गुरुगीता

कामधेनु कल्पतरू चिन्तामणि है गुरूगीता का पाठ

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     गुरूगीता के मंत्र गीत शिष्यों की प्राणचेतना में गूँजते हैं। प्राणों में निरन्तर होती इनकी अनुगूँज से उन्नयन, विकास एवं रूपान्तरण की अनेकों प्रक्रियायें घटित होती हैं। हालाँकि ये चमत्कारी प्रक्रियायें एवं परिणतियाँ होती उन्हीं के जीवन में हैं, जिनके अंतःकरण में शिष्यत्व का भाव बीज अंकुरित हो रहा है। अथवा जिनके अंतस् में किसी न किसी रूप में इसकी अवस्थिति व उपस्थिति है। बीज के सच को, इसके यथार्थ को हम सभी जानते हैं। कंकरीली- पथरीली जमीन की तहों में दबा हुआ बीज मौसम आने पर अंकुरित हुए बिना नहीं रहता। यह बीजांकुर भले ही कितना कोमल और नाजुक हो, फिर भी बड़ी आसानी से उस कंकरीली- पथरीली जमीन को भेदकर खुली हवा और सूर्य के उजाले में अपने अस्तित्व की अमिट पहचान बताता है 
      ठीक यही स्थिति शिष्य के बीज की है। शिष्य की अंतर्चेतना में, उसकी चित्त भूमि में इसकी उपस्थिति यदि है, तो समझो कि आध्यात्मिक जीवन की सम्भावनाएँ भी हैं। फिर भले ही यह बीज चित्त की कितनी ही गहरी तहों या परतों में क्यों न दबा हुआ हो। कामना, वासना अथवा लालसाओं के कितने ही कुसंस्कार इसे क्यों न घेरे हुए हों, परन्तु सही काल आने पर इसका अंकुरण सुनिश्चित है। इसी के साथ उन कुसंस्कारों की कालिमा का मिटना भी अनिवार्य है, जो इसे बाँधे है। श्रीमद्भगवद्गीता के महानायक परमगुरू योगेश्वर श्री कृष्ण का वचन- 'न मे भक्तः प्रणश्यति' मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता- त्रिकाल सत्य है। सतयुग त्रेता, द्वापर अथवा कलयुग के कालक्रम का इस पर कोई फर्क नहीं होता। सच्चा गुरूभक्त, सच्चा शिष्य अपने गुरू की कृपा से जीवन के परम लक्ष्य को पा ही लेता है। 
     गुरूगीता के पिछले क्रम में इसी यथार्थ की चर्चा की गयी थी। इसमें बताया गया था कि भोग हो या मोक्ष अथवा फिर आपदा निवारण गुरूगीता के अनुष्ठान से सब कुछ सम्भव है। आयु- आरोग्य, अचर सौभाग्य, दुःख, भय, विध्न एवं शापों का नाश गुरूगीता की साधना करने वाले को स्वयमेव मिलते हैं। इसकी साधना सभी बाधाओं का शमन करके धर्म, अर्थ काम एवं मोक्ष देने वाली है। यहाँ तक कि साधक जो- जो भी इच्छा करता है, वे सभी इच्छाएँ इससे निश्चित ही पूरी होती हैं। गुरूगीता का पाठ कामना पूर्ति के लिए कामधेनु है, कल्पनाओं की साकार करने वाला कल्पतरू है। यह चिंताओं को दूर करने वाली चिंतामणि है। इससे सभी तरह का मंगल होता है। 
इस प्रकरण को आगे बढ़ाते हुए भगवान् सदाशिव माता जगदम्बा से कहते हैं- 

जपेत् शाक्तश्च सौरश्च गाणपत्यश्च वैष्णवः। 
शैवश्च सिद्धिदं देवि सत्यं सत्यं न संशयः॥१५१॥ 
अथ काम्यं जपे स्थाने कथयामि वरानने। 
सागरे वा सरित्तीरेऽथवा हरिहरालये॥ १५२॥ 
शक्तिदेवालये गोष्ठे सर्वदेवालये शुभे। 
वटे च धात्रिमूले वा मठे वृंदावने तथा॥ १५३॥ 
पवित्रे निर्मले स्थाने नित्यानुष्ठानतोऽपि वा। 
निवेदनेन मौनेन जपमेतं समाचरेत् ॥ १५४॥ 
श्मशाने भयभूमौ तु वटमूलान्तिके तथा। 
सिध्यन्ति धत्तूरे मूले चूतवृक्षस्य सन्निधौ॥ १५५॥ 

