गायत्री की परम कल्याणकारी सर्वांगपूर्ण सुगम उपासना विधि

शक्ति पुरश्चरण साधना

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आध्यात्मिक उपचारों से सामयिक वातावरण बनाने और बदलने में बड़ी सहायता मिलती है। प्राचीनकाल में सामयिक विपन्नता एवं विपरीतता को बदलने एवं सुधारने के लिए समय- समय पर विशेष धर्मानुष्ठान होते रहे हैं। शास्त्रों में ऐसे विधान भी हैं।

वर्तमान काल की राष्ट्र- रक्षा समस्या को हल करने के लिए जहाँ भौतिक साधनों को जुटाया जा रहा है, वहाँ आध्यात्मिक आयोजनों की भी आवश्यकता है। भौतिक शक्ति से आध्यात्मिक शक्ति का महत्त्व कम नहीं। दैवी शक्ति की सहायता से बड़े- बड़े कठिन कार्य सरल होते हैं। फिर वर्तमान समस्याओं के समाधान में उनसे सहायता क्यों न मिलेगी?

इस संदर्भ में अखण्ड ज्योति परिवार द्वारा सन् १९६५ की शरदपूर्णिमा से शक्ति साधना महापुरश्चरण प्रारम्भ किया गया है। गायत्री सर्वोपरि शक्ति है। उसके साथ कुछ विशिष्ट बीज मंत्र एवं सम्पुट जोड़ने से उसे विभिन्न भौतिक कार्यों के लिए भी प्रयुक्त किया जा सकता है। ‘श्री’ बीज सफलता एवं समृद्धि के लिए ‘ह्रीं’ बीज बुद्धि एवं भावना विकास के लिए और ‘क्लीं’ बीज शक्ति सम्पन्नता एवं अनिष्ट निवारण के लिए किया जाता है। वर्तमान परिस्थितियों में देश में सर्वतोमुखी बल, साहस, शोर्य, एवं पराक्रम का बढ़ना आवश्यक है ।। साथ ही शत्रुओं का दमन एव शमन भी होना चाहिए। इन दोनों प्रयोजनों के लिए ‘‘क्लीं’’ तत्त्व अपेक्षित है। गायत्री महामन्त्र के साथ क्लीं बीज तथा सम्पुट जोड़ देने से एक ऐसी विशिष्ट मन्त्र- शक्ति बनती है जो आज की उपयुक्त दोनों आवश्यकताओं की पूर्ति में महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकती है।

मंत्र निम्न प्रकार है-

‘‘ॐ भू: भुवः स्वः क्लीं क्लीं क्लीं तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् क्लीं क्लीं क्लीं ॐ’’

इस शक्ति मन्त्र की एक माला तो हम को जब तक संकट की घड़ियाँ विद्यमान हैं तब तक करते ही रहना चाहिए।

राष्ट्रीय संकट के हल करने में हम सबका योगदान होना चाहिए। उपयुक्त मन्त्र की एक माला जपने में दस मिनट लगती है। इतना समय तो हर व्यक्ति स्नान करने के उपरान्त इस साधना को दे ही सकता है। जो जप न कर सकें वे प्रतिदिन २४ मंत्र लेखन का क्रम भी बना सकते हैं। किसी न किसी रूप में उस धर्मानुष्ठान में हमें सम्मिलित रहना चाहिए। वर्तमान संघर्ष ऐसे लोगों के विरूद्ध है जिनसे परास्त होने पर हमारा धर्म और संस्कृति भी सुरक्षित नहीं है इसलिए इस उपासना क्रम को धर्म रक्षा का एक आवश्यक अंग मानकर ही करना चाहिए। अखण्ड- ज्योति परिवार के लोग स्वयं तो करेंगे ही, अन्य जो लोग उनकी पहुँच तथा प्रभाव प्रेरणा के क्षेत्र मे आते हों उन्हें भी इसके लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।

