ज्ञान दीक्षा एवं समावर्तन संकल्प

धर्म क्या है ?

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        भारतीय संस्कृति विश्व की सबसे पुरानी और सबसे समृद्ध संस्कृति मानी जाती है। यहाँ धर्म का अर्थ अन्य देशों की तरह रिलीजन या सम्प्रदाय परक नहीं रहा है। उसे तो विद्या के- ज्ञान के सूत्रों के अनुरूप जीवन का अनुशासन कहा जाता रहा है। सूत्र है-

यतो ऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः।


धर्म वह अनुशासित जीवन क्रम है, जिसमें लौकिक उन्नति (अविद्या) तथा आध्यात्मिक परमगति (विद्या) दोनों की प्राप्ति होती है।

दार्शनिकों ने धर्म के दो रूप कहे हैं- 1. सहज धर्म 2. कर्तव्य धर्म।

1. सहज धर्म:-

        सहज धर्म का अर्थ होता है- प्राणियों की सहज स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ। जैसे- अग्नि का धर्म है- ऊर्जा का प्रसारण, जल का धर्म है- शीतलता प्रदान करना, प्यास बुझाना आदि। इस आधार पर मनुष्य का धर्म होता है- मनुष्यता की गरिमा का निर्वाह।

2. कर्तव्य धर्म:-

        धर्म का दूसरा स्वरूप मनुष्यों के आदर्श कर्तव्यों से जुड़ा है। जैसे- राजा का धर्म प्रजा की रक्षा, पोषण और न्याय की व्यवस्था प्रदान करना। शिक्षक का धर्म जन- जन को शिक्षित बनाने की योग्यता एवं कुशलता अर्जित करके उसे मूर्त रूप देना है। इसी तरह विद्यार्थी का धर्म विद्या की दोनों धाराओं को अभ्यास- अनुभव में लाना होता है।

        यदि कोई सफाई निरपेक्ष हो जाये, तो वहाँ गन्दगी ही फैलेगी। कोई स्वर निरपेक्ष हो जाये, तो बेसुरा ही रह जायेगा। इसी तरह यदि धर्मनिरपेक्षता के आधार पर मनुष्य अपने सहज धर्म और कर्तव्य धर्मों के प्रति उदासीन हो जाये, तो जीवन अनगढ़- अनुशासनहीन ही रह जायेगा।

निष्कर्ष:-

        कहने का तात्पर्य यह है कि सेक्यूलरिज्म की मूल भावना को समझते हुए, उसका सम्मान करते हुए, हमें धर्म निरपेक्षता की अनगढ़ धारणा से बाहर निकलना होगा। विद्यालयों को, विद्यार्थियों को उनके धर्म कर्तव्य ‘विद्या को समग्रता से अपनाने’ के प्रति जागरूक करना होगा, तभी बात बनेगी।

        विद्यालयों में लौकिक शिक्षा (अविद्या) को तो पर्याप्त महत्त्व दिया जा रहा है। उसके साथ जीवन में आध्यात्मिक मूल्यों (विद्या) के समावेश के प्रयास पूरी तत्परता और तन्मयता के साथ किये जाने जरूरी हैं। युग ऋषि (वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी) ने इसके लिए ‘शिक्षा और विद्या’ के समन्वय का सूत्र दिया है। विद्यालयों के प्रशासनिक अधिकारी तथा शिक्षकगण इस दिशा में भले ही छोटी- सी, किन्तु प्रेरक पहल अवश्य कर सकते हैं। यह पुस्तिका इसी दिशा में एक विनम्र प्रयास के रूप में प्रस्तुत की जा रही है।
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