आध्यात्मिक उपचारों से सामयिक वातावरण बनाने और बदलने में बड़ी सहायता मिलती है। प्राचीनकाल में सामयिक विपन्नता एवं विपरीतता को बदलने एवं सुधारने के लिए समय- समय पर विशेष धर्मानुष्ठान होते रहे हैं। शास्त्रों में ऐसे विधान भी हैं।
वर्तमान काल की राष्ट्र- रक्षा समस्या को हल करने के लिए जहाँ भौतिक साधनों को जुटाया जा रहा है, वहाँ आध्यात्मिक आयोजनों की भी आवश्यकता है। भौतिक शक्ति से आध्यात्मिक शक्ति का महत्त्व कम नहीं। दैवी शक्ति की सहायता से बड़े- बड़े कठिन कार्य सरल होते हैं। फिर वर्तमान समस्याओं के समाधान में उनसे सहायता क्यों न मिलेगी?
इस संदर्भ में अखण्ड ज्योति परिवार द्वारा सन् १९६५ की शरदपूर्णिमा से शक्ति साधना महापुरश्चरण प्रारम्भ किया गया है। गायत्री सर्वोपरि शक्ति है। उसके साथ कुछ विशिष्ट बीज मंत्र एवं सम्पुट जोड़ने से उसे विभिन्न भौतिक कार्यों के लिए भी प्रयुक्त किया जा सकता है। ‘श्री’ बीज सफलता एवं समृद्धि के लिए ‘ह्रीं’ बीज बुद्धि एवं भावना विकास के लिए और ‘क्लीं’ बीज शक्ति सम्पन्नता एवं अनिष्ट निवारण के लिए किया जाता है। वर्तमान परिस्थितियों में देश में सर्वतोमुखी बल, साहस, शोर्य, एवं पराक्रम का बढ़ना आवश्यक है ।। साथ ही शत्रुओं का दमन एव शमन भी होना चाहिए। इन दोनों प्रयोजनों के लिए ‘‘क्लीं’’ तत्त्व अपेक्षित है। गायत्री महामन्त्र के साथ क्लीं बीज तथा सम्पुट जोड़ देने से एक ऐसी विशिष्ट मन्त्र- शक्ति बनती है जो आज की उपयुक्त दोनों आवश्यकताओं की पूर्ति में महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकती है।
मंत्र निम्न प्रकार है-
‘‘ॐ भू: भुवः स्वः क्लीं क्लीं क्लीं तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् क्लीं क्लीं क्लीं ॐ’’
इस शक्ति मन्त्र की एक माला तो हम को जब तक संकट की घड़ियाँ विद्यमान हैं तब तक करते ही रहना चाहिए।
राष्ट्रीय संकट के हल करने में हम सबका योगदान होना चाहिए।
उपयुक्त मन्त्र की एक माला जपने में दस मिनट लगती है। इतना समय
तो हर व्यक्ति स्नान करने के उपरान्त इस साधना को दे ही सकता
है। जो जप न कर सकें वे प्रतिदिन २४
मंत्र लेखन का क्रम भी बना सकते हैं। किसी न किसी रूप में उस
धर्मानुष्ठान में हमें सम्मिलित रहना चाहिए। वर्तमान संघर्ष ऐसे
लोगों के विरूद्ध
है जिनसे परास्त होने पर हमारा धर्म और संस्कृति भी सुरक्षित
नहीं है इसलिए इस उपासना क्रम को धर्म रक्षा का एक आवश्यक अंग
मानकर ही करना चाहिए। अखण्ड- ज्योति परिवार के लोग स्वयं तो
करेंगे ही, अन्य जो लोग उनकी पहुँच तथा प्रभाव प्रेरणा के
क्षेत्र मे आते हों उन्हें भी इसके लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।
चालीस दिन की गायत्री साधना-
गायत्री मंत्र के द्वारा जीवन की प्रत्येक दशा में आश्चर्य जनक मनोवांछित
फल किस प्रकार प्राप्त हुए हैं और होते हैं। यह मंत्र अपनी
आश्चर्यजनक शक्तियों के कारण ही हिन्दू धर्म जैसे वैज्ञानिक धर्म
में प्रमुख स्थान प्राप्तकर सका है। गंगा, गीता, गौ, गायत्री, गोविन्द, यह पांच हिन्दू धर्म के केन्द्र हैं ।। गुरू शिष्य की वैदिक दीक्षा गायत्री मंत्र द्वारा ही होती है।
