गुरूपूर्णिमा के पुण्य पर्व पर प्रत्येक शिष्य सद्गुरू कृपा के लिए प्रार्थनाशील रहता है। वह उस साधना विधि को पाना- अपनाना चाहता है, जिससे उसे अपने सद्गुरू की चेतना का संस्पर्श मिले। गुरूतत्त्व का बोध हो। जीवन के सभी लौकिक दायित्वों का पालन- निर्वहन करते हुए उसे गुरूदेव की कृपानुभूतियों का लाभ मिल पाए। शिष्यों -गुरूभक्तों की इन सभी चाहतों को पूरा करने के लिए प्राचीन ऋषियों ने गुरूगीता के पाठ ,अर्थ चिन्तन, मनन व निदिध्यासन को समर्थ साधना विधि के रूप में बताया था। इस गुरूगीता का उपदेश कैलाश शिखर पर भगवान् सदाशिव ने माता पार्वती को दिया था। बाद में यह गुरूगीता नैमिषारण्य के तीर्थ स्थल में सूत जी ने ऋषिगणों को सुनायी। भगवान् व्यास ने स्कन्द पुराण के उत्तरखण्ड में इस प्रसंग का बड़ी भावपूर्ण रीति से वर्णन किया है।
शिष्य- साधक हजारों वर्षों से इससे लाभान्वित होते रहे हैं। गुरूतत्त्व का बोध कराने के साथ यह एक गोपनीय साधना विधि भी है। अनुभवी साधकों का कहना है कि गुरूवार का व्रत रखते हुए विनियोग और ध्यान के साथ सम्यक् विधि से इसका पाठ किया जाय, तो शिष्य को अवश्य ही अपने गुरूदेव का दिव्य सन्देश मिलता है। स्वप्न में, ध्यान में या फिर साक्षात् उसे सद्गुरू कृपा की अनुभूति होती है। शिष्य के अनुराग व प्रगाढ़ भक्ति से प्रसन्न होकर गुरूदेव उसकी आध्यात्मिक व लौकिक इच्छाओं को पूरा करते हैं। यह कथन केवल काल्पनिक विचार नहीं ,, बल्कि अनेकों साधकों की साधनानुभूति है। हम सब भी इसके पाठ ,अर्थ चिन्तन ,मनन व निदिध्यासन से गुरूतत्त्व का बोध पा सकें, परम पूज्य गुरूदेव की कृपा से लाभान्वित हो सकें, इसलिए इस ज्ञान की ,मंत्र क्षमता वाले गुरूगीता के श्लोकों की भावपूर्ण व्याख्या की जाएगी।
लेकिन सबसे पहले साधकों को इसकी पाठविधि बतायी जा रही है ; ताकि जो साधक इसके नियमित पाठ से लाभान्वित होना चाहें, हो सकें। गुरूगीता के पाठ को शास्त्रकारों ने मंत्रजप के समतुल्य माना है। उनका मत है कि इसके पाठ को महीने के किसी भी गुरूवार को प्रारम्भ किया जा सकता है। अच्छा हो कि साधक उस दिन एक समय अस्वाद भोजन करें। यह उपवास मनोभावों को शुद्ध व भक्तिपूर्ण बनाने में समर्थ सहायक की भूमिका निभाता है। इसके बाद पवित्रीकरण आदि षट्कर्म करने के पश्चात् पूजा वेदी पर रखे गए गुरूदेव के चित्र का पंचोपचार पूजन करें। तत्पश्चात् दाएँ हाथ में जल लेकर विनियोग का मंत्र पढ़े-
ॐ अस्य श्री गुरूगीता स्तोत्रमंत्रस्य भगवान् सदाशिव ऋषिः। नानाविधानि छंदासि। श्री सद्गुरूदेव परमात्मा देवता। हं बीजं। सः शक्तिः। क्रों कीलकं। श्री सद्गुरूदेव कृपाप्राप्त्यर्थे जपे विनियोगः॥
विनियोग मंत्र पढ़ने के बाद हाथ के जल को पास रखे किसी पात्र में डाल दें। दरअसल यह विनियोग साधक को मंत्र की पवित्रता, महत्ता का स्मरण कराता है। मंत्र के ऋषि ,देवता, बीज, शक्ति व कीलक की याद कराता है। साथ ही साधक के मन को एकाग्र करते हुए पाठ किए जाने वाले स्तोत्र मंत्र की शक्तियों को जाग्रत् करता है। ऊपर बताए गए विनियोग मंत्र का अर्थ है- ॐ (परब्रह्म का स्मरण) इस गुरूगीता स्तोत्र मंत्र के भगवान् सदाशिव द्रष्टा ऋषि हैं। इसमें कई तरह के छन्द हैं। इस मंत्र के देवता या इष्ट परमात्म स्वरूप सद्गुरूदेव हैं। इस महामंत्र का बीज हं है, शक्ति सः है, जो जगज्जननी माता भगवती का प्रतीक है। क्रों बीज से इसे कीलित किया गया है। इस मंत्र का पाठ या जप सद्गुरूदेव की कृपा पाने के लिए किया जा रहा है।
इस विनियोग के बाद गुरूदेव का ध्यान किया जाना चाहिए।
ध्यान मंत्र निम्र है-
योगपूर्णं तपोनिष्ठं वेदमूर्तिं यशस्विनम् ।।
