गुरूगीता की मंत्रमाला में आध्यात्मिक साधना की प्रक्रियाएँ और तत्त्वज्ञान दोनों पिरोये हैं। जो आध्यात्मिक प्रक्रियाओं को श्रद्धा व समर्पित भाव से सम्पन्न करते हैं, उन्हीं को तत्त्वज्ञान की अनुभूति होती है। जिनमें आध्यात्मिक प्रक्रियाओं के प्रति रुचि नहीं है, उनके लिए सच्ची अभीप्सा नहीं है, वे तत्त्वज्ञान की अनुभूति नहीं पाते। तत्त्वज्ञान के ग्रंथ- शब्द उनके लिए बौद्धिक विचार, तर्कजाल व वाणी विलास का विषय बनकर ही जाते हैं। ऐसे लोग शब्दों को तो पढ़ते, कहते व सुनते हैं, पर इनका अर्थ खोजने में असफल रहते हैं। इस खोज के लिए साधना का होना ,तप परायण बनना अनिवार्य है। यथार्थ में तत्त्वज्ञान तप साधना का निष्कर्ष है। इसे कठिन साधनाओं को करने वाले लोग ही प्राप्त करते हैं और उन्हीं में इसके समझने की सही योग्यता विकसित होती है।
पूर्वोक्त मंत्र में भगवान् सदाशिव ने शिष्यों को सावधान किया है कि कहीं इधर- उधर भटको मत। 'गुरू' ये दो अक्षर स्वयं में महामंत्र हैं। यह महामंत्र अन्य सभी मंत्रों से श्रेष्ठतम व सर्वोत्तम है। सभी शास्त्र वचनों का मर्म यही है। अपने प्यारे सद्गुरू की सेवा में लीन शिष्य ही सच्चा संन्यासी है। गुरू से विमुख व्यक्ति को कहीं कोई ठौर नहीं है। परमात्मतत्त्व का बोध केवल सद्गुरू की कृपा से मिलता है। जिस तरह से दीप से दीप जलता है, उसी तरह से सद्गुरू- शिष्य के अन्तःकरण में ब्रह्मज्ञान की ज्योति जला देते हैं। शिष्य का कर्त्तव्य है कि वह अपने सद्गुरू की कृपा की छाँव में आत्मतत्त्व का चिन्तन करे। ऐसा करते- करते गुरूदेव द्वारा दिखाये मार्ग से स्वतः ही आत्मज्ञान हो जायेगा।
भगवान् नीलकण्ठ इस भक्ति कथा के अगले प्रकरण में कहते हैं-
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं परमात्मस्वरूपकम् ।।
स्थावरं जंगमं चैव प्रणमामि जगन्मयम्॥१११॥
वन्देऽहं सच्चिदानन्दं भेदातीतं सदा गुरूम्।
नित्यं पूर्ण निराकारं निर्गुणं स्वात्मसंस्थितम्॥११२॥
परात्परं सदा ध्येयं नित्यमानन्दकारकम्।
हृदयाकाशमध्यस्थं शुद्धस्फटिकसन्निभम्॥ ११३॥
स्फटिकप्रतिमारूपं दृश्यते दर्पणे यथा।
तथात्मनि चिदाकारं आनन्दं सोऽहमित्युत॥ ११४॥
ब्रह्मा से लेकर तिनके तक सभी जड़- चेतन परमात्मा का स्वरूप है। और सद्गुरू परमात्ममय है। इसीलिए यह सम्पूर्ण जगत् उन्हीं का रूप है। ऐसा जानकर मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ। शिष्य ऐसा भाव रखे॥१११॥ शिष्य को चाहिए कि वह सच्चिदानन्द सभी भेद से परे गुरूतत्त्व को अनुभव करे और नित्य, पूर्ण, निराकार, निर्गुण और आत्मस्थित गुस्तत्त्व की वन्दना करे॥ ११२॥ श्री गुरूदेव आनन्द प्रदायक ,नित्य एवं परात्पर हैं, उनके इसी शुद्ध स्फटिक स्वरूप का हृदयाकाश मध्य में ध्यान करना चाहिए॥ ११३॥ जिस तरह से दर्पण में स्फटिक की प्रतिमा दिखाई देती है, उसी तरह से आत्मा में चिदाकार आनन्दमय सद्गुरू का दर्शन होता है॥११४॥
गुरूगीता के साधना प्रकरण में सद्गुरू ध्यान की अनेक विधियाँ बतायी गयी हैं। इनमें से प्रत्येक विधि का अपना महत्व है। बस विधि का प्रयोग करने वाले में गहरी आस्था और दृढ़ गुरूभक्ति होनी चाहिए। शिष्य को हर पल इस सत्य का ध्यान रखना चाहिए कि सच्चे शिष्य व साधक के लिए गुरूभक्ति ही साधना है और सही सिद्धि है। जब कोई शिष्य इस सत्य को भूल जाता है, तो उसकी साधना में भटकाव के दौर आते हैं। कभी यह भटकाव किन्हीं सिद्धियों को पाने की लालसा में होता है, तो कभी अन्य किसी सांसारिक आकांक्षाओं के कारण। लेकिन कृपालु सद्गुरू अपने शिष्य को इस भटकाव से चेताते हैं, बचाते हैं और उबारते- उद्धार करते हैं।
