नारी क्या है?
विद्याः समस्तास्तव देवि भेदाः, स्त्रियाः समस्ताः सकला जगत्सु।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत्, का ते स्तुतिः स्तव्यपरापरोक्तिः॥ - दुर्गा सप्तशती
अर्थात्:- हे देवी! समस्त संसार की सब विद्याएँ तुम्हीं से निकली है तथा सब स्त्रियाँ तुम्हारा ही स्वरूप है। समस्त विश्व एक तुमसे ही पूरित है। अतः तुम्हारी स्तुति किस प्रकार की जाए।
नास्ति वेदापरं शास्त्रं, नास्ति मातुः समो गुरुः। -- अभिस्मृति
अर्थात्:- वेद से बड़ा कोई शास्त्र नहीं है और माता के समान कोई गुरु नहीं।
नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नभ पग तल में।
पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में॥
-- सुभद्रा कुमारी चौहान
1. वस्तुतः नारी देवत्व की मूर्तिमान प्रतिमा है- वह दया करुणा, सेवा सहयोग, ममता, वात्सल्य, प्रेम और संवेदना की जीती जागती तस्वीर होती है। अपने परिवार व आसपास के परिवार में उसकी जीवनचर्या में अपनाए जाने वाले क्रम को देखकर सहज ही इस बात को अनुभव किया जा सकता है। पुरुष में साहस, पराक्रम, बल, शौर्य आदि गुण प्रधान होता है परन्तु नारी संवेदना प्रधान होती है। वह ईश्वर की अनुपम कृति है, रचना है जो संसार में प्रेम दिव्यता, संवेदना, ममता, करुणा का संचार करती है। वह मातृत्व व वात्सल्य की विलक्षण विभूति है जो ईश्वर का प्रतिनिधित्व करती है।
उदा. :- वंदनीया माता भगवती शर्मा, माता कस्तूरबा, सिस्टर निवेदिता, माँ शारदामणि, मदर टेरेसा आदि की संवेदना और मातृत्व ने जगत को जीवन दिया।
2. नारी की मूल प्रवृत्ति आध्यात्मिक होती है- उसमें आत्मिक शक्तियों की बहुलता के कारण वह दिव्य शक्ति की अधिक अधिकारिणी बनी है। शास्त्रों में कहा है- दस उपाध्यायों से एक आचार्य श्रेष्ठ है, 100 आचार्यों से एक पिता श्रेष्ठ है, 1000 पिताओं से एक माता उत्तम है। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता।’
3. नारी शक्ति है, सृजेता है, निर्मात्री है- वह अपनी सन्तान, अपने पति व परिवार का निर्माण करती है। उदा.- आदर्श माता के रूप में मदालसा, जीजाबाई, अनुसूया, शकुन्तला, सीता आदि का नाम जगत प्रसिद्ध है। पति का निर्माण एवं उन्हें धर्माचरण हेतु उपदेश देने वाली पति के लिए गुरु की भूमिका निभाने वाली- रत्नावली, विद्योत्तमा, मन्दोदरी आदि हैं।
4. नारी का संस्कार व संस्कृति कह संवाहिका है- नारी के द्वारा ही संस्कृति जीवन्त रहती है उसी के द्वारा अगली पीढ़ी संचारित होती है।
5. वैदिक युग में ब्रह्मवादिनी व सद्योवधु- वैदिक युग में पारी के दो रूप प्रचलित थे। दोनों अत्यन्त गौरवशाली थे।
1. ब्रह्मवादिनी- यज्ञ करना कराना, वेदपाठ करना, वैदिक ऋचाओं का संधान, निर्माण करने वाली ऋषिकाएं आदि कार्य करती थी। गार्गी, मैत्रेयी, अपाला, घोषा, विश्ववारा, यमी, शची, कात्यायनी आदि।
