गायत्री की अनन्त कृपा से पतितों को उच्चता मिलती है और पापियों
के पाप नाश होते हैं। इस तथ्य पर विचार करते हुए हमें यह बात
भली प्रकार समझ लेनी चाहिए कि आत्मा सर्वथा, स्वच्छ, निर्मल,
पवित्र, शुद्ध बुद्ध और निर्लिप्त है। श्वेत काँच या पारदर्शी
पात्र अपने आप में स्वच्छ होता है, उसमें कोई रंग नहीं होता, पर
उस पात्र में किसी रंग का पानी भर दिया जाय तो उसी रंग का
दिखने लगेगा साधारणतः उसे उसी रंग का पात्र कहा जायेगा, इतने पर
भी पात्र का मूल सर्वथा रंग रहित ही रहता है। एक रंग का पानी
उस काँच के पात्र में भरा हुआ है, उसे फैलाकर यदि दूसरे रंग
का पानी भर दिया जाय तो फिर इस परिवर्तन के साथ ही पात्र
दूसरे रंग का दिखाई देने लगेगा ।। मनुष्य की यही स्थिति है।
आत्मा स्वभावतः निर्विकार है, पर उसमें जिस प्रकार के गुण, कर्म,
स्वभाव भर जाते हैं, वह उसी प्रकार की दिखाई देने लगती है।
गीता में कहा गया है कि ‘‘विद्या, विनय, सम्पन्न, ब्राह्मण, गौ, हाथी, कुत्ता तथा चाण्डाल आदि को जो समत्व बुद्धि से देखता है वह पण्डित है।’’
इस समत्व का रहस्य यह है कि आत्मा सर्वथा निर्विकार है, उसकी
मूल स्थिति में परिवर्तन नहीं होता, केवल मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार
का अन्तःकरण चतुष्टय, रंगीन- विकारग्रस्त
हो जाता है, जिसके कारण मनुष्य अस्वाभाविक, विपन्न, विकृत दशा में
पड़ा हुआ प्रतीत होता है। इस स्थिति में यदि परिवर्तन हो जाय
तो आज के ‘दुष्ट’ का कल ही ‘सन्त’ बन जाना कुछ भी कठिन नहीं है। इतिहास बताता है कि एक चाण्डाल कुलोत्पत्र भयंकर तस्कर बदल कर महर्षि बाल्मीकि हो गया। जीवन भर वेश्या- वृत्ति करने वाली गणिका आन्तरिक परिवर्तन के कारण परमसाध्वी देवियो को प्राप्त होने वाली परमगति की अधिकारिणी हुई, कसाई का पेशा करते हुए जिन्दगी गुजार देनेा वाला अजामिल और सदन, परम भागवत कहलाये। इस प्रकार अनेकों नीच काम करने वाले उच्चता को प्राप्त हुए हैं और हीन कुलोत्पत्रों को उच्च वर्ण की प्रतिष्ठा मिली है। रैदास चमार, कबीर जुलाहे, रामानुज शूद्र, षट्कोपाचार्य, खटीक, तिरूवल्लुवर , अन्त्यजवर्ण में उत्पन्न हुए थे, पर उनकी स्थिति अनेकों ब्राह्मणों से ऊँची थी। विश्वामित्र क्षत्री से ब्राह्मण बने थे।
जहाँ पतित स्थान से ऊपर चढ़ने के उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा
है, वहाँ उच्च स्थिति के लोगों के पतित होने के भी उदाहरण कम
नहीं हैं। पुलिस्त के उत्तम ब्रह्मकुल
में उत्पन्न हुआ चारों वेदों का महापण्डित रावण, मनुष्यता से भी
पतित होकर राक्षस कहलाया, खोटा अन्न खाने से द्रोण और भीष्म
जैसे ज्ञानी पुरूष, अन्यायी कौरवों के समर्थक हो गये। विश्वामित्र ने क्रोध में आकर वशिष्ठजी
के निर्दोष बालकों को हत्या कर डाली, व्यास ने धीवर की कुमारी
कन्या से व्यभिचार करके सन्तान उत्पन्न की, विश्वामित्र ने वेश्या
पर आसक्त होकर उसे लम्बे समय तक अपने पास रखा, चन्द्रमा जैसे
देवता गुरू- माता के साथ कुमार्गगामी बना, देवताओं के राजा इन्द्र
को व्यभिचार के कारण शाप का भाजन होना पड़ा ब्रह्मा अपनी पुत्री
पर ही मोहित हो गए, ब्रह्मचारी नारद मोहग्रस्त होकर विवाह करने
