गुरुगीता

गुरूकृपा गृहस्थ को भी विदेह बना देती है

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      गुरूगीता के महामंत्रों में साधक, साधना एवं सिद्धि तीनों का तत्त्वबोध पिरोया है। इन मंत्रों में बार- बार चेताया गया है कि शिष्य- साधक क्या करें? किसी मंत्र को दुहराने वाले अथवा ध्यान के लिए गुम- सुुम बैठे रहने वाले को न तो शिष्य कहते हैं और साधक। शिष्य और साधक तो किसी की समूची जीवनचर्या ,जीवनशैली और जीवन दृष्टि का नाम है। यह सत्य जहाँ है, वहीं शिष्यत्व है। अपने कान में मंत्र सुनने वाले को शिष्य नहीं कहते। दीक्षा के कर्मकाण्ड भर से किसी को शिष्यत्व उपलब्ध नहीं होता। यह उपलब्धि तो बलिदानी भावना एवं समर्पण की सतत साधना से हुआ करती है, जिसके अन्तःकरण में यह घटना घट चुकी है अथवा घटित हो रही है- समझो वही शिष्यत्व का उदय हो रहा है। वहीं पर एक साधक का व्यक्तित्व अपना आकार पा रहा है। 
      यही स्थिति साधना की है। साधना मन अन्तःकरण एवं जीवन के परिष्कार का नाम है, फिर वह चाहे कैसे भी हो ।। चाहे इसके लिये कोई मंत्र जपना पड़े या फिर किसी सेवाकर्म में लगना पड़े। किस मंत्र का जप करना साधना है? अथवा ध्यान की किस प्रक्रिया को करना साधना है? ये सभी सवाल अर्थहीन हैं। सब सही है कि अपने सद्गुरू उपदेश के अनुसार ,उनके आदेश के अनुसार जीवन जीने की साधना कहते हैं। फिर वह चाहे कितना ही अटपटा क्यों न हो। देवर्षि नारद के उपदेश से मरा- मरा जपने वाले क्रूरकर्मा रत्नाकर महर्षि वाल्मिकी ही गये। गुरू के आदेश के अनुसार जीवन जीने की परिणति उनके जीवन में साधना की चरम सफलता के रूप में साकार हुई। 
     इसी तरह से सिद्धि व्यक्तित्व की विराट् में विलीनता है। अहंता का, वैभव का अपने सद्गुरू में विसर्जन है। व्यक्तित्व की सर्वमयता ही साधक और उसकी साधना की चरम उपलब्धि है। जिसे यह स्थिति हासिल हो सकी- समझो उसी की साधना सफल हुई। उसी को सिद्धि ने दर्शन दिये। उसी को तत्त्वबोध प्राप्त हुआ, उसी को मुक्ति मिल सकी। गुरूगीता के पिछले क्रम में इसी रहस्य को भगवान् भोले नाथ ने माँ जगदम्बा को समझाया है। इसमें उन्होंने कहा था- हे महादेवि! कुण्डलिनी शक्ति पिण्ड है। हंस पद है, बिन्दु ही रूप है तथा निरञ्जन, निराकार रूपातीत है ऐसा कहते हैं। जो पिण्ड से मुक्त हुआ और जो रूपातीत से मुक्त हुआ ,उसी को मुक्त कहते हैं। 
इसके स्वरूप को और भी अधिक स्पष्ट करते हुए भगवान् सदाशिव माँ भगवती से कहते हैं- 
स्वयं सर्वमयो भूत्वा परं तत्त्वं विलोकयेत्। 
परात्परतरं नान्यत् सर्वमेतन्निरालयम्॥ १२३॥ 
तस्यावलोकनं प्राप्य सर्वसंगविवर्जितः। 
एकाकी निःस्पृहः शान्तः तिष्ठासेत् तत्प्रसादतः॥१२४॥ 
लब्धं वाऽथ न लब्धं वा स्वल्पं वा बहुलं तथा। 
निष्कामेनैव भोक्तव्यं सदा संतुष्टचेतसा ॥ १२५॥ 
सर्वज्ञपदमित्याहुर्देही सर्वमयो बुधाः। 
सदानन्दः सदाशान्तो रमते यत्र- कुत्रचित्॥ १२६॥ 
यत्रैव तिष्ठते सोऽपि स देशः पुण्यभाजनम्। 
मुक्तस्य लक्षणं देवि तवाग्रे कथितं मया॥ १२७॥ 

