गुरुगीता

समर्पण विसर्जन विलय

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     गुरूगीता के महामंत्रों में साधना जीवन का परम सत्य निहित है ।। इनमें वह परम रहस्य सँजोया है, जिसके आचारण का स्पर्श पारसमणि की भाँति है। जो छूने भर से साधक के अनगढ़ जीवन और कुसंस्कारों को आमूल- चूल बदल देता है। गुरूकृपा से मानवीय कमियाँ- कमजोरियाँ ईश्वरीय विभूतियों व उपलब्धियों में बदल जाती हैं। गुरू निष्ठा से क्या नहीं हो सकता? इस प्रश्न चिन्ह का एक ही उत्तर है सब कुछ सम्भव है- सब कुछ सम्भव है ।। इसलिए हानि में- लाभ में, यश में- अपयश में ,, जीवन में -मरण में, किसी भी स्थिति में सद्गुरू का आश्रय नहीं छोड़ना चाहिए ; क्योंकि परम कृपालु सद्गुरू का प्रत्येक अनुदान उनकी कृपा ही है। ये अनुदान सुख भरे हों या फिर दुःख से सने हों, साधक के साधनामय जीवन के लिए कल्याणकारी ही हैं। परम रहस्य सद्गुरू की कृपा भी बड़ी ही रहस्यमय होती है। इसका बौद्धिक विवेचन किसी भी तरह सम्भव नहीं। इसे तो बस सजल भावनाओं में ग्रहण किया जा सकता है। 
     गुरू गीता के उपर्युक्त मंत्रों में इसके धारण- ग्रहण की कतिपय विधियों का उल्लेख किया गया है। गुरूदेव की छवि का स्मरण ,, उनके नाम का जप, जीवन की विपरीतताओं में भी गुरूवर की आज्ञा का निष्ठापूर्वक पालन साधक को गुरूकृपा का सहज अधिकारी बनाता है। गुरू के मुख में तो ब्रह्म का वास है, वे जो भी बोलें -वह शिष्य के लिए ब्रह्मवाक्य है। गुरूकृपा ही साधक को ब्रह्मानुभूति का वरदान देती है। परम पतिव्रता स्त्री जिस तरह से हमेशा ही अपने पति का ध्यान करती है, ठीक उसी तरह से साधक को अपने गुरू का ध्यान करना चाहिए। यह ध्यान इतना प्रगाढ़ हो कि उसे अपना आश्रय, जाति, कुल गोत्र सभी कुछ भूल जाए। गुरू के अलावा कोई अन्य भावना उसे न भाये। 
इस भक्ति कथा में नई कड़ी जोड़ते हुए भगवान् महादेव माता पार्वती को समझाते हैं- 

अनन्यश्चिन्तयन्तो मां सुलभं परमं पदम् ।। 
तस्मात् सर्वप्रयत्त्रेन गुरोराराधनं कुरू॥ २१॥ 
त्रैलोक्ये स्फुटवक्तारो देवाधसुरपत्रगाः ।। 
गुरूवक्त्रस्थिता विद्या गुरूभक्त्या तु लभ्यते॥ २२॥ 
गुकारस्त्वन्धकारश्च रूकारस्तेज उच्यते। 
अज्ञानग्रासकं ब्रह्म गुरूरेव न संशयः॥ २३॥ 
गुकारः प्रथमो वर्णो मायादिगुणभासकः ।। 
रूकारो द्वितीयो ब्रह्म मायाभ्रान्ति विनाशनम्॥ २४॥ 
एवं गुरूपदं श्रेष्ठं देवानामपि दुर्लभं ।। 
हाहाहूहू गणैश्चैव गन्धर्वैश्च प्रपूज्यते ॥ २५॥ 