2. सद्योवधू- श्रेष्ठ संस्कारवान गृहिणी, साध्वी स्वभाव, परिवार को अपने संस्कार व सद्गुण से सींचकर स्वर्गोपम बनाने वाली, बालकों को संस्कारवान बनाकर राष्ट्र के लिए संस्कारवान, चरित्रवान नागरिक गढ़ने वाली महिला सद्योवधू कहलाती थी।
वर्तमान मे नारी का गौरव- नारी रत्न के उदाहरण जो आज नारियों के लिए रोल मॉडल होने चाहिए।
1. सामाजिक क्षेत्र में- पं. रमाबाई, मीराबेन, उषा मेहता, तोरूदत्त
2. शिक्षा के क्षेत्र में (विज्ञान तकनीकी)- कल्पना चावला, एनीबीसेंट, मैडम क्यूरी।
3. राजनीति के क्षेत्र में- सरोजिनी नायडू, श्रीमती विजयालक्ष्मी पंडित, श्रीमती इंदिरा गांधी, भण्डार नायके।
4. सेवा के क्षेत्र में- सिस्टर निवेदिता, माता कस्तूरबा, अवन्तिका बाई गोखले, प्रभादेवी ,, मदर टेरेसा, किरण बेदी, मेधा पाटकर।
5. राष्ट्रभक्त नारी- रानी लक्ष्मी बाई, रानी भीमा बाई, रानी दुर्गावती, पन्नाधाय।
‘नारी जागरण’ का अर्थ
1. नारी अपनी पुरातन गौरवशाली अतीत को जाने। अपनी शक्ति को पहचाने। अपनी क्षमता व दिव्यता को पहचानकर उसे पाने व बढ़ाने हेतु प्रयासरत हो एवं उसमें पुनः प्रतिष्ठित हो।
2. नारी के स्वयं परिष्कार व निर्माण हो, उसका उसे तो मिले ही उसकी क्षमताओं से पावन संवेदना से परिवार, समाज और राष्ट्र लाभान्वित हो।
3. नारी जागरण के चार आधार- शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलम्बन और संस्कार। नारी शिक्षित हो साथ ही संस्कारवान हो। स्वस्थ हो तथा स्वावलम्बी हो। इसके साथ वह दूसरों को भी शिक्षित, स्वस्थ और स्वावलम्बी बनाने हेतु सक्षम बनें।
‘‘प्रबुद्ध नारियाँ आगे आएँ, सृजन सैन्य का शंख बजाए ।’’
नारी जागरण की आवश्यकता क्यों है?
1. विश्व की आधी जनसंख्या नारी है। आधी जनसंख्या व बच्चे नारी के ही साथ है। यदि उनकी स्थिति गई गुजरी रही, तो समाज अपंग जैसी स्थिति में रह जाएगा। समाज को अपंगता की स्थिति से बचाने हेतु नारी जागरण आवश्यक है।
2. नर रत्न की आवश्यकता- नवयुग के अवतरण में विश्व में नररत्नों का उत्पादन समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। यह कार्य नारी का ही है। माता अपने शरीर से शिशु का निर्माण तथा गर्भस्थ शिशु में प्रसुप्त चेतना को जागृत विकसित करने का कार्य स्वयं के चिन्तन तथा संस्कारों से करती रहती है। प्रसवोपरान्त अपने सूक्ष्म संस्कारों से ओतप्रोत दुग्ध रूपी रसायन से बालक के चिन्तन एवं दृष्टिकोण को भी बनाती जाती है। मदालसा ने ब्रह्मज्ञानी संतान व जीजाबाई ने वीर शिवाजी जैसे नररत्न बनाया तो दूसरी ओर नेपोलियन बोनापार्ट की माता का प्रभाव उसे क्रूर, दुस्साहसी व घोर अत्याचारी बनाया।
आज समय की मांग है कि पुनः भारत में नानक, सूर, कबीर, राजगुरु, गांधी, तिलक, सुभाष, विवेकानन्द पैदा हो। उसके लिए नारी अपनी उस भूमिका को समझे और विश्व को जगद्गुरु के पद पर प्रतिष्ठित करने, भारतमाता के गौरव को वापस लाने हेतु जागे, कमर कसकर आगे आए। यह कार्य जागृत नारी द्वारा ही सम्भव है जिनके सहारे उत्कृष्ट नई पीढ़ी की खेती हो सकती है व मनुष्यों के नस्ल को सुधारा जा सकता है।
