ईश्वर के बारे में जितना ज्यादा लिखा गया है और कहा गया है, ये बारीकी से देखा और ये सोचा कि पूजा- पाठ से लेकर के ईश्वर की चर्चा- लीला कहने से सबका क्या प्रयोजन है? यह एक ही प्रयोजन दिखाई पड़ा कि ईश्वर एक परब्रह्म, अपार और नियामक शक्ति है, आदमी के काम को देखती रहती है। आदमी के चाल- चलन और आदमी के विचार के अनुसार से फल देती रहती है। उसे आदमी की प्रशंसा से क्या मतलब? निन्दा से क्या मतलब? पूजा से क्या मतलब है? गाली देने से क्या मतलब है? लेकिन जब मैंने ये विचार किया कि पूजा- पाठ से लेकर धर्म और अध्यात्म तक का सारा ढाँचा किस वजह से खड़ा किया गया है और इसका मतलब क्या है? इसका मतलब सिर्फ एक है और कुछ नहीं है, वह यह है कि इन सारे के सारे कलेवरों के बंधनों में जकड़ा हुआ मनुष्य ऊँचे किस्म के विचार करना सीखे।
आदर्शवादी विचारों को अपने मन और अन्तरंग में स्थापित किये रह सके। ये मनुष्य की महानतम सेवा है और मनुष्य के जीवन की महानतम सफलता है। उसके मन में श्रेष्ठ किस्म के विचार रहते हों और इस तरह के विचार रहते हों, जो उसके व्यक्तिगत जीवन को पवित्र बना दें और जो उसके व्यक्तिगत जीवन के दोष और दुर्गुणों का समाधान कर दें और इस तरह के विचार जो मनुष्य को उदार बनाते हैं और जो मनुष्य को स्वार्थपरता और संकीर्णता के जाल और जंजाल से निकालते हैं। वो विचार जो मनुष्य की परिधि को- सीमा को अपने शरीर से आगे बढ़ाते हैं अपने कुटुंब से आगे बढ़ाते हैं, अपने बच्चों से आगे बढ़ाते हैं और इतना विशाल बनाते हैं कि वह सारे समाज का अंग हो जाता है और सारे समाज की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझता है और सारे समाज की सुविधाओं को अपनी सुविधा समझता है और सारे समाज के कष्टों को अपना कष्ट समझता है और सारे समाज की सेवा को अपनी सेवा समझता है। जब इतना ऊँचा स्तर मनुष्य का हो जाए, तो समझना चाहिए कि इसके पास धर्म की मान्यता आ गयी, अध्यात्म की मान्यता आ गयी और ईश्वर की भक्ति आ गयी।