     गुरूगीता का जप- पाठ अनुष्ठान शक्ति, सूर्य, गणपति, विष्णु ,शिव के उपासकों को भी सिद्धि देने वाला है। यह सत्य है, सत्य है इसमें कोई संशय नहीं है॥ १५१॥ भगवान् शिव माँ से कहते हैं- हे सुमुखि! अब मैं तुमसे गुरूगीता के अनुष्ठान के लिए योग्य स्थानों का वर्णन करता हूँ। इसके लिए उपयुक्त स्थान सागर, नदी का किनारा अथवा शिव या विष्णु का मंदिर है॥ १५२॥ भगवती का मंदिर ,, गौशाला, अथवा कोई देवमंदिर, वट, आँवला वृक्ष, मठ अथवा तुलसी वन इसके लिए शुभ माने गये हैं॥ १५३॥ पवित्र, निर्मल स्थान में मौन भाव से इसका जप- अनुष्ठान करना चाहिए॥ १५४॥ इस अनुष्ठान के लिए श्मशान, भयानक स्थान ,बरगद, धूतर या आम्रव़ृक्ष के नीचे का सुपास भी श्रेष्ठ कहा गया है॥१५५॥ 
     भगवान् शिव के इन वचनों में गुरूगीता अनुष्ठान के विविध रहस्य हैं। इन रहस्यों में प्रमुखता है- साधना भूमि का अपना वातावरण होता है। अच्छा हो कि यह वातावरण साधना के लक्ष्य के अनुरूप हो। सात्विक लक्ष्य के लिए नदी, सागर उपयुक्त है, तो वैराग्य के उन्मेष के लिए ठीक है। इनमें से किसी स्थान का चयन साधक को अपनी मनोभूमि और अपने लक्ष्य के अनुसार करना चाहिए। स्थान उपयुक्त हो, लक्ष्य स्पष्ट हो, तो गुरूगीता की साधना साधक के सभी मनोरथों को पूरा करने वाली है। 
      इस प्रसंग में बड़ी भक्ति पूर्ण कथा है। यह कथा दक्षिण भारत के प्रभु भक्त वेंकटरमण की है। भक्त वेंकटरमण तुंगभद्रा तट पर बसे रंगपुरम के रहने वाले थे। बचपन से ही उन्हें भगवत् चरणों में अनुराग था। यज्ञोपवीत संस्कार के समय उन्हें गायत्री मंत्र मिला। यह मंत्र उन्हें उनके कुलगुरू ने दिया था। हालाँकि उन्हें तलाश थी उन आध्यात्मिक गुरू की ,जो उन्हें ईश्वर साक्षात्कार करा सके। मन की यह लगन उन्होंने बड़ी विनम्रता पूर्वक अपने कुलगुरू को कह सुनायी। बालक वेंकटरमण की बात सुनकर कुलगुरू कुछ समय तो शान्त रहे, फिर बोले -वत्स यह कार्य तो क केवल सद्गुरू प्रदान कर सकते हैं। तुम्हें उनकी प्राप्ति के लिए गुरूगीता का अनुष्ठान करना होगा। वेंकटरमण ने कुलगुरू की इन बातों पर बड़ी आस्था से कहा- आचार्य! यदि हम पवनपुत्र हनुमान को अपना गुरू बनाना चाहें तो क्या यह सम्भव है। अवश्य वत्स! कुलगुरू ने बालक की श्रद्धा की सम्बल दिया। 
     बस, उस दिन से बालक वेंकटरमण हनुमान जी की मूर्ति के सामने गायत्री जप एवं गुरूगीता के पाठ में तल्लीन हो गया। नित्य प्रातः काल ब्रह्म मुहूर्त में उठना, स्नान, संध्या ,तर्पण से निश्चित होकर हनुमान् जी की मूर्ति के सामने गायत्री मंत्र का जप एवं गुरूगीता का पाठ करना। वेंकटरमण का सह क्रम नित्यप्रति छः घण्टे चलता रहता। कभी- कभी वेंकटरमण चाँदनी रात में तुंगभद्रा के तट पर एकान्त में बैठकर गुरूगीता के श्लोकों का पाठ करने लगते, तब ऐसा मालूम होता कि उनके रोम- रोम से ही गुरूगीता मंत्रों की किरणें निकल रही हैं। इस प्रकार इस कठिन साधना में उनके ग्यारह वर्ष बीत गये। 
     बारहवें वर्ष के चैत्र शुक्ल पूर्णिमा की आधी रात तुंगभद्रा के बालुकामय तट पर बासन्ती बयार के झोंके के बीच में ,वन्य पुष्पों के पराग की मधुरता के बीच वेंकटरमण रामभक्त हनुमान् का ध्यान करते हुए गुरूगीता का पाठ करने लगे। पाठ करते- करते उन्हें समाधि लग गयी। समाधि में उन्होंने देखा कि असंख्य वानरों की सेना के साथ हनुमान् जी आ रहे हैं। धीरे- धीरे वे सभी वानर पता नहीं कहाँ अदृश्य हो गये, बस रह गये केवल हनुमान् जी। उन्होंने बड़ी स्नेह भरी दृष्टि से वेंकटरमण को देखा और उसके चरणों में गिर गये और तभी उन्हें लगा श्री हनुमान् जी उनके हृदयपट पर अपनी तर्जनी अंगुली से स्वर्णाक्षरों में गायत्री मंत्र लिख रहे हैं और कह रहे हैं- उठो वत्स! मैं ही तुम्हारा गुरू हूँ। सचमुच गुरूगीता में क्या कुछ सम्भव नहीं। असम्भव को सम्भव करने वाली है इसकी महिमा। 

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