इस प्रसंग में एक बड़ी प्यारी कथा है। यह कथा उत्तर भारत के सुविख्यात सन्त बाबा नीम करौरी व उनके विदेशी शिष्य रिचर्ड के बारे में है। इन रिचर्ड को बाबा ने अपने शिष्य के रूप में अपनाया था और नाम दिया था रामदास। इन रामदास में अपने गुरू के प्रति भक्ति तो थी, किन्तु साथ कहीं सिद्धि- शक्ति की आकाक्षा भी छुपी थी। एक बार वह एक स्वामी जी के साथ दक्षिण भारत की यात्रा कर रहे थे। बातों ही बातों में उन्होंने अपनी सिद्धि- शक्ति की चाहत के बारे में स्वामी जी को बताया। स्वामी जी ने उन्हें एक शक्तिशाली शिव मंत्र की दीक्षा दी और बताया कि इस मंत्र का जाप करने से वह अपार सम्पत्ति व शक्ति का स्वामी हो जायेगा। रामदास को शक्ति लोभ तो था ही सो वह लगातार कई हफ्ते तक मंत्र का जाप करते रहे। इस मंत्र जाप के प्रभाव से शरीर के बाहर होने व सूक्ष्म शरीर से भ्रमण करने की शक्ति मिल गयी।
बस फिर क्या था रामदास का कौतुकी मन जाग उठा और सूक्ष्म शरीर से निकल कर भ्रमण करने लगे। इसमें उन्हें आनन्द आने लगा। इस क्रम में उनकी यात्रा अन्य सूक्ष्म लोक- लोकान्तरों में भी होने लगी। एक बार जब वह अपनी इस प्रक्रिया के दौरान किसी अन्य लोक में पहुँचे, तो वहाँ उन्हें अपने सद्गुरू बाबा नीम करौरी की ओर दौड़ पड़े। बाबा उस समय अपने तख्त पर एक कम्बल ओढ़े बैठे थे। उनके आने पर उन्होंने कम्बल से अपना मुँह ढक लिया और तीन बार ऐसी फूँक मारी जैसे कि कोई मोमबत्ती बुझा रहे हों। उनकी इस फूँक से रामदास को महसूस हुआ कि जैसे हर फूँक के साथ उनका शरीर फूलता जा रहा है, मानो उनकी किसी आन्तरिक नली में हवा भरी जा रही हो। तीसरी बार की फूँक के बाद रामदास ने स्वयं को अपने स्थूल शरीर में पाया और वह अपने उसी स्थान पर थे, जहाँ उनकी नियमित साधना हो रही थी। लेकिन इस समूची प्रक्रिया में एक अचरज घटित हुआ कि दक्षिण भारत की यात्रा में स्वामी जी ने उन्हें जो मंत्र दिया था, उसकी शक्ति समाप्त हो गयी थी। यही नहीं उनके मन में उस मंत्र के जपने की इच्छा भी मर गयी थी।
इस ....तमाशे से उनके मन में थोड़ी उलझन भी पैदा हुई और वह इस उलझन को सुलझाने के लिए अपने गुरूदेव बाबा नीम करौरी के पास गये। उन्हें आते हुए देखकर बाबा हँस पड़े और बोले- चल बता कैसी चल रही है तेरी साधना और कैसा है तू? उनके पूछने से कुछ ऐसा लग रहा था, जैसे वे कुछ भी जानते ही न हों। हालाँकि रामदास को मालूम था कि अन्तर्यामी गुरूदेव को सब कुछ ज्ञात है। फिर भी उन्होंने स्वामी जी के मंत्र की कथा, अपनी साधना और सूक्ष्म भ्रमण के अपने अनुभव के बारे में उन्हें ब्योरेवार बताया। साथ ही यह भी बताया कि किस तरह गुरूदेव बाबा नीम करौरी ने उनकी सारी शक्ति समाप्त कर दी।
रामदास के इस कथन पर बाबा बोले- बेटा! शिष्य तो बच्चा होता है उसकी अनेकों चाहतें भी होती हैं और ये जो चाहते हैं- वह कभी ठीक होती हैं, तो कभी निरी बचकानी। गुरू को इन सब पर ध्यान रखना पड़ता है कि कहीं उसका शिष्य भटक न जाये। कहीं उसे कोई नुकसान न हो। तुम्हारे साथ जो हुआ, वह तुम्हें नुकसान से बचाने के लिए हुआ। तुम्हारी साधना अभी कच्ची है। तुम्हारे सूक्ष्म शरीर में भी अभी पर्याप्त ऊर्जा नहीं है। ऐसी स्थिति में सूक्ष्म शरीर से भ्रमण करने पर अन्य लोकों के निवासी तुम्हें नुकसान पहुँचा सकते हैं। यहाँ तक कि तुम्हें अपने यहाँ कैदकर सकते हैं। ऐसी स्थिति आने पर तुम्हारे सूक्ष्म शरीर का सम्बन्ध स्थूल शरीर से टूट जायेगा और न केवल तुम्हारी मृत्यु हो जायेगी, बल्कि तुम्हारी तप- साधना भी अधूरी रह जायेगी। तुम्हारे साथ मैंने जो कुछ भी किया, वह तुम्हें इसी अप्रत्याशित स्थिति से बचाने के लिए किया। अपने सद्गुरू की इस कृपा को अनुभूत करके रामदास की आँखें छलक आयीं। सचमुच ही सद्गुरू के बिना भला और कौन सहारा है। इसलिए गुरूगीता के प्रत्येक मंत्र का सार यही है कि शिष्य को सतत अपने गुरूदेव का ध्यान व स्मरण करते रहना चाहिए। इस क्रम में ध्यान की अन्य विधियाँ भी हैं, जिसकी चर्चा अगले मंत्र में की गई है।