चालीस दिन की गायत्री साधना-

गायत्री मंत्र के द्वारा जीवन की प्रत्येक दशा में आश्चर्य जनक मनोवांछित फल किस प्रकार प्राप्त हुए हैं और होते हैं। यह मंत्र अपनी आश्चर्यजनक शक्तियों के कारण ही हिन्दू धर्म जैसे वैज्ञानिक धर्म में प्रमुख स्थान प्राप्तकर सका है। गंगा, गीता, गौ, गायत्री, गोविन्द, यह पांच हिन्दू धर्म के केन्द्र हैं ।। गुरू शिष्य की वैदिक दीक्षा गायत्री मंत्र द्वारा ही होती है।

नित्य प्रति की साधारण साधना और सवालक्ष अनुष्ठान की विधियां पिछले पृष्ठों में पाठक पढ़ चुके हैं। यहां पर चालीस दिन की एक तीसरी साधना उपस्थित की जा रही है। शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से इस साधना को आरम्भ करना चाहिए। साधक का निम्न नियमों को पालन करना उचित है : () ब्रह्मचर्य से रहें, () शय्या पर शयन न करें, () अन्न का आहार केवल एक समय करें, () सेंधा नमक और काली मिर्च के अतिरिक्त अन्य सब मसाले त्याग दे, () लकड़ी की खड़ाऊँ या चट्टी पहिने, बिना बिछाये हुए जमीन पर न बैठे। इन पांच नियमों का पालन करते हुए गायत्री की उपासना करनी चाहिए।

प्रातःकाल सूर्योदय से कम से कम एक घण्टा पूर्व उठकर शौच स्नान से निवृत्त होकर पूर्वाभिमुख होकर कुशासन पर किसी स्वच्छ एकान्त स्थान में जप के लिए बैठना चाहिए। जल का भरा हुआ पात्र पास में रक्खा रहे। घी का दीपक तथा धूप बत्ती जला कर दाहिनी ओर रख लेनी चाहिए। प्राणायाम तथा ध्यान उसी प्रकार करना चाहिए जैसा कि पिछले पृष्ठों में सवालक्ष अनुष्ठान के सम्बन्ध में बताया गया है। इसके बाद तुलसी की माला से जप आरम्भ करना चाहिए। एक सौ आठ मंत्रों की माला अट्ठाईस बार नित्य जपनी चाहिए। इस प्रकार प्रति दिन ३०२६ मंत्र होते हैं। एक मन्त्र आरम्भ में और एक अन्त में दो मंत्र नियत मालाओं के अतिरिक्त अधिक जपने चाहिए इस प्रकार ४० दिन में सवालक्ष मंत्र पूरे हो जाते हैं।

‘गायत्री तंत्र में ऐसा उल्लेख है कि ब्राह्मण को तीन प्रणव युक्त, क्षत्रिय को दो प्रणव युक्त, वैश्य को एक प्रणव युक्त मंत्र जपना चाहिए। गायत्री में सबसे प्रथम ॐ अक्षर है उसे ब्राह्मण तीन बार, क्षत्रिय दो बार और वैश्य एक बार उच्चारण करे। तदुपरान्त ‘भूभुर्वः स्व तत्सवितु’ आगे मंत्र पढ़े। इस रीति से मंत्र की शक्ति और भी अधिक बढ़ जाती है।   

लगभग तीन साढ़े घण्टे में अट्ठाईस मालाएँ आसानी से जपी जा सकती हैं। यह प्रातःकाल का साधन है। इसे करने के पश्चात् अन्य कोई काम करना चाहिए। दिन में शयन करना, नीच लोगों का स्पर्श, पराये घर का अन्न, इन दिनों वर्जित है। जल अपने हाथ से नदी या कुएँ में से लानी चाहिए और उसे अपने लिए अलग से सुरक्षित रखना चाहिए। पीने के लिए यही जल काम में लाया जाय। तीसरे पहर गीता का कुछ स्वाध्याय करना चाहिए। सन्ध्या समय भगवत् स्मरण और सन्ध्या- वन्दन करना चाहिये। रात को जल्दी सोने का प्रयत्न करना उचित है जिससे प्रातःकाल जल्दी उठने में सुविधा रहे। सोते समय गायत्री माता का ध्यान करना चाहिए और जब तक नींद न आवे मन ही मन बिना होठ हिलाये मंत्र का जप करते रहना चाहिए। दोनों एकादशियों, अमावस्या और पूर्णमासी को केवल थोड़े फलाहार के साथ उपवास करना चाहिए।