को स्वयम्बर में पहुँचे, सड़ी- गली काया वाले वयोवृद्ध च्यवनऋषि को सुकुमारी सुकन्या से विवाह करने की सूझी, बलि राजा के दान में भाँजी
मारते हुए शुक्राचार्य ने अपनी आँख गँवा दी। धर्मराज युधिष्ठिर
तक ने अश्वत्थामा मरने की पुष्टि करके अपने मुख पर कालिख पोती
और धीरे से ‘नरोवा कुंजरोवा’ गुन- गुनाकर अपने को छद्म से बचाने की प्रवंचना की ।। कहाँ तक कहें, किस- किस की कहें, इस दृष्टि
से इतिहास देखते हैं तो बड़े- बड़ों को स्थान च्युत हुआ पाते
है। इससे प्रकट होता है कि आंतरिक स्थिति में हेर- फेर हो जाने
से भले मनुष्य बुरे और बुरे मनुष्य भले बन जाते सकते हैं।
शास्त्र
कहता है कि जन्म से सभी लोग शूद्र पैदा होते हैं। पीछे
संस्कार के प्रभाव से वे द्विज बनते हैं। असल में यह संस्कार ही
है जो शूद्र को द्विज और द्विज को शूद्र बना देता है। गायत्री
के तत्व- ज्ञान को हृदय में धारण करने से ऐसे संस्कारों की
उत्पत्ति होती है जो मनुष्य को एक विशेष प्रकार का बना देते
हैं। उस पात्र में भरा हुआ पहला रंग निवृत्त हो जाता है और
उसके स्थान पर नीलवर्ण परिलक्षित होने लगता है।
प्राचीन इतिहास पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि अनेक महापुरूषों को भी धर्म की स्थूल मर्यादाओं का उल्लंघन करना पड़ता है। लोक- हित धर्म- वृद्धि और अधर्मनाश
की सद्भावना के कारण उन्हें वैसा पापी नहीं बनना पड़ा जैसे कि
वही काम करने वाले आदमी को साधारणतः बनना पड़ता है। भगवान्
विष्णु ने भस्मासुर से शंकर जी के प्राण बचाने के लिए मोहनी
रूप बनाकर उसे छला और नष्ट किया। समुद्रमन्थन के समय अमृत- घट के
बँटवारे में जब देवताओं और असुरों में झगड़ा हो रहा था तब भी
विष्णु ने माया- मोहिनी रूप बनाकर असुरों को धोखे में रखा और
अमृत देवताओं को पिला दिया। सती वृन्दा का सतीत्व डिगाने के लिए
भगवान् ने जालन्धर का रूप बनाया था। राजा बलि को ठगने के लिए
वामन का रूप धारण किया था। पेड़ की आड़ में छिपकर राम ने अनुचित
रूप से बाली को मारा था।
महाभारत में धर्मराज युधिष्ठिर ने अश्वत्थामा की मृत्यु का
छलपूर्वक समर्थन किया ।। अर्जुन ने शिखण्डी की ओट में खड़े होकर
भीष्म को मारा, कर्ण का रथ कीचड़ में गढ़ जाने पर भी उसका बध किया। घोर दुर्भिक्ष में क्षुधापीड़ित
होने पर भी विश्वामित्र ऋषि ने चाण्डाल के घर से कुत्ते का
माँस लाकर खाया। प्रहलाद का पिता की आज्ञा को उल्लंघन करना,
विभीषण का भाई को त्यागना, भरत का माता की भर्त्सना करना, बलि का
गुरू शुक्राचार्य की आज्ञा न मानना, गोपियों का परपुरूष
श्रीकृष्ण से प्रेम करना, मीरा का अपने पति को त्याग देना,
परशुरामजी का अपनी माता का सिर काट देना आदि कार्य साधारणतः
अधर्म प्रतीत होते हैं, पर इनके कर्ताओं ने सद्उद्देश्य से प्रेरित होकर किया था इसलिये धर्म की सूक्ष्म दृष्टि से यह कार्य पातक नहीं गिने गये।
शिवाजी ने अफजलखाँ का बध
कूटनीतिक चातुर्य से किया था। भारतीय स्वाधीनता के इतिहास में
क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश सरकार के साथ जिस नीति को अपनाया था