नित्य प्रति की साधारण साधना और सवालक्ष अनुष्ठान की विधियां पिछले पृष्ठों में पाठक पढ़ चुके हैं। यहां पर चालीस दिन की एक तीसरी साधना उपस्थित की जा रही है। शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से इस साधना को आरम्भ करना चाहिए। साधक का निम्न नियमों को पालन करना उचित है : (१) ब्रह्मचर्य से रहें, (२) शय्या पर शयन न करें, (३) अन्न का आहार केवल एक समय करें, (४) सेंधा नमक और काली मिर्च के अतिरिक्त अन्य सब मसाले त्याग दे, (५) लकड़ी की खड़ाऊँ या चट्टी पहिने, बिना बिछाये हुए जमीन पर न बैठे। इन पांच नियमों का पालन करते हुए गायत्री की उपासना करनी चाहिए।
प्रातःकाल सूर्योदय से कम से कम एक घण्टा पूर्व उठकर शौच स्नान से निवृत्त होकर पूर्वाभिमुख होकर कुशासन पर किसी स्वच्छ एकान्त स्थान में जप के लिए बैठना चाहिए। जल का भरा हुआ पात्र पास में रक्खा रहे। घी का दीपक तथा धूप बत्ती जला कर दाहिनी ओर रख लेनी चाहिए। प्राणायाम तथा ध्यान उसी प्रकार करना चाहिए जैसा कि पिछले पृष्ठों में सवालक्ष अनुष्ठान के सम्बन्ध में बताया गया है। इसके बाद तुलसी की माला से जप आरम्भ करना चाहिए। एक सौ आठ मंत्रों की माला अट्ठाईस बार नित्य जपनी चाहिए। इस प्रकार प्रति दिन ३०२६ मंत्र होते हैं। एक मन्त्र आरम्भ में और एक अन्त में दो मंत्र नियत मालाओं के अतिरिक्त अधिक जपने चाहिए इस प्रकार ४० दिन में सवालक्ष मंत्र पूरे हो जाते हैं।
‘गायत्री तंत्र ’ में ऐसा उल्लेख है कि ब्राह्मण को तीन प्रणव युक्त, क्षत्रिय को दो प्रणव युक्त, वैश्य को एक प्रणव युक्त मंत्र जपना चाहिए। गायत्री में सबसे प्रथम ॐ अक्षर है उसे ब्राह्मण तीन बार, क्षत्रिय दो बार और वैश्य एक बार उच्चारण करे। तदुपरान्त ‘भूभुर्वः स्व तत्सवितु’ आगे मंत्र पढ़े। इस रीति से मंत्र की शक्ति और भी अधिक बढ़ जाती है।
लगभग तीन साढ़े घण्टे में अट्ठाईस मालाएँ आसानी से जपी जा सकती हैं। यह प्रातःकाल का साधन है। इसे करने के पश्चात् अन्य कोई काम करना चाहिए। दिन में शयन करना, नीच लोगों का स्पर्श, पराये घर का अन्न, इन दिनों वर्जित है। जल अपने हाथ से नदी या कुएँ में से लानी चाहिए और उसे अपने लिए अलग से सुरक्षित रखना चाहिए। पीने के लिए यही जल काम में लाया जाय। तीसरे पहर गीता का कुछ स्वाध्याय करना चाहिए। सन्ध्या समय भगवत् स्मरण और सन्ध्या- वन्दन करना चाहिये। रात को जल्दी सोने का प्रयत्न करना उचित है जिससे प्रातःकाल जल्दी उठने में सुविधा रहे। सोते समय गायत्री माता का ध्यान करना चाहिए और जब तक नींद न आवे मन ही मन बिना होठ हिलाये मंत्र का जप करते रहना चाहिए। दोनों एकादशियों, अमावस्या और पूर्णमासी को केवल थोड़े फलाहार के साथ उपवास करना चाहिए।
पूर्णमासी से आरम्भ करके पूरा एक मास और आगे के माह में कृष्णपक्ष की दशमी या एकादशी को पूरे चालीस दिन होंगे जिस दिन यह अनुष्ठान समाप्त हो उस दिन गायत्री मंत्र से कम से कम १०८ आहुतियों का हवन करना चाहिए और यथा सदाचारी विद्वान ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। गौओं को आटा और गुड़ मिले हुए गोले खिलाने चाहिए। साधना के दिनों में तुलसीदास को जल के साथ दिन में दो तीन बार नित्य लेते रहें।