पूर्णमासी से आरम्भ करके पूरा एक मास और आगे के माह में कृष्णपक्ष की दशमी या एकादशी को पूरे चालीस दिन होंगे जिस दिन यह अनुष्ठान समाप्त हो उस दिन गायत्री मंत्र से कम से कम १०८ आहुतियों का हवन करना चाहिए और यथा सदाचारी विद्वान ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। गौओं को आटा और गुड़ मिले हुए गोले खिलाने चाहिए। साधना के दिनों में तुलसीदास को जल के साथ दिन में दो तीन बार नित्य लेते रहें।

इन चालीस दिनों में दिव्य तेज युक्त गायत्री माता के स्वप्नावस्था में किसी न किसी रूप में दर्शन होते हैं। यदि उनकी आकृति प्रसन्नता सूचक हो तो सफलता हुई ऐसा अनुभव करना चाहिए यदि उनकी भ्रू- भंगी अप्रसन्नता सूचक, नाराजी से भरी हुई, क्रुद्ध प्रतीत हो तो साधना में कुछ त्रुटि समझनी चाहिए और बारीकी से अपने कार्यक्रम का अवलोकन करके अपने अभ्यास को अधिक सावधानी के साथ चलाने का प्रयत्न करना चाहिए। नेत्र बन्द करके ध्यान करते समय, मंत्र जपते समय मानसिक नेत्रों के आगे कुछ चमत्कार गोलाकार प्रकाशपुंज से दृष्टिगोचर हों तो उन्हें जप द्वारा प्राप्त हुई आत्म- शक्ति का प्रतीक समझना चाहिए।

चालीस दिन की यह साधना अपने को दिव्य शक्ति से सम्पन्न करने के लिये हैं। साधना के दिनों में मनुष्य कृश होता है, उसका वजन घट जाता है परन्तु दो बात बढ़ जाती हैं एक तो शरीर की त्वचा पर पहले की अपेक्षा कुछ चमकदार तेज दिखाई पड़ने लगता है, दूसरे एक विशेष प्रकार की गन्ध आने लगती है। जिसमें यह दोनों लक्षण प्रगट होने लगें समझना चाहिए कि उस साधक ने गायत्री के द्वारा अपने अन्दर दिव्य शक्ति का संचय किया है। इस शक्ति को वह अपने और दूसरों के अनिष्टों को दूर करने एवं कई प्रकार लाभ उठाने में खर्च कर सकता है। अच्छा तो यही है कि इस शक्ति को अपने अन्दर छिपा रखा जाय और सांसारिक सुखों की अपेक्षा आध्यात्मिक पारलौकिक आनन्द प्राप्त किया जाय।

एक वर्ष की साधना-

एक वर्ष तक गायत्री की नियमित उपासना का व्रत लेने को ‘सहस्रांशु साधना’ कहते हैं। इसका नियम निम्न प्रकार है-

१. प्रतिदिन १० माला का जप, २. प्रतिदिन रविवार को उपवास (जो फल, दूध पर न रह सके वे एक समय बिना नमक का अन्नाहार लेकर भी अर्घ्य उपवास कर सकते हैं) ३. पूर्णिमा या महीने के अंतिम रविवार को १०८ या कम से कम २४ आहुतियों का हवन करें। सामग्री न मिलने पर केवल घी की आहुतियाँ गायत्री मन्त्र के साथ कर सकते हैं। ४. मन्त्र- लेखन प्रतिदिन कम से कम २४ गायत्री मन्त्र एक कापी पर लिखना। ५. स्वाध्याय- गायत्री साहित्य का स्वाध्याय नित्य करके अपने गायत्री सम्बन्धी ज्ञान को बढ़ाना। ६. ब्रह्म संदीप दूसरों को गायत्री साहित्य पढ़ने की तथा उपासना करने की प्रेरणा एवं शिक्षा देना। अपनी पुस्तकें दूसरों को पढ़ने देकर उनका ज्ञान बढ़ाना एवं नित्य नये गायत्री उपासक उत्पन्न करना। इन छः नियमों को एक वर्ष नियम पूर्वक पालन किया जाय तो उसका परिणाम बहुत ही कल्याण कारक होता है। यह साधना बहुत कठिन नहीं है। प्रतिदिन डेढ़ घण्टा आधा- आधा समय प्रातः सायं दोनों समय देने से साधना आसानी से चल सकती है। कभी जप, हवन, उपवास आदि के नियत समय पर कठिनाई आ जाय तो उसकी पूर्ति आगे- पीछे हो सकती है।