उसमें चोरी, डकैती, जासूसी, हत्या, कत्ल, झूँठ बोलना, छल, विश्ववासघात आदि ऐसे सभी कार्य का समावेश हुआ था, जो मोटे तौर से अधर्म कहे जाते हैँ। परन्तु उनकी आत्मा पवित्र थी, असंख्य दीन दुखी प्रजा की करूणाजनक स्थिति से द्रवित होकर अन्यायी शासकों को उलटने के लिए ही उन्होंने ऐसा किया था। कानून उन्हें भले ही अपराधी बतावे पर वस्तुतः वे कदापि पापी नहीं कहे जा सकते ।।
अधर्म का नाश और धर्म की रक्षा के लिए भगवान् को युग- युग
में अवतार लेकर अगणित हत्यायें करनी पड़ती हैं और रक्त की धार बहानी पड़ती है। इसमें पाप नहीं होता। सद्उद्देश्य
के लिए किया हुआ अनुचित कार्य भी उचित के समान ही उत्तम माना
गया है। इस प्रकार के प्राण बचाने के लिए अपने को जोखिम में
डालकर उन अत्याचारियों का बध
कर देता है तो वह पुण्य है। हत्या तीनों ने की पर तीनों ही
हत्याएँ अलग- अलग परिणाम वाली हैं। तीनों हत्यारे- डाकू, न्यायाधीश
एवं आततायी से लड़कर उसका बध करने वाले- समान रूप से पापी नहीं गिने जा सकते ।।
पापियों
की सूची में जितने लोग हैं उनमें से अधिकांश ऐसे होते हैं
जिन्हें उपयुक्त किन्हीं कारणों से अनुचित कार्य करने पड़े, पीछे
वे उनके अभाव में आ गये। परिस्थितियों ने, मजबूरियों ने, आदतों ने
उन्हें लाचार कर दिया और वे बुराई की ढालू सड़क पर फिसलते चले
गये। यदि दूसरे प्रकार की परिस्थितियाँ, सुविधायें उन्हें मिलतीं, ऊँचा उठाने वाले और संतोष देने वाले साधन मिल जाते तो निश्चय ही वे अच्छे बने होते।
कानून और लोकमत चाहे किसी को कितना ही दोषी ठहरा सकता है, स्थूल दृष्टि
से कोई आदमी अत्यन्त बुरा हो सकता है पर वास्तविक पापियों की
संख्या इस संसार में बहुत कम है। जो परिस्थितियों के वश बुरे
बन गये हैं, उन्हें भी सुधारा जा सकता है, क्योंकि प्रत्येक की
आत्मा ईश्वर का अंश होने के कारण तत्वतः
पवित्र है। बुराई उसके ऊपर छाया मैला है। मैले को साफ करना न
तो असम्भव है न कष्टसाध्य ।। वरन् यह कार्य आसानी से हो सकता
है।
कई व्यक्ति सोचते हैं कि हमने अब तक इतने पाप किए हैं, इतनी
बुराइयाँ की हैं हमारे प्रकट और अप्रकट पापों की सूची बहुत बड़ी
है। हम अब सुधर नहीं सकते। हमें न जाने कब तक नरक में सड़ना
पड़ेगा। हमारा उद्धार और कल्याण अब कैसे हो सकता है। ऐसा सोचने
वालों को जानना चाहिए कि सन्मार्ग पर चलने का प्रण करते ही
उनकी पुरानी मैली- कुचैली पोशाक उतर जाती है और उसमें भरे हुए
जुएँ भी उसी में रह जाते हैं। पाप- वासनाओं का परित्याग करने और
उनका सच्चे हृदय से प्रायश्चित करने से पिछले पापों के बुरे
फलों से छुटकारा मिल सकता है। केवल वे परिपक्व प्रारब्ध कर्म जो
इस जन्म के लिए भाग्य बन चुके हैं, उन्हें तो किसी रूप में
भोगना पड़ता है। इसके अतिरिक्त जो प्राचीन या आजकल के ऐसे कर्म
हैं जो अभी प्रारब्ध नहीं बने हैं, उनका संचित समूह नष्ट हो
सकता जो इस जन्म के लिए दुखदायी भोग है वह भी इसकी बहुत हल्का
हो जाता है और वे कष्ट बिना अधिक दुख दिये चिन्ह पूजा मात्र थोड़ा- सा कष्ट दिखाकर सहज ही शांत हो जाते हैं।
कोई मनुष्य अपने जीवन का अधिकांश भाग कुमार्ग में व्यतीत कर
चुका है या बहुत सा समय निरर्थक बिता चुका है तो इसके लिए
केवल दुख
मानने, पछताने या निराश होने से कुछ प्रयोजन सिद्ध न होगा ।।
जीवन का जो भाग शेष रहा है, वह भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं। राजा