इन चालीस दिनों में दिव्य तेज युक्त गायत्री माता के
स्वप्नावस्था में किसी न किसी रूप में दर्शन होते हैं। यदि उनकी
आकृति प्रसन्नता सूचक हो तो सफलता हुई ऐसा अनुभव करना चाहिए
यदि उनकी भ्रू-
भंगी अप्रसन्नता सूचक, नाराजी से भरी हुई, क्रुद्ध प्रतीत हो तो
साधना में कुछ त्रुटि समझनी चाहिए और बारीकी से अपने कार्यक्रम
का अवलोकन करके अपने अभ्यास को अधिक सावधानी के साथ चलाने का
प्रयत्न करना चाहिए। नेत्र बन्द करके ध्यान करते समय, मंत्र जपते
समय मानसिक नेत्रों के आगे कुछ चमत्कार गोलाकार प्रकाशपुंज से दृष्टिगोचर हों तो उन्हें जप द्वारा प्राप्त हुई आत्म- शक्ति का प्रतीक समझना चाहिए।
चालीस दिन की यह साधना अपने को दिव्य शक्ति से सम्पन्न करने
के लिये हैं। साधना के दिनों में मनुष्य कृश होता है, उसका वजन
घट जाता है परन्तु दो बात बढ़ जाती हैं एक तो शरीर की त्वचा
पर पहले की अपेक्षा कुछ चमकदार तेज दिखाई पड़ने लगता है, दूसरे
एक विशेष प्रकार की गन्ध आने लगती है। जिसमें यह दोनों लक्षण
प्रगट होने लगें समझना चाहिए कि उस साधक ने गायत्री के द्वारा
अपने अन्दर दिव्य शक्ति का संचय किया है। इस शक्ति को वह अपने
और दूसरों के अनिष्टों को दूर करने एवं कई प्रकार लाभ उठाने
में खर्च कर सकता है। अच्छा तो यही है कि इस शक्ति को अपने
अन्दर छिपा रखा जाय और सांसारिक सुखों की अपेक्षा आध्यात्मिक
पारलौकिक आनन्द प्राप्त किया जाय।
एक वर्ष की साधना-
एक वर्ष तक गायत्री की नियमित उपासना का व्रत लेने को ‘सहस्रांशु साधना’ कहते हैं। इसका नियम निम्न प्रकार है-
१. प्रतिदिन १० माला का जप, २. प्रतिदिन रविवार को उपवास (जो फल, दूध पर न रह सके वे एक समय बिना नमक का अन्नाहार लेकर भी अर्घ्य उपवास कर सकते हैं) ३. पूर्णिमा या महीने के अंतिम रविवार को १०८ या कम से कम २४ आहुतियों का हवन करें। सामग्री न मिलने पर केवल घी की आहुतियाँ गायत्री मन्त्र के साथ कर सकते हैं। ४. मन्त्र- लेखन प्रतिदिन कम से कम २४ गायत्री मन्त्र एक कापी पर लिखना। ५. स्वाध्याय- गायत्री साहित्य का स्वाध्याय नित्य करके अपने गायत्री सम्बन्धी ज्ञान को बढ़ाना। ६. ब्रह्म संदीप दूसरों को गायत्री साहित्य पढ़ने की तथा उपासना करने की प्रेरणा एवं शिक्षा देना। अपनी पुस्तकें दूसरों को पढ़ने देकर उनका ज्ञान बढ़ाना एवं नित्य नये गायत्री उपासक उत्पन्न करना। इन छः नियमों को एक वर्ष नियम पूर्वक पालन किया जाय तो उसका परिणाम बहुत ही कल्याण कारक होता है। यह साधना बहुत कठिन नहीं है। प्रतिदिन डेढ़ घण्टा आधा- आधा समय प्रातः सायं दोनों समय देने से साधना आसानी से चल सकती है। कभी जप, हवन, उपवास आदि के नियत समय पर कठिनाई आ जाय तो उसकी पूर्ति आगे- पीछे हो सकती है।
जो लोग एक वर्ष की साधना का व्रत लें वे इसकी सूचना हमें दे दें तो उनकी साधना में रहने वाली त्रुटियों का दोष परिमार्जन होता रहेगा। साल भर के लिखे हुए मंत्रों की कापी मथुरा भेज देनी चाहिए। वर्ष के अन्त में यथाशक्ति हवन, दान, पुण्य, गौ, ब्राह्मण या कन्याओं को भोजन कराना चाहिए। यह एक वर्ष की साधना आध्यात्मिक दृष्टि से बहुत की उत्तम परिणाम उत्पन्न करती देखी गई है।