      शिष्य को यह तथ्य भलीभाँति आत्मसात् कर लेना चाहिए कि सद्गुरू का अनन्य चिंतन मेरा ही (भगवान् सदाशिव ) चिंतन है। इससे परमपद की प्राप्ति सहज, सुलभ होती है। इसलिए कल्याण कामी साधक को प्रयत्नपूर्वक गुरू आराधना करनी चाहिए॥ २१॥ तीनों लोकों के देव- असुर एवं नाग आदि सभी इस सत्य को बड़ी स्पष्ट रीति से बताते हैं कि ब्रह्मविद्या गुरूमुख में ही स्थित है। गुरूभक्ति से ही इसे प्राप्त किया जा सकता है॥ २२॥ गुरू शब्द में गु अक्षर अन्धकार का वाचक है और रु का अर्थ है प्रकाश। इस तरह गुरू ही अज्ञान का नाश करने वाले ब्रह्म है। इसमें तनिक भी संशय नहीं है ॥ २३॥ शास्त्र वचनों से यह प्रमाणित होता है कि गुरू शब्द के प्रथम वर्ण गु से माया आदि गुण प्रकट होते हैं और इसके द्वितीय वर्ण रु से ब्रह्म प्रकाशित होता है। जो माया की भ्रान्ति को विनष्ट करता है॥ २४॥ इसलिए गुरूपद सर्वश्रेष्ठ है, यह देवों के लिए भी दुर्लभ है। हाहाहूहू गण और गन्धर्व आदि भी इसकी पूजा करते हैं॥ २५॥ 
     इन महामत्रों के प्रत्येक अक्षर से गुरू महिमा प्रकट होती है। इस महिमा में अपने को घुला- मिलाकर ही साधक की साधना सफल होती है। साधनामय जीवन की सर्वोच्च कक्षा की व्याख्या प्रस्तुत करनी हो, तो उसका सार यही होगा; साधक का सद्गुरू में समर्पण- विसर्जन। अनन्य चिंतन की निरन्तरता साधक के सद्गुरू में समर्पण को सुगम बनाती है। समर्पण की परमावस्था में साधक का समूचा अस्तित्व ही विलीन हो जाता है और तब आती है- विलीनता की अवस्था। इस भावदशा में शिष्य साधक का काय- कलेवर तो यथावत् बना रहता है, पर उसमें उसकी चेतना अनुपस्थित होती है। वहाँ उपस्थित होती है- उसके सद्गुरू की चेतना ।। वह दिखते हुए भी नहीं होता। होता है केवल उसका सद्गुरू। 
     जो गुरूभक्ति की डगर पर चलने का साहस करते हैं, उन्हें दो चार कदम आगे बढ़ते ही बहुत से साधना सत्यों का साक्षात्कार होता है। वे जानते हैं कि सद्गुरू ही साधक हैं, वही साधना है और अन्त में वही साध्य के रूप में प्राप्त होते हैं ।। यह कथन पहली बार में कबीर वचनों की उलटबाँसी जैसा भले ही लगे, पर थोड़ा सा ही चिंतन करने पर सब कुछ ठीक- ठीक समझ में आ जाता है। इस तत्त्व का सत्य बोध कुछ यूँ है- सद्गुरू ही साधक है, इस वाक्य का अर्थ यह है कि सामान्य देहधारी मनुष्य जब सद्गुरू की कृपा छाँव में आता है ,, तब वह शिष्य बनता है ।। उस शिष्य में गुरू जब अपने एक अंश को प्रतिष्ठित करते हैं, तब साधक के रूप में उसका नवसृजन होता है। इस तरह अपने शिष्य के काय- कलेवर में दरअसल सद्गुरू ही साधक के रूप में अवतार लेते हैं। 
     सद्गुरु ही साधना है- इस वाक्य का भाव यह है कि साधना का परम दुर्गम पथ पार करना सद्गुरू की कृपा शक्ति के बिना सम्भव नहीं है। सद्गुरू की कृपा शक्ति ही साधक में साधना की शक्ति बनती है। उसी के सहारे वह अपने साधनामय जीवन की डगर पर आगे बढ़ता है। सद्गुरू की कृपा से ही उसे साधना की विभूतियाँ एवं उपलब्धियाँ मिलती हैं और अन्त में साध्य से उसका साक्षात्कार होता है और तब उसे इस सत्य का बोध होता है कि सद्गुरू ही साध्य है; क्योंकि सद्गुरू और इष्ट दो नहीं; बल्कि एक हैं। अपने गुरू ही गोविन्द हैं। वही सदाशिव और परमशक्ति हैं। ये सभी साधना के सत्य निरन्तर और लगातार सद्गुरू के अनन्य चिंतन से प्राप्त होते हैं। 
     प्रयत्नपूर्वक सद्गुरू की आराधना के सिवा शिष्य को कुछ भी करने की जरूरत नहीं। मन से सद्गुरू का चिंतन- स्मरण ,हृदय से अपने गुरू की भक्ति, वाणी से उनके पावन नाम का जप और शरीर से उनके आदेशों का निष्ठापूर्वक पालन करने से समस्त दुर्लभ आध्यात्मिक विभूतियाँ, शक्तियाँ, सिद्धियाँ अनायास ही मिल जाती है। गुरू ही ब्रह्म हैं, उनके वचनों में ही ब्रह्मविद्या समायी है। इस सत्य को जो अपने जीवन में धारण करता है, आत्मसात् करता है, अनुभव करता है, वही शिष्य है- वही साधक है। गुरू तत्त्व से भिन्न अन्य कुछ भी नहीं है। इसे अनुभव करने के उपाय गुरू गीता के अगले मंत्रों में वर्णित है।

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