जो लोग एक वर्ष की साधना का व्रत लें वे इसकी सूचना हमें दे दें तो उनकी साधना में रहने वाली त्रुटियों का दोष परिमार्जन होता रहेगा। साल भर के लिखे हुए मंत्रों की कापी मथुरा भेज देनी चाहिए। वर्ष के अन्त में यथाशक्ति हवन, दान, पुण्य, गौ, ब्राह्मण या कन्याओं को भोजन कराना चाहिए। यह एक वर्ष की साधना आध्यात्मिक दृष्टि से बहुत की उत्तम परिणाम उत्पन्न करती देखी गई है।   


गायत्री को पंचमुखी कहा जाता है। कई चित्रों में अलंकारिक रूप से पाँच मुख दिखाये गये हैं। वास्तव में यह पाँच विभाग हैं  () ॐ ,(२) भूर्भुवः स्वः , () तत्सवितुर्वरेण्यं, () भर्गोदेवस्य धीमहि, () धियो योनः प्रचोदयात् ।। यज्ञोपवीत के पाँच भाग हैं। तीन सूत्र, चौथा मध्यग्रन्थियाँ, पाँचवां ब्रह्मग्रन्थि। पाँच देवता भी प्रसिद्ध हैं- ॐ गणेश। व्याहृति- भवानी। प्रथम चरण- ब्रह्मा। द्वितीय चरण- विष्णु। तृतीय चरण- महेश। यह पाँच देवता गायत्री के पाँच प्रमुख शक्तिपुंज कहे जा सकते हैं। प्रकृति के संचालक पाँच तत्त्व (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश) ‘जीव के पाँच कोष (अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष, आनन्दमय कोष), पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, चैतन्य पंचक (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, आत्मा) इस प्रकार की पंच प्रवृत्तियाँ गायत्री के पाँच भागों में प्रस्फुटित, प्रेरित, प्रसारित होती हैं। इन्हीं आधारों पर वेदमाता गायत्री को पंचमुखी कहा गया है। 
 
पंचमुखी की उपासना एक नैष्ठिक अनुष्ठान है, जिसे ‘‘गायत्री अभियान’’ कहते हैं जो पाँच लाख जप का होता है। यह एक वर्ष की तपश्चर्या साधक को उपासनीय महाशक्ति से तादात्म्य करा देती है। श्रद्धा और विश्वासपूर्वक की हुई अभियान की साधना अपना फल दिखाये बिना नहीं रहती ।। ‘‘अभियान’’ एक ऐसी तपस्या है, जो साधक को गायत्री शक्ति से भर देती है। फलस्वरूप साधक अपने अन्दर, बाहर तथा चारों ओर एक दैवी वातावरण का अनुभव करता है। 
 
विशेष साधना के रूप में चौबीस हजार एवं सवालक्ष के अनुष्ठान बहुधा लोग कर लेते हैं। इसमें आगे का २४ लक्ष का पुरश्चरण लोगों को कठिन पड़ता है। उसमें नित्य लगभग घण्टे साधना में लगाने पड़ते हैं। इतना समय सामान्य रूप से निकाल पाना कठिन होता है। 
 
जो साधक लम्बी अवधि का साधना संकल्प करना चाहे और प्रतिदिन घंटे दो घंटे से अधिक समय लगाने की स्थिति में न हो उनके लिए एक वर्षीय गायत्री अभियान साधना बहुत उपयुक्त रहती है। इसके अन्तर्गत एक वर्ष में निर्धारित तपश्चर्याओं के साथ लक्ष गायत्री मंत्र जप पूरा किया जाता है। 
 