परीक्षित को मृत्यु से पूर्व एक सप्ताह आत्म- कल्याण को मिला था,
उन्होंने इस छोटे से समय का सदुपयोग किया और अभीष्ट लाभ
प्राप्त कर लिया। सूरदास को अपनी जन्म भर की व्यभिचारी आदतों से
छुटकारा मिलते न देखकर अन्त में आँखें फोड़ लेनी पड़ी थीं।
तुलसीदास का कामातुर होकर रातों रात ससुराल पहुँचना और परनाले में लटका हुआ साँप पकड़कर स्त्री के पास जीवन का अधिकांश भाग बुरे कार्यों में व्यतीत करने के उपरान्त सत्यपथगामी हुए और थोड़े से ही समय में योगी और महात्माओं को प्राप्त होने वाली सद्गति के अधिकारी हुए हैं।
यह एक रहस्य तथ्य है कि मन्द बुद्धि, मूर्ख, डरपोक कमजोर तबियत
के सीधे कहलाने वालों की अपेक्षा वे लोग अधिक जल्दी आत्मोन्नति
कर सकते हैं, जो अब तक सक्रिय, जागरूक, चैतन्य, पराक्रमी, पुरूषार्थी
एवं बदमाश रहे हैं ।। कारण जी से यह है कि मन्द चेतना वालों
में शक्ति का स्रोत बहुत ही न्यून होता है, वे पूरे सदाचारी और
भक्त रहें तो भी मन्द शक्ति के कारण उनकी प्रगति अत्यन्त
मन्दगति से होती है। पर जो लोग शक्तिशाली हैं, जिनके अन्दर
चैतन्यता और पराक्रम का निर्झर तूफानी गति से प्रवाहित होता है।
वे जब भी, जिस दिशा में भी, लगेंगे उधर ही सफलता का ढेर लगा
देंगे। अब तक जिन्होंने बदमाशी में अपना झण्डा बुलन्द रखा है, वे
निश्चय ही शक्ति- सम्पन्न तो हैं पर उनकी शक्ति कुमार्गगामी रही
है। यदि वह शक्ति सत्पथ पर लग जाय तो उस दिशा में भी
आश्चर्यजनक सफलता उपस्थित कर सकते हैं। गदहा
दस वर्ष में जितना बोझ ढोता है, हाथी उतना एक दिन में ढो
सकता है। आत्मोन्नति भी एक पुरुषार्थ है। इस मंजिल पर भी वे ही
लोग शीघ्र पहुँच सकते हैं, जो पुरुषार्थी हैं, जिनके स्नायुओं में
बल और मन में अदम्य साहस तथा उत्साह है ।।
जो लोग पिछले जीवन में कुमार्गगामी रहे हैं, बड़ी ऊटपटांग गड़बड़
करते रहते हैं, वे भूल हुए, पथ- भ्रष्ट तो अवश्य हैं, पर इस गलत
प्रक्रिया द्वारा भी उन्होंने अपनी चैतन्यता, बुद्धिमता,
जागरूकता और क्रियाशीलता को बढ़ाया है। यह बढ़ोत्तरी एक अच्छी
पूँजी है। पथ- भ्रष्टता के कारण जो पाप उनसे बन पड़े वे पश्चाताप
और दुख के हेतु अवश्य हैं पर सन्तोष की बात इतनी है कि उस कँटीले, पथरीले, लोहू-
लुहान करने वाले, ऊबड़- खाबड़ दुखदाई मार्ग में भटकते हुए भी मंजिल
की दिशा में ही यात्रा की है। यदि अब सँभल जाया जाय और सीधे
राजमार्ग से, सतोगुणी आधार से आगे बढ़ा जाय तो पिछला ऊल- जलूल कार्यक्रम भी सहायक ही सिद्ध होगा।
पिछले पाप नष्ट हो सकते हैं, कुमार्ग पर चलने से जो घाव हो
गये हैं वे थोड़ा दुःख देकर शीघ्र अच्छे हो सकते हैं। उनके लिए
चिन्ता एवं निराशा की कोई बात नहीं। केवल अपनी रूचि और क्रिया को बदल देना है। यह परिवर्तन होते ही बड़ी तेजी से सीधे मार्ग पर प्रगति होने लगेगी। दूरदर्शी तत्वज्ञों
का मत है कि जब बुरे आचरणों वाले व्यक्ति बदलते हैं तो
आश्चर्यजनक गति से सन्मार्ग में प्रगति करते हैं और स्वल्पकाल
में ही सच्चे महात्मा बन जाते हैं। जिन विशेषताओं के कारण वे
सख्त बदमाश हो गये थे वे ही विशेषताएँ उन्हें सफल सन्त बना
देती हैं। गायत्री का आश्रय लेने से बुरे, बदमाश और दुराचारी स्त्री- पुरुष भी स्वल्पकाल में सन्मार्गगामी और पाप रहित हो सकते हैं।