणातीत ध्वनियों से ऐसे काम लिये जा रहे हैं, जो प्रचण्ड ऊर्जा के लिए प्रयुक्त होने वाले करोड़ों रुपये मूल्य के विलक्षण यन्त्रों से भी संभव नहीं हो पाते ।। मन्त्र विद्या में शब्द विज्ञान के अत्यन्त सूक्ष्म रहस्यों का समन्वय है। उनके शब्दों का गुंथन, तत्त्ववेत्ताओं ने इस प्रकार किया है कि नियत क्रम, नियत लय- ताल के अनुसार यदि उनकी पुनरावृत्ति की जाती रहे, तो उससे एक अदृश्य शब्द- चक्र बनता है। इसका उल्लेख चक्र सुदर्शन के रूप में हुआ है। अभीष्ट उद्देश्यों की पूर्ति के लिए यह ब्रह्मास्त्र रचनात्मक और ध्वंसात्मक दोनों ही कार्य पूरे करता है। टाइप राइटर की कुंजी दबाने से तीली उठती है दूसरी जगह कागज छाप देती है। इसी प्रकार मन्त्रों के शब्दोच्चार से शरीर के स्थूल और सूक्ष्म अवयवों में विशिष्ट हलचलें उत्पन्न होती हैं और उससे कई अति महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ जाग्रत होने के फलस्वरूप प्रत्यक्ष जीव में कई प्रकार की सुविधाएँ उत्पन्न होती और सफलताएँ मिलती देखी जाती हैं। जप- विज्ञान के पीछे ऐसे अनेकों कारण हैं, जिससे उस प्रयोजन में लगे हुए साधक का श्रम अन्य कार्यों में लगने की अपेक्षा प्रत्यक्ष और परोक्ष परिणाम में दृष्टि से कहीं अधिक सफल रहता है।

जप के साथ ध्यान भी आवश्यक है, जिस उद्देश्य के लिए जप किया जा रहा है, उसमें जीभ ही नहीं मन की एकाग्रता भी नियोजित होती रहे। जिस भी काम में शरीर और मन दोनों का समन्वय होता है, उसी में सफलता की संभावना बहुत अधिक बढ़ जाती है। मात्र जप करते रहा जाये और मन खाली रहे तो वह इधर- उधर भागता रहेगा। फलतः उपासना में न तो रस मिलेगा और न सफलता का सुयोग बनेगा ।।

मनःशक्ति प्रचण्ड है। बिखराव में वह नष्ट होती रहती है। यदि ध्यान द्वारा उसे एक- एक केन्द्र पर इकट्ठा कर लिया जाये तो उसका प्रभाव परिणाम चमत्कारी होता है। सूर्य की किरणें आतिशी शीशी के माध्यम से इकट्ठी कर ली जायें, तो आग जलने लगेगी। बिखरी बारूद को जला देने से थोड़ी सी चमक भर उत्पन्न होती है, पर यदि उसे बन्दूक में भर कर एक ही दिशा में नियोजित किया जाये तो वह निशाना बेधती हुई पार निकल जाती है। भाप ऐसे ही बेकार उड़ती रहती है। किन्तु उसकी थोड़ी सी मात्रा भी एक केन्द्र पर लगा दी जाये तो उससे रेलगाड़ी के इंजन हजारों टन माल लेकर द्रुत गति से दौड़ने लगते हैं। मनःशक्ति बारूद भाप, धूप आदि सबसे प्रचण्ड है, उसे ध्यान द्वारा एकाग्र करके भौतिक अथवा आत्मिक प्रयोजनों में लगाने से आशाजनक सफलताओं के नये- नये आधार बन जाते हैं। मनुष्य क आस्था अपने श्रद्धा- विश्वास के सहारे कई दिव्य सत्ताओं का सृजन कर सकती है और उसकी हलचलें उतनी ही सामर्थ्यवान हो सकती है, जितनी कि श्रद्धा की गहराई। अपने भक्तों की उनके उपास्य ने जो असाधारण सहायताएँ की हैं और चमत्कार दिखाये हैं, इनमें देवताओं का स्वतंत्र अस्तित्व बल एवं उपासनात्मक विधि- विधानों का अन्तर नहीं, साधक के व्यक्तित्व की पवित्रता एवं उपास्य के प्रति गहन श्रद्धा को ही आधारभूत कारण मानना चाहिए। प्रतीक- उपासना से सभी प्रयोजन की पूर्ति करनी होती है। ध्यान- साधना भी इसी प्रयोजन को पूरा करती है।

उपासक निराकार साधना हो अथवा साकार की उपासना करता हो, उसे अनिवार्य रूप से ध्यान का अवलंबन लेना ही पड़ेगा। निराकारवादी अन्तर्मुखी होकर दिव्य ज्योति के रूप में परमात्म सत्ता का दर्शन करते हैं। आमतौर से यह छोटा- बड़ा प्रकाश बिन्दु ही होता है, उसे सूर्य का प्रतीक मानते हैं। वस्तुतः यह ज्ञान ज्योति है, मात्र चमक या गर्मी नहीं। अध्यात्म साधना में अग्निपिण्ड सूर्य की प्रतिमा भर माना गया है। उसकी मूल सत्ता ज्ञान भर कही गई है। निराकार पूजा तत्त्व का साकार रूप सविता है। सविता अर्थात् सद्ज्ञान को अन्तःकरण में आलोकित करने वाला प्रकाशवान परब्रह्म ध्यान करते समय सूर्य छवि पर एकाग्रता तो करनी चाहिए पर साथ ही यह ध्यान रखना चाहिए कि यह दिव्य आलोक का, सद्ज्ञान रूपी प्रकाश का प्रतीक मात्र है। मात्र जड़ पिण्ड नहीं।