इस साधना अभियान में जप संख्या बहुत अधिक नहीं होती, फिर भी दीर्घकालीन श्रद्धा भरा साधना क्रम साधक के आन्तरिक उत्कर्ष की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह एक वर्ष की तपश्चर्या साधक को उपासनीय महाशक्ति से तादात्म्य करा देती है। श्रद्धा और विश्वास पूर्वक की हुई अभियान की साधना अपना फल दिखाये बिना नहीं रहती। ‘‘अभियान’’ एक ऐसी तपस्या है जो साधक को गायत्री शक्ति से भर देती है। फलस्वरूप साधक अपने अन्दर, बाहर तथा चारों ओर एक दैवी वातावरण का अनुभव करता है।

एक वर्ष में पाँच लाख जप पूरा करने का अभियान किसी भी मास शुक्ल पक्ष की एकादशी से आरम्भ किया जा सकता है। गायत्री का आविर्भाव शुक्ल पक्ष की दशमी को मध्य रात्रि में हुआ है, इसलिए उसका उपवास पुण्य दूसरे दिन एकादशी को माना जाता है। अभियान आरम्भ करने के लिए यही मुहूर्त सबसे उत्तम है। जिस एकादशी से आरम्भ किया जाए, एक वर्ष बाद उसी एकादशी को समाप्त करना चाहिये।

महीने की दोनों एकादशियों को उपवास करना चाहिए। उपवास में दूध, दही, शाक आदि सात्विक पदार्थ लिये जा सकते हैं। जो एक समय भोजन करके काम चला सकें, वे वैसा करें। बाल, वृद्ध, गर्भिणी या कमजोर प्रकृति के व्यक्ति दो बार भी सात्विक आहार ले सकते हैं। उपवास के दिन पानी कई बार पीना चाहिए।

दोनों एकादशियों को २४ मालायें जपनी चाहिए। साधारण दिनों में प्रतिदिन १० मालायें जपनी चाहिए। वर्ष में तीन संध्यायें होती हैं, उन्हें नवरात्रियाँ कहते हैं इन नवरात्रियों में से चौबीस- चौबीस हजार के तीन अनुष्ठान कर लेने चाहिए। जैसे प्रतिदिन प्रातःकाल, मध्यान्ह, सायंकाल की तीन संध्यायें होती हैं, वैसे ही वर्ष में ऋतु परिवर्तनों की संधियों में तीन नवरात्रियाँ होती हैं। वर्षा के अन्त और शीत के आरम्भ में आश्विन शुक्ल से लेकर तक। शीत के अन्त और ग्रीष्म के आरम्भ में चैत्र शुक्ल से लेकर तक। ग्रीष्म के अन्त और वर्षा के आरम्भ में ज्येष्ठ शुक्ल से लेकर तक। यह तीन नवरात्रियाँ हैं। दशमी गायत्री जयन्ती को पूर्णाहुति का दिन होने से यह भी नवरात्रियों में जोड़ दिया गया है। इस प्रकार दस दिन की इन संध्याओं में चौबीस माला प्रतिदिन के हिसाब से चौबीस हजार जप हो जाते हैं। इस प्रकार एक वर्ष में पाँच लाख जप पूरा हो जाता है। संख्या का हिसाब इस प्रकार और भी अच्छी तरह समझ में आ सकता है।

१. बारह महीने की चौबीस एकादशियों को प्रतिदिन २४ मालाओं के हिसाब से २४x२४ = ५७६ माला।
२. दस- दस दिन की नवरात्रियों में प्रतिदिन की २४ मालाओं के हिसाब से ३०x२४ = ७२० माला।
३. वर्ष के ३६० दिनों में से उपरोक्त ३०x२४ = ५४ काटकर शेष ३०६ दिनों में १० माला प्रतिदिन के हिसाब से ३०६० माला।
४. प्रति रविवार को पाँच मालायें अधिक जपनी चाहिए अर्थात् १० की जगह पन्द्रह माला रविवार को जपी जायें। इस प्रकार एक वर्ष में ५२x५ = २६० मालायें
इस प्रकार कुल मिलाकर (५७६+७२० ३०६० २६०=४६१६ मालायें हुईं) एक माला में १०८ दाने होते हैं। मालायें ४६१६x१०८=४,९८,५२८ कुल जप हुआ पाँच लाख में करीब उन्नीस सौ कम हैं। चौबीस मालायें पूर्णाहुति के अन्तिम दिन विशेष जप एवं हवन करके पूरी की जाती है। 

