गुरुगीता

शंकर रूप सद्गुरू को बारंबार नमन

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गुरूगीता अध्यात्मविद्या का परमगोपनीय शास्त्र है। हाँ, इसे समझने के लिए गहरी तत्त्वदृष्टि चाहिए। यह तत्त्व दृष्टि विकसित हो सके, तो पता चलता है कि वैदिक ऋचाएँ जिस सत्य का बोध कराती हैं, उपनिषद् की श्रुतियों में जिसका बखान हुआ है, गुरूगीता में भी वही प्रतिपादित है। अठारह पुराणों में जिन परमेश्वर की लीला का गुणगान है- वही सर्वेश्वर प्रभु शिष्यों के लिए सद्गुरू का रूप धरते हैं। अध्यात्म विद्या के सभी ग्रन्थों- शास्त्रों को पढ़ने का सुफल इतना ही है कि अपने कृपालु सद्गुरू के नाम में प्रीति जगे। सन्तों ने इसे कहा भी है- 

पढ़िबे को फल गुनब है, गुनिबे को फल ज्ञान। 
ज्ञान को फल गुरू नाम है, कह श्रुति- सन्त पुराण॥ 

     यानि कि समस्त शास्त्रों को पढ़ने का फल यह है कि उस पर चिन्तन -मनन- निदिध्यासन हो। और इस निदिध्यासन का फल है कि साधक को तत्त्वदृष्टि मिले, उसे ज्ञान हो तथा ज्ञान का महाफल है कि उसे सद्गुरू के नाम की महिमा का बोध हो उनके नाम में प्रीति जगे। उन्हें नमन का बोध जगे। यही श्रुति ,सन्त और पुराण कहते हैं। 
     ऊपर के मंत्रों में गुरूभक्त शिष्यों को इसकी अनुभूति कराने की चेष्टा की गयी है। इसमें बताया गया है कि शिष्य का परम कर्त्तव्य है कि वह अपने सद्गुरू को नमन करें, क्योंकि वही संसार वृक्ष पर आरूढ़ जीव का नरक सागर में गिरने से उद्धार करते हैं। नमन उनश्री गुरू को, जो अपने शिष्य के लिए ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर होने के साथ स्वयं परब्रह्म परमेश्वर हैं। शिव रूपी उन सद्गुरू को नमन करना शिष्य का परम कर्त्तव्य है, जो समस्त विद्याओं का उदय स्थान और संसार का आदि कारण हैं और संसार सागर को पार करने के लिए पिता हैं, माता हैं ,, बन्धु हैं और इष्ट देवता हैं। वे ही उसे संसार के सत्य का बोध कराने वाले हैं ।। ऐसे परम कृपालु सद्गुरू को शिष्य बार- बार नमन करे और करता रहे। 
      गुरू महिमा के साथ गुरू नमन की महिमा ही अपरिमित है। इसे गुरूगीता के अगले महामंत्रों में प्रकट करते हुए भगवान् भोलेनाथ आदिमाता पार्वती से कहते हैं- 

यत्सत्येन जगत्सत्यं यत्प्रकाशेन भाति तत्। 
यदानन्देन नन्दन्ति तस्मै श्री गुरवे नमः॥ ३६॥ 
यस्य स्थित्या सत्यमिदं यद्भाति भानुरूपतः। 
प्रियं पुत्रादि यत्प्रीत्या तस्मै श्री गुरवे नमः॥ ३७॥ 
येन चेतयते हीदं चित्तं चेतयते न यम् ।। 
जाग्रत्स्वन्प सुषुप्त्यादि तस्मै श्री गुरवे नमः॥ ३८॥ 
यस्य ज्ञानादिदं विश्वं न दृश्यं भिन्नभेदतः। 
सदेकरूपरूपाय तस्मै श्री गुरवे नमः ॥ ३९॥ 
यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः। 
अनन्यभावभावाय तस्मै श्री गुरवे नमः ॥ ४०॥ 