सूर्य पर ध्यान करते हुए अनुभूति की जाती है कि वह आलोक साधक के शरीर, मन और अन्तरात्मा में- स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों में सक्रियता, सद्ज्ञान एवं सद्भाव बनकर प्रकाशवान हुआ भी अनुभव किया जाता है। इस प्रकार सूर्य को न केवल आलोक प्रदर्शन की दिव्य प्रक्रिया मात्र मानकर बात समाप्त कर दी जाती है, वरन् उसकी आभा से आत्मसत्ता को पूरी तरह वर्तमान स्थिति में देखने की आस्था भर है। यह जितनी ही गहरी होगी, उसी अनुपात में साधक को लाभ मिलता चला जायेगा।

साकार उपासना में नर और नारी की दोनों ही आकृतियों में परब्रह्म की प्रतिमा बनाई जाती रही हैं। दोनों को पवित्रता, कोमलता, उदारता, सेवा- स्नेह, वात्सल्य जैसी दिव्य भावनाओं के आधार पर देखना हो तो नारी की गरिमा अधिक बैठती है। नारी दानी है, और नर उपकृत। ईश्वर की प्रतिमा को किस रूप में माना जाये? इस दृष्टि से विवेक का सहज झुकाव नारी के पक्ष में जाता है। पुरुष की अपनी विशेषतायें हैं, उसमें पुरुषार्थ, पराक्रम की प्रधानता है। यह गुण भौतिक सफलताओं में अधिक और आत्मिक प्रगति में कम काम आता है। अधिक अच्छा यही लगता है कि परब्रह्म को नारी रूप में मातृ सत्ता का प्रतीक मानकर चला जाये।

गायत्री माता के रूम में परब्रह्म की स्थापना सर्वोपयोगी है। उसके सान्निध्य में, माता की गोदी में खेलने को मिलने वाले बालक वात्सल्य एवं पय- पान जैसे सूक्ष्म- स्थूल लाभों की अनुभूति होती है। नारी के प्रति अचिन्त्य- चिन्तन का जो प्रवाह इन दिनों चल पड़ा है, उसे रोकने और भाव भरी दिव्य श्रद्धा की प्रतिमा उसे मानने की ,, जन चेतना उत्पन्न करने की दृष्टि से भी यह स्थापना उपयोगी अतीव है। मानवता की, सद्बुद्धि की प्रतिमा भी उसे माना जा सकता है।

गायत्री माता का वाहन हंस माना गया है। हंस अर्थात् स्वच्छ कलेवर, नीर- क्षीर विवेक का प्रतिनिधि, मोती चुगने या लंघन करने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ। यह गुण हंस पक्षी में नहीं होते, यह परिभाषा आध्यात्मिक हंस की है कि परमात्मा की दिव्य शक्ति को धारण करने के लिए साधक को अपनी उत्कृष्टता हंस स्तर की विकसित करनी चाहिए। उस क्रियात्मक स्थूल जीवन में धर्मपरायण, विचारात्मक सूक्ष्म जीवन में विवेकवान् और आस्था परक अन्तःप्रदेश में सद्भाव सम्पन्न होना चाहिए। व्यक्तित्व के इस समग्र परिष्कार के साथ ही ईश्वरीय दिव्य शक्ति के अवतरण की संभावना जुड़ी हुई है।

आद्यशक्ति गायत्री माता की अथवा अपने विश्वास के आधार पर कोई अन्य प्रतिमा- एक छोटे किन्तु सुसज्जित सिंहासन पर स्थापित रहनी चाहिए। जब भी पूजा करनी हो, तब उसी के सामने बैठ कर करनी चाहिए। जिस स्थान पर जो कार्य बहुत समय तक किया जाता रहता है, वहाँ अनायास ही ऐसी विशेषता उत्पन्न हो जाती है जिससे प्रेरित होकर उन कार्यों की पुनरावृत्ति के लिए मन चलने लगता है। चाहे जहाँ, चाहे जब बैठकर भजन करने पर मन लगा लेना कठिन है, पर नियत स्थान पर, नियत समय पर पूजा स्थल पर बैठते ही मन स्वभावतः उन अभ्यस्त क्रियाओं को स्वेच्छापूर्वक दुहराने लग जायगा- इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए नियत स्थान पर पूजा कक्ष स्थापित करना और नियत समय पर नियत विधि से उपासना कृत्य को क्रियान्वित करना ही उपयुक्त रहता है।

उपासना का अनिवार्य अंग ध्यान है। जप के साथ उसका जुड़ा रहना नितान्त आवश्यक है। अन्यथा मन यहाँ- वहाँ भागता रहेगा।

उपासना के समय सांसारिक विचार न आये इसका एक ही उपाय है कि उन क्षणों के लिए निर्धारित विचार पद्धति सामने रहे। वह भी दृश्य मुक्त आकर्षक स्तर की ऐसी हो जो मन को अपने शिकंजे में पकड़े रहे, यों वैज्ञानिक जैसे गहरे चिन्तन से भी हो सकता है, पर वैसा बहुत समय के अभ्यास और एकाग्र स्तर मिल जा

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