इस प्रकार पाँच लाख जप पूरे हो जाते हैं। तीन नवरात्रियों में काम,पलंग पर सोंना, दूसरे व्यक्ति से हजामतें बनवाना, चमड़े का जूता पहनना, मद्य मांस सेवन आदि विशेष रूप से वर्जित हैं। शेष दिनों में सामान्य व्रत रखा जा सकता है, उसमें किसी विशेष तपश्चर्या का प्रतिबन्ध नहीं है।

इस अभियान साधना को पूरा करने की और भी विधियाँ हैं। पहली विधि तो ऊपर बताई जा चुकी है, दूसरी विधि में साधारणतया ११ माला प्रतिदिन और रविवार या अन्य अवकाश के दिन २४ मालायें करनी होती हैं। यदि अवकाश के दिन अधिक न करनी हों तो लाख को ३६० दिनों में बराबर विभाजन करने पर प्रायः १४ माला का हिसाब बन जाता है। वर्ष में लाख का जप इसी क्रम में पूरा करना आसान हो जाता है। इसमें अपनी सुविधा का क्रम भी निर्धारित हो सकता है पर वह चलना नियमित रूप से ही चाहिए। वर्ष पूरा हो जाने पर उसकी पूर्णाहुति का हवन करा दिया जाय। इसमें एक हजार आहुति से कम न हों। महीने में एक बार शुक्ल पक्ष की एकादशी को १०८ मंत्रों से हवन कर लेना चाहिए।

अभियान एक प्रकार का लक्षभेद है। इसके लिए किसी पथ- प्रदर्शक एवं शिक्षक की नियुक्ति आवश्यक है, जिससे कि बीच- बीच में जो अनुभव हों उनके सम्बन्ध में परामर्श किया जाता रहे। कई बार जबकि प्रगति में बाधा उपस्थित होती है तो उसका उपाय अनुभवी मार्ग- दर्शक से जाना जा सकता है। एकांकी यात्रा की अपेक्षा विश्वस्त पथ- प्रदर्शक की सहायता सदा ही लाभदायक सिद्ध होती है।

शुद्ध होकर प्रातः सायं दोनों समय जप किया जा सकता है। प्रातः काल उपासना में अधिक समय लगाना चाहिए, सन्ध्या के लिए तो कम से कम भाग ही छोड़ना चाहिए। जप के समय मस्तक के मध्य भाग अथवा हृदय में प्रकाश पुंज ज्योतिस्वरूप गायत्री का ध्यान करते जाना चाहिए।

साधारणतः एक घण्टे में दस मालाएँ जपी जा सकती हैं। अनुष्ठान के दिनों में ढाई घण्टे प्रतिदिन और साधारण दिनों में एक घण्टा प्रतिदिन उपासना में लगा देना कुछ विशेष कठिन बात नहीं है। सूत, यात्रा, बीमारी आदि के दिनों में बिना माला के मानसिक जप चालू रखना चाहिए। किसी दिन साधना छूट जाने पर उसकी
पूर्ति अगले दिन की जा सकती है।

फिर भी यदि वर्ष के अन्त में कुछ जप कम रह जाय तो उसके लिए ऐसा हो सकता है कि उतने मंत्र अपने लिए किसी से उधार जपाये जा सकते हैं ।। जो सुविधानुसार लौटा दिए जायें। इस प्रकार हवन आदि की कोई असुविधा पड़े तो वह भी इसी प्रकार सहयोग के आधार पर पूरी की जा सकती है। किसी साधक की साधना खण्डित न होने देने एवं उसका संकल्प पूरा कराने के लिए अखण्ड ज्योति से भी समुचित उत्साह, पथ- प्रदर्शन तथा सहयोग मिल जाता है।

अभियान एक वर्ष में पूरा होता है। साधना की महानता को देखते हुए इतना समय कुछ अधिक नहीं है। इस तपस्या के लिए जिनके मन में उत्साह है उन्हें इस शुभ आरम्भ को कर ही देना चाहिए। आगे चलकर माता अपने आप सँभाल लेती है। यह निश्चित है कि शुभ आरम्भ का परिणाम शुभ ही होता है।   

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