3. परिवार निर्माण हेतु- व्यक्ति और समाज के बीज की कड़ी है ‘परिवार’, और परिवार की धूरि है- ‘नारी’। परिवार मनुष्य के लिए प्रथम पाठशाला है। शिल्पकला, कौशल, भौतिक शिक्षाएँ सरकारी या अन्य व्यवसायिक व शैक्षणिक संस्थानों में दी जा सकती है। लेकिन जिस संस्कार संजीवनी रूपी अमृत का शैशवावस्था से ही जिस प्रयोगशाला में पान कराया जाता है, जहाँ आत्मीयता एवं सहकार, सद्भाव के इंजेक्शन, टेबल से पाशविकता का उपचार किया जाता है वह परिवार ही है।
उस परिवार के वातावरण को वातावरण को स्वर्ग के समान या नरक के समान बनाना बहुत हद तक परिवार की नारी के हाथ में होता है। वह चाहे तो अपने परिवार की फुलवारी में झाँसी की रानी, मदर टेरेसा, दुर्गावती,सिस्टर निवेदिता, गांधी, गौतम बुद्ध और तिलक, सुभाष बना सकती है या चाहे तो आलस्य प्रमाद में पड़ी रहकर भोगवादी संस्कृति और विलासी जीवन के पक्षधर बनकर, दिन भर टी.वी. देखना, गप्प करने, निरर्थक प्रयोजनों में अपनी क्षमता व समय को नष्ट कर बच्चों को कुसंस्कारी वातावरण की भट्टी में डालकर परिवार और समाज के लिए भारमूल सन्तान बना सकती है।
आज आवश्यकता है कि परिवार पुनः बालकों के नवनिर्माण का केन्द्र बने उसे नारी शक्ति का, माता का अनुदान मिले। ऋषि कहते हैं ‘पृथिव्या माता गरीयसी’ माता पृथ्वी से भी बड़ी है। सन्त, शहीद, सूर का निर्माण हो। इसकी कुञ्जी नारी के हाथ में हो। यह कार्य सुसंस्कृत नारी ही अपने स्नेह, सौजन्य, सहकार, सद्व्यवहार की पूञ्जी से कर सकती है। गृहस्थ एक योग है, गृहस्थ एक तपोवन है, जिसमें संयम, सेवा और सहिष्णुता की साधना करनी पड़ती है।
4. समाज निर्माण में नारी के योगदान के बिना सफलता सम्भव नहीं- परन्तु उसकी प्रतिभा का लाभ, उसके सहयोग का अनुदान, उसके समर्थ व सुसंस्कृत होने पर मिल सकता है। विकसित नारी अपने व्यक्तित्व को समृद्ध समुन्नत बनाकर राष्ट्रीय समृद्धि के संवर्धन में कितना बड़ा योगदान दे सकती है, इसे उन विकसित देशों के उदाहरण में देखा जा सकता है जहाँ उन्हें आगे बढ़ाया गया, उन्हें अधिकार दिए गये। भारत में भी सुभद्राकुमारी चौहान, श्रीमती एनीबीसेंट, लक्ष्मीबाई, दुर्गावती, प्रभादेवी, भीकाजी कामा, सिस्टर निवेदिता का नाम उन देवियों में से है, जिन्होंने राष्ट्र निर्माण में अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व की आहुतियाँ दी।
इन्हीं कारणों से प. पूज्य गुरुदेव व वन्दनीया माता जी ने नारी जागरण पर शंखनाद करते हुए ‘एक्कीसवीं सदी नारी सदी’ का उद्घोष किया। परन्तु यह गौरव नारी तभी प्राप्त कर सकेगी जब अपने दायित्व को समझकर अपने में वांछित परिवर्तन करेगी।
नारी जागरण हेतु क्या करें?