     सद्गुरू नमन के इन महामंत्रों में गहन तत्त्वचर्चा है। गुरूतत्त्व, परमात्मतत्त्व और प्रकृति या सृष्टि तत्त्व अलग- अलग नहीं है। यह सब एक ही है- भगवान् शिव के वचन शिष्य को समझाते हैं, जिस सत्य के कारण जगत् सत्य दिखाई देता है अर्थात जिनकी सत्ता से जगत् की सत्ता प्रकाशित होती है, जिनके आनन्द से जगत् में आनन्द फैलता है, उन सच्चिदानन्द रूपी सद्गुरू को नमन है॥ ३६॥ जिनके सत्य पर अवस्थित होकर यह जगत् सत्य प्रतिभासित होता है, जो सूर्य की भाँति सभी को प्रकाशित करते हैं। जिनके प्रेम के कारण ही पुत्र आदि सभी सम्बन्ध प्रीतिकर लगते हैं, उन सद्गुरू को नमन है॥ ३७॥ जिनकी चेतना से यह सम्पूर्ण जगत् चेतन प्रतीत होता है, हालांकि सामान्य क्रम में मानव चित्त को इसका बोध नहीं हो पाता। जाग्रत् -स्वप्र, सुषुप्ति आदि अवस्था को जो प्रकाशित करते हैं, उन चेतनारूपी सद्गुरू को नमन है॥ ३८॥ जिनके द्वारा ज्ञान मिलने से जगत् की भेददृष्टि समाप्त हो जाती है और वह शिव स्वरूप दिखाई देने लगाता है। जिनका स्वरूप एकमात्र सत्य का स्वरूप ही है, उन सद्गुरू को नमन है॥ ३९॥ जो कहता है कि मैं ब्रह्म को नहीं जानता। जो स्वयं ही अभेद एवं भावपूर्ण ब्रह्म है, उस सद्गुरू को 
नमन है॥ ४॥ 
     सद्गुरू नमन के इन महामंत्रों में गहरा तत्त्व विचार है। इनमें वेदान्त का गहन बोध है ।। इनमें जो कुछ भी गाया है, उसे लौकिक बुद्धि से, कोरे पाण्डित्य से समझ पाना एकदम असम्भव है। इन्हें समझने के लिए शिष्य की श्रद्धा ,, साधक की आस्था और महातपस्वी की निर्मल चेतना चाहिए। गहरी, परिपक्व व परिष्कृत गुरूभक्ति से इन महामंत्रों का रहस्य मानवीय चेतना में समा सकता है, अन्यथा किसी भी तरह से नहीं ।। तो सबसे पहले इन महामंत्रों को समझने से पहले यह जान लें कि गुरूदेव केवल देह की दृष्टि से ही मनुष्य हैं, अन्यथा उनमें कोई मानवीय भाव नहीं है। उनका शरीर तो मनुष्य का है ; परन्तु उसमें विद्यमान चेतना सर्वथा ईश्वरीय है। उनके जीवन के सम्पूर्ण क्रियाकलाप ब्राह्मी चेतना की ही अभिव्यक्ति है। इस सत्य को आत्मसात् करने पर ही यह समझना सम्भव होता है कि ब्राह्मी चेतना के गुण, कर्म , स्वभाव ही अपने सद्गुरू के गुण -कर्म- स्वभाव हैं। जो ब्रह्म है, वही सद्गुरू है। बस फर्क है, तो इतना कि ब्रह्म निर्गुण- निराकार और निर्विशेष है और कृपालु सद्गुरू शिष्यों पर कृपा करने के लिए ब्रह्म का सगुण- साकार और सविशेष रूप हैं। इसमें भी असलियत यह है कि यह फर्क मात्र दिखता है, आभासी ,, दिखावटी और बनावटी है, असलियत में है नहीं। असलियत में तो गुरूदेव भगवान साकार दिखते हुए भी निराकार हैं ।। एक कमरे में रहते हुए भी सर्वव्यापी हैं। अपनी बाहरी उपस्थिति के बावजूद शिष्यों के अन्तःकरण के स्वामी और अन्तर्यामी हैं। 
     परम कृपालु सद्गुरू की देह में जिस ब्रह्म चेतना का आवास- अधिष्ठान है, वही जगत् का कारण है। उसी के सत्य से जगत् की सत्ता और आनन्द है। उसी से सभी तत्त्व और सत्य प्रकाशित है, वही सारे सम्बन्धों का आधारभूत कारण है। चेतना की सभी अवस्थाएँ सद्गुरू चेतना से ही चैतन्य हैं। गुरू ही शिव है, वही विश्वरूप है। उनके इस स्वरूप को जानना अति कठिन है। कोरे बुद्धिपरायण लोग भला उनकी महिमा को क्या जाने ।। जो उनके लौकिक क्रिया कलापों को देखकर -समझकर यह कहता है कि मैं जान गया, वह उन्हें बिलकुल भी नहीं जानता। जो भक्तिपूर्ण हृदय से उन्हें समर्पित हो जाता है, और यह कहता है कि हे प्रभु ! मैं अज्ञानी आपको भला क्या जानूँ ,, वही उन्हें जानने का अधिकारी होता है। वही ब्रह्म है, उन्हें जानकर सब कुछ जान लिया जाता है। उन्हें नमन ही शिव- शक्ति और सृष्टि को नमन है। गुरू नमन के सत्य को जान लेने पर अन्य कुछ भी जानना शेष नहीं रहता।

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