गौरवर्णं गुरूं श्रेष्ठं भगवत्या सुशोभितम्॥
कारूण्यामृतसागरं शिष्यभक्तादिसेवितम्।
श्रीरामं सद्गुरूं ध्यायेत् तमाचार्यवरं प्रभुम्॥
इस ध्यान मंत्र का भाव है, गौरवर्णीय, प्रेम की साकार मूर्ति गुरूदेव वन्दनीया माताजी (माता भगवती देवी) के साथ सुशोभित हैं। गुरूदेव योग की सभी साधनाओं में पूर्ण,वेद की साकार मूर्ति ,तपोनिष्ठ तेजस्वी हैं। शिष्य और भक्तों से सेवित गुरूदेव करूणा के अमृत सागर हैं। उन आचार्य श्रेष्ठ श्रीराम का, अपने गुरूदेव का साधक ध्यान करें।
ध्यान की प्रगाढ़ता में परम पूज्य गुरूदेव को अपना आत्मनिवेदन करने के बाद साधक को गुरूगीता का पाठ करना चाहिए। जिससे साधकगण उनके गहन चिन्तन से गुरूतत्त्व का बोध प्राप्त कर सकें। इसके पठन ,अर्थ चिन्तन को अपनी नित्य प्रति की जाने वाली साधना का अविभाज्य अंग मानें।
गुरूगीता का प्रारम्भ ऋषियों की जिज्ञासा से होता है-
ऋषयः ऊचुः
गुह्यात् गुह्यतरा विद्या गुरूगीता विशेषतः।
ब्रूहि नः सूत कृपया श्रृणुमस्त्वत्प्रसादतः॥
नैमिषारण्य के तीर्थ स्थल में एक विशेष सत्र के समय ऋषिगण महर्षि सूत से कहते हैं- हे सूत जी ! गुरूगीता को गुह्यतर विशेष विद्या कहा गया है। आप हम सभी को उसका उपदेश दें। आपकी कृपा से हम सब भी उसे सुनने का लाभ प्राप्त करना चाहते हैं।
महर्षि सूत ने कहा- सूत उवाच
कैलाश शिखरे रम्ये भक्ति सन्धान नायकम् ।।
प्रणम्य पार्वती भक्त्या शंकरं पर्यपृच्छत॥ १॥
ऋषिगणों, यह बड़ी प्यारी कथा है। इस गुरूगीता के महाज्ञान का उद्गम तब हुआ, जब कैलाश पर्वत के अत्यन्त रमणीय वातावरण में भक्तितत्त्व के अनुसन्धान में अग्रणी माता पार्वती ने भक्त्तिपूर्वक भगवान सदाशिव से प्रश्न पूछा।
ॐ नमो देवदेवेश परात्पर जगद्गुरो।
सदाशिव महादेव गुरूदीक्षां प्रदेहि मे ॥ २॥
केन मार्गेण भो स्वामिन् देही ब्रह्रामयो भवेत् ।।
त्वं कृपां कुरू मे स्वामिन् नमामि चरणौ तव॥ ३॥
देवी बोलीं- हे देवाधिदेव ! हे परात्पर जगद्गुरू ! हे सदाशिव ! हे महादेव ! आप मुझे गुरूदीक्षा दें। हे स्वामी ! आप मुझे बताएँ कि किस मार्ग से जीव ब्रह्मस्वरूप को प्राप्त करता है। हे स्वामी ! आप मुझ पर कृपा करें। मैं आपके चरणों में प्रणाम करती हूँ।
यही है आदि जिज्ञासा। यही है प्रथम प्रश्न। यही वह बीज है, जिससे गुरूतत्त्व के बोध का बोधितरू अंकुरित हुआ, भगवान शिव की कृपा से पुष्पित- पल्लवित होकर महावृक्ष बना। इस मधुर प्रसंग में आदिशक्ति, जगन्माता ने स्वयं शिष्य भाव से यह प्रश्न पूछा है। चित् शक्ति स्वयं आदि शिष्य बनी हैं। जगत् के स्वामी भगवान महाकाल आदि गुरू हैं। इस प्रसंग का सुखद साम्य परम वन्दनीया माताजी एवं परम पूज्य गुरूदेव की कथा गाथा से भी है। इस परम विशाल ,महाव्यापक गायत्री परिवार की जननी वन्दनीय माताजी आदि शिष्य भी थीं ।। उन्होंने हम सबके समक्ष शिष्यत्व का अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया। वे हम सबके लिए माता पार्वती की भाँति हैं। जिनकी जिज्ञासा और तप से ज्ञान की युग सृष्टि हुई।
माता पार्वती ने अपनी भक्तिपूर्ण जिज्ञासा से भूत- वर्तमान और भविष्य के सभी शिष्यों व साधकों के समक्ष विनयात् याति पात्रताम् का आदर्श सामने रखा। जो अपने सम्पूर्ण अन्तःकरण को गुरूचरणों में समर्पित करके गुरूदीक्षा प्राप्ति की प्रार्थना करता है। वही तत्त्वज्ञान का अधिकारी होता है। किसी भी तरह से अहंता का लेशमात्र भी रहने से ज्ञान व तप की साधना फलित नहीं होती है। जो जगन्माता आदि जननी की भाँति स्वयं को अपने गुरू के चरणों में अर्पित कर देते हैं। गुरू कृपा उन्हीं का वरण करती है। करूणा सागर कृपालु गुरूदेव उन्हीं को अपनी कृपा का वरदान देते हैं।