     ऐसा मुक्त पुरूष स्वयं सर्वमय होकर परम तत्व को देखता है। वह इस सत्य को अनुभव करता है कि न तो कोई दूसरा है और न ही इस आत्मतत्त्व से बढ़कर कोई श्रेष्ठता है। ऐसा अनुभव करते हुए वह सम्पूर्ण निराश्रय होकर जीता है॥ १२३॥ श्री गुरूकृपा से इस परम तत्त्व का अवलोकन करने के बाद शिष्य -साधक सभी आसक्तियों से रहित ,एकाकी ,निस्पृह, शान्त और स्थिर हो जाता है॥ १२४॥ उसे अभीष्ट मिले या न मिले ,, उसे ज्यादा मिले अथवा थोड़ा मिले ,, इस चिंता को छोड़कर वह 
      सभी कामनाओं से रहित संतुष्ट चित्त होकर जीवन यापन करता है॥ १२५॥ 
ज्ञानी जन इस अवस्था को ही सर्वज्ञ पद कहते हैं। इसे प्राप्त करके देहधारी सर्वात्म हो जाता है। इस अवस्था को पाने वाला साधक सदा शान्त, हमेशा ही आनन्दित एवं यत्र- तत्र रमने वाला होता है॥१२६॥ भगवान् सदाशिव कहते हैं, हे देवि! इस तरह से मैंने आपको मुक्त पुरूष के लक्षण सुनाएँ। ऐसा मुक्त पुरूष जहाँ कहीं भी निवास करता है, वह देश पुण्यभूमि हो जाता है॥ १२७॥ ऐसे व्यक्ति का दर्शन, सान्निध्य सभी कुछ दुर्लभ है। परन्तु इसे अनुभव वही कर पाता है, जो सच्चे साधक हैं। 
      गुरूगीता के इन मंत्रों में मुक्त पुरूष का व्यवहार बताया गया है। यह अतिदुर्लभ अवस्था जिसे जहाँ प्राप्त है, वह व्यक्ति तो कृतार्थ है ही। वह भूमि भी धन्य हो जाती है, जहाँ ऐसे लोग रहा करते हैं। ऐसे व्यक्ति संन्यासी हों या गृहस्थ, श्वेताम्बर हो या काषायाम्बर अथवा फिर दिगम्बर सर्वत्र पूजनीय हैं। इन्हें वेष से नहीं, अवस्था से पहचाना जाता है। ये जनक की भाँति राजा भी हो सकते हैं और महामुनि शुकदेव की भाँति सर्वत्यागी भी। परन्तु इनकी अन्तर्चेतना सदा विराट् में विलीन रहती है। हाँ, उन्हें समझ पाना अति कठिन हो पाता है, केवल ज्ञानी जन ही इन्हें जान पाते हैं। 
पुराण कथा के अनुसार राजा जनक को अपने गुरूदेव अष्टावक्र की कृपा से ज्ञान हुआ था। महर्षि अष्टावक्र की कृपा से ही उन्हें सिद्धि मिली थी। साधना से सिद्धि की यात्रा कर लेने के बावजूद वे गुरू आदेश से अपने कर्त्तव्य का निर्वहन करते रहे। उनके लिए सभी कुछ समान था। परन्तु मूढ़ जन इस रहस्य को समझ न पाये और उन्हें साधारण गृहस्थ समझने की भूल करते रहे। इन्हीं दिनों ब्रहर्षि विश्वामित्र ने वेदान्त विदों का एक शिविर मिथिला नगरी में लगाया। इस शिविर में देशभर के ऋषि- मुनि, त्यागी वेश एवं कमण्डलुधारी, संन्यासी सभी पधारे। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र, योगी याज्ञवल्क्य, महर्षि अष्टावक्र सरीखें पारदर्शी ज्ञानी वहाँ रोज प्रवचन देते।
      इस प्रवचन कक्षा में राजर्षि जनक भी शामिल होते। परन्तु आडम्बर में घिरे कई वेशधारी संन्यासी उन्हें उपेक्षा की नजर से देखते। यहाँ तक कि उन्हें समझ में ही नहीं आता था कि वे महर्षि जन इस राजा को इतना सम्मान क्यों देते हैं? ब्रह्मर्षि विश्वामित्र से यह सच्चाई छुपी न रही। उन्होनें इन आडम्बर धारियों की समस्या का निराकरण करने के लिए शिविर स्थल में अपने तपोबल से आग लगा दी। आग लगते ही सबकी झोपड़ियाँ जलने लगी। जिस समय आग लगी, उस समय वेदान्त का प्रवचन चल रहा था। आत्मज्ञान की चर्चा के समय आग लगने से सभी संन्यासी घबरा गये। उन्हें अपनी लंगोटी व कमण्डलु की चिन्ता होने लगी। ये सभी प्रवचन को छोड़कर अपना सामान बचाने के लिए भागे। इस सारे खेल में ब्रहर्षि विश्वामित्र हंस रहे थे। 
      यह आग बढ़ती गयी। राजा जनक भी वहीं बैठे थे। परन्तु उनके चित्त में स्थिरता थी। वह बिना किसी परेशानी के वेदान्त चर्चा में भाग ले रहे थे। ब्रहर्षि विश्वामित्र ने उन्हें चेताया- महाराज महाराज! आग लगी है। आप तो राजा हैं। आपका राज्य एवं महल जल रहा है। क्या आपको चिंता नहीं हों रही है? महर्षि के प्रश्न पर राजा जनक स्थिर चित्त से बोले- ऋषियों! आप चिंता न करें। सद्गुरू की कृपा से मैंने सत्य जान लिया है- मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दहति किंचन  केवल मिथिला नगरी जल रही है, मेरा कुछ नहीं जल रहा है। जनक के इस कथन के साथ ही आग बुझ गयी। महर्षि ने अपना खेल समेट लिया। ज्ञान और आसक्ति का भेद स्पष्ट हो गया। सचमुच सद्गुरू की कृपा से क्या नहीं हो सकता। 
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