(वर्तमान में प्रचलित नकारात्मक ढर्रे का हवाला देते हुए सकारात्मक पक्षों को रखें व प्रेरणा दें)
नारी स्वयं आगे बढ़े- महिला जागरण के सम्बन्ध में बहुत सी योजनाएँ है उन्हें पूरा करने के लिए समाज से बहुत से अंगों को अपनी भूमिका निभानी है, परन्तु सबसे प्रधान भूमिका नारी की ही होगी। इस दिशा में आगे बढ़ने से नारी को उसकी झिझक रोकती है क्योंकि लम्बे समय से उसकी सोच पुरानी ढर्रे पर ही सोचने की है। उसे भ्रम और झिझक को निकाल फेंकना होगा। विश्वास होना चाहिए कि कर्तव्य की मांग के अनुसार अपने आप को ढाल लेने की अद्भुत क्षमता नारी को जन्म से ही प्राप्त है। इसके लिए प्रथम उसे स्वयं में परिवर्तन लाने हेतु तत्पर होना होगा।
1. स्वयं सुशिक्षित संस्कारवान बने। केवल शिक्षा नहीं विद्या, जीवन विद्या सीखें।
2. स्वास्थ्य रक्षा के नियमों के तहत उसे मोटी बातों की कम से कम जानकारी हो कि जीभ चटोरापन, वासनात्मक असंयम, अनियमित तथा अस्त−व्यस्त दिनचर्या और दिमागी तनाव जैसे कारण ही स्वास्थ्य की बर्बादी के प्रमुख कारण हैं। आलस्य, प्रमाद, अस्वच्छता से बचा जाए एवं आहार विहार में सतर्कता बरती जाए तो स्वास्थ्य रक्षण कर सकना सम्भव हो जाएगा।
3. वस्त्र आभूषण, सौन्दर्य शृंगार, शिक्षा, सम्मान, विनोद आदि में सबसे अधिक महत्त्व शिक्षा को दें। विद्या से बढ़कर और कोई सम्पत्ति नहीं है। प्रायः महिलाओं का ध्यान वस्त्र आभूषण, नाते रिश्ते में ही अधिक व्यस्त रहते हैं।
4. फैशन परस्ती तथा कथित आधुनिकता के भोंडापन से बचें। सौन्दर्य प्रसाधन तो आधुनिक अन्धविश्वास है। सारा का सारा सौन्दर्य प्रसाधनों का संसार क्रूरता पर टिका हुआ है। न जाने इसके लिए कितने ही निरीह प्राणियों का वध किया जाता है। यदि यह छूत का रोग धोखे से लग गया हो तो दृढ़तापूर्वक इसे व्यक्तित्व का ओछापन मान कर त्यागने का संकल्प साहस जगाएँ। आभूषणों का मोह त्यागें, सादगी अपनाएँ। वन्दनीया माताजी के अनुसार ‘‘नारी शृंगारिकता नहीं पवित्रता है।’’
5. अपनी चिरपुरातन आध्यात्मिक शक्ति को पुनः पाने हेतु अनिवार्य रूप से नित्य उपासना एवं स्वाध्याय का क्रम अपनाएँ। इसी से वह आत्मशक्ति सम्पन्न एवं दिव्य विचारों की पुञ्ज बनेगी।
6. स्वावलम्बी बनने हेतु प्रयासरत हों इसके लिए आवश्यक नहीं कि वह बहुत ऊँची महाविद्यालयीन शिक्षा पाए और नौकरी करे। गृह उद्योग, कपड़ों की धुलाई, सिलाई मरम्मत, टूट−फूट की मरम्मत घरेलू शाक वाटिका, घर में ट्यूशन पढ़ाना आदि के काम स्वावलम्बी बनने का अच्छा साधन है, जो कि आज कम पैसे में दिनभर नौकरी में पिसते रहने की तुलना में बहुत बेहतर है।
7. घर का वातावरण आध्यात्मिक बनाएँ- दैनिक गायत्री उपासना, बलिवैश्व को अपना अनिवार्य कर्तव्य समझें, बच्चों के सभी संस्कार कराएँ। भारतीय संस्कृति में प्रचलित संस्कारों का महत्त्व समझें और अपनाएँ। (पुंसवन, नामकरण, मुंडन, अन्नप्राशन, विद्यारम्भ, यज्ञोपवीत, दीक्षा संस्कार एवं जन्मदिवस संस्कार कराएं)
8. कुरीतियाँ छोड़ें औरों को भी इसकी प्रेरणा दें (बाल विवाह, परदा, शादी विवाह में अत्यधिक फिजूलखर्ची, सजधज आडम्बर लड़के व लड़की में भेद, फैशनपरस्ती, दहेजप्रथा, बहु और बेटी में अन्तर करना, नारी द्वारा ही नारी निन्दा करना एवं गरिमा को गिराना, जाति- पांति, छुआछूत, गुड़ाखू, तम्बाकू व गुटखा सेवन, मद्यपान आदि)।
9. परिवार निर्माण का महान दायित्व सम्भालें। सुखी परिवार के पांच महामंत्र हैं- 1. परस्पर आदर भाव से देखना। 2. अपनी भूल स्वीकार करना। 3. आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना। 4. भेदभाव न करना। 5. विवादों का निष्पक्ष निपटारा। उसी प्रकार पारिवारिक पंचशील का पालन करें- 1. सुव्यवस्था, 2. नियमितता, 3. सहकारिता, 4. प्रगतिशीलता, 5. शालीनता।
10 महिलाओं के साप्ताहिक पाक्षिक सत्संग में हिस्सा लें।
जो प्रबुद्ध व समझदार नारी हैं वे अपने तक ही सीमित न रहकर उपरोक्त कार्यों को अन्य बहिनों को करने हेतु प्रेरणा दें व समाज निर्माण में योगदान करें जैसेः-
1. साप्ताहिक सत्संग, गोष्ठी चलाएँ जिसमें उपरोक्त बिन्दु की चर्चा हो व गतिविधियाँ क्रियान्वित हों। (गायत्री मंत्र का सामूहिक जप पाठ, स्वाध्याय भी हो)
2. साप्ताहिक बाल संस्कार शाला चलाएँ।
3. युग निर्माण के सात आन्दोलन हेतु नेतृत्व करें। नारी संगठन बनाएँ।
नारी जागरण में पुरुष की भूमिकाः-
पिछड़ी हुई स्थिति में पड़ी नारी को आगे बढ़ाने में परिवार के पुरुष की महती भूमिका होती है। उन्हीं की सेवा सुश्रूषा में नारी का अधिकांश समय बीतता है। दूसरी ओर उसके समर्थ होने की स्थिति को पुरुष अपने लिए खतरा नहीं गर्व का विषय समझें एवं उसके प्रति अपनी सद्भावना का प्रमाण परिचय देते हुए नारी को समुन्नत बनाने का प्रयत्न करें। यह उच्चकोटि का परमार्थ भी है और सद्भाव भरा प्रायश्चित भी। परमार्थ यों कि उसने नारी जैसी सृजन शक्ति को समर्थ बनाना समाज के सिंचन पोषण हेतु किया जाने वाला ही कार्य है। प्रायश्चित इसलिए कि नर की अहंमन्यता और संकीर्णता के कारण ही नारी वर्तमान दुर्गति तक पहुँची है। अतः आगे बढ़कर उसे परिमार्जित करें। अपने परिवार के प्रभाव क्षेत्र की महिलाओं को उसके लिए उत्साहित करें। उन्हें आगे रखें, स्वयं पीछे रहकर वातावरण बनाएं। पं. पू. गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य, महात्मा गांधी ने यही किया एवं प्रेरणा दी। पुरुष के सहयोग से नारी जागरण का आन्दोलन कई गुना अधिक तीव्र हो जाएगा।
सन्दर्भ पुस्तकें:-
1. नारी श्रृंगारिकता नहीं पवित्रता है- वन्दनीया माताजी।
2. नारी जागरण पुस्तक माला- 10 पाकेट बुक्स का सेट।
3. परिवार बने स्वर्ग।
4. आधुनिक भौंडे फैशन का परित्याग कीजिए। (पॉकेट बुक्स)
5. क्रूरता पर टिका सौंदर्य प्रसाधनों का संसार। (पॉकेट बुक्स)
6. गृहस्थ एक योग।
7. गृहस्थः एक तपोवन- वाङगय क्र. 61
8. महिला जागरण का उद्देश्य- वन्दनीया माताजी।
आदर्श कन्या बनने के सूत्र
माता पिता घर में कन्या जब तक रहती है, अपने भावी जीवन की नींव का निर्माण करती है। यह नींव मजबूत हो गई तो वह आदर्श नारी में रूपान्तरित होकर समुन्नत परिवार, श्रेष्ठ व आदर्श समाज का सुदृढ़ सांचा बन जाती है। इसके लिए कन्या की क्या तैयारी हो?
1. नियमित उपासना, साधना व स्वाध्याय में रुचि रखें। यह उसकी दिनचर्या में आदत में शुमार हो। पिक्चर व टी.वी. देखने, सहेलियों से गप्प करने से बचें।
2. माता- पिता की आज्ञा का पालन करें, हठधर्मिता अपनाकर मनमानापन के लिए उद्यत न हों। फैशन व अन्य वस्तुओं में अपव्यय करने की गन्दी आदत पनपने ही न दें।
3. घर में श्रमशीलता का परिचय दें। माता के कार्यों में, रसोई घर में, अन्य कार्य में सहयोग करें। रसोई व स्वास्थ्य के नियमों की पर्याप्त जानकारी रखें और उसका अभ्यास बनाएँ।
4. अपने समय का नियोजन करने हेतु गम्भीरता बरतें। विवाह पूर्व सिलाई, कढ़ाई, कम्प्यूटर, वांछित शिक्षा एवं संगीत युगनिर्माण प्रशिक्षण आदि पूरा कर लेने का लक्ष्य बनाएँ। आत्मिक उन्नति हेतु सबसे अधिक समय कुँआरेपन में ही निकाला जा सकता है। अतः समय का पूरा सदुपयोग करें। परिवार में छोटे भाइयों, बहनों से स्नेह सहकारयुक्त व्यवहार करें। उनसे ईर्ष्या, प्रतिद्वन्दता न रखें।
आदर्श वधू बनने के सूत्र
1. विवाह हेतु वर का चयन प्रथम संस्कार, द्वितीय शिक्षा स्वावलम्बन हो। धन व तथाकथित सुंदरता या स्मार्टनेस को वर चयन का मापदण्ड बनाने पर बहुत धोखा होता है।
2. वधु, पति व सास ससुर का हृदय से सम्मान करे। छोटे सदस्यों से वैसे ही स्नेहयुक्त व्यवहार रखें जैसे मायके में रखते रहे। ध्यान रहे अपना पति, ससुर व सास की सन्तान है, जिसके कारण ही ससुराल में अपनी पहचान है।
3. घर के कार्यों को जिम्मेदारी के साथ प्राथमिक कर्तव्य मानते हुए निभाएँ। श्रम से जी न चुराए। खर्च में पर्याप्त मितव्ययिता बरतें। पति की कमाई नीतिपरक ही हो, इसका ध्यान रखें।
4. परिवार में प्रचलित मर्यादाओं का पालन अवश्य करें। परन्तु कुरीतिजन्य प्रचलनों के प्रति धीरे- धीरे प्रेम से ससुराल में लोगों की मानसिकता को बदलने का प्रयास करें।
5. शिक्षित होकर नौकरी पाने के पीछे भागने की ही महत्त्वाकाँक्षा न पालें। स्वावलम्बी अवश्य बनें। परिवार में सन्तान की देखभाल, उसका निर्माण बहुत बड़ी जिम्मेदारी एवं पुण्य का कार्य है।
6. पति के परिवार की प्रतिष्ठा में अपनी प्रतिष्ठा है, समझें। हर समय केवल अपने मायके का गुणवान करना या मायके को ससुराल की अपेक्षा श्रेष्ठ बताना, मायके के सम्पत्ति का घमण्ड करना, ससुराल की छोटी- छोटी बातों को मायके में प्रसारित करना, बारम्बार मायके जाने और वहाँ रहने की इच्छा या जिद करना, वधू के लिए त्याज्य है। इससे पति के परिवार की प्रतिष्ठा घटती है। वधू को अपने मायके से मिलने वाला सम्मान घटता है। पति का घर ही अपना संसार है, वहाँ ताल मेल बिठाने का अभ्यास करें।
7. वधू अपनी सेवा व शालीन व्यवहार से ससुराल में सबका हृदय जीते। पूरे परिवार के सदस्यों को अपनी संतान की तरह मानें तो वह देवी की तरह स्तुत्य हो जाएगी। उसी को गृह लक्ष्मी कहा जाता है।
विचार करने का तरीका
‘‘जिसे तुम अच्छा मानते हो यदि तुम उसे आचरण में नहीं लाते तो वह तुम्हारी कायरता है। हो सकता है कि भय तुम्हें ऐसा न करने देता हो। लेकिन इनसे न तो तुम्हारा चरित्र ऊँचा उठेगा और न ही तुम्हें गौरव मिलेगा।
मन में उठने वाले अच्छे विचारों को दबाकर तुम बार बार जो आत्महत्या कर रहे हो, आखिर उनसे तुमने किस लाभ का अन्दाजा लगाया है। शान्ति और तृप्ति आचारवान व्यक्ति को ही प्राप्त होती है।’’
- पं० श्रीराम शर्मा आचार्य