व्यक्तित्व निर्माण युवा शिविर - 2

संस्कारों का विज्ञान

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व्याख्यान का उद्देश्य:-


1)    संस्कार निर्माण की प्रक्रिया को समझें एवं संस्कारवान बनने की उत्कट इच्छा हो।  

2)    अपने कुसंस्कारों के प्रति घृणा के भाव पैदा हों।

3)    दीक्ष संस्कार हेतु शिविरार्थियों की मानसिकता बने। अत: संस्कार की श्रृंखला में दीक्षा संस्कार पर विशेष रूप से प्रकाश डालें। शेष संस्कारों की केवल संक्षिप्त जानकारी दे देवें।

व्याख्यान क्रम:-

संस्कार क्या है?

    संस्कार का अर्थ है किसी वस्तु का परिष्कार, सुधार शुद्धे। परिशोधित करना, अशुद्धियों को दूर करना। यह उदाहरण जड़ वस्तु का है परन्तु यहां संस्कार से हमारा आशय मनुष्य के मन, बुद्धि, भावना, अहंकार को चमकाने विकसित करने से है। कोष ग्रन्थों में ‘संस्कृत शद्ध का अर्थ भी संस्कार शद्ध से मिलता जुलता है। इसका अर्थ शुद्ध किया हुआ परिमार्जित, परिष्कृत, सुधारा हुआ, संवारा हुआ है। इसमें मानव में जो दोष है उनका शोधन करने के लिए और उन्हें सुसंस्कृत करने के लिए ही संस्कारों का प्रावधान किया गया है।

    महर्षि चरक के अनुसार- ‘‘संस्कारों हि गुणन्तराधानमुच्यते।’’ अर्थात् वस्तु में नये गुणों का आधान करने का नाम संस्कार है। जैसे धान या चांवल को सुसंस्कारित करके सुपाच्य खील या परमल बनना तथा दूध से दही और घी का निर्माण करना। मामूली से धातु अयस्क को जब विविध प्रक्रियाओं द्वारा (उदा. भिलाई इस्पात संयंत्र में लोहा इस्पात ढालना) संस्कारित किया जाता है तो वही पदार्थ बहुमुल्य धातु या रसायन बन जाती है। मनुष्य के अन्दर भी दिव्य गुणों का समावेश हो सके कुसंस्कारों का निष्कासन हो सके इसके लिए संस्कार आवश्यक है।

    प्राचीन काल में ऋषियों ने संस्कारों का निर्माण मनुष्य के समग्र व्यक्तित्व के परिष्कार के लिए किया था। यह विश्वास किया जाता था कि संस्कारों के अनुष्ठान से व्यक्ति में दैवी गुणों का आविर्भाव हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन को अनुशासित किया जाना उसकी आध्यात्मिक उन्नति के लिए आवश्यक है। आध्यात्मिक उन्नति मानव के चरम विकास का पर्याय है संस्कारों से इसी की पूर्ति होती है।

    भारतीय संस्कृति के आदि प्रवक्ता भगवान मनु का कथन है कि ‘‘संस्कार शरीर को शुद्ध करके उसे आत्मा के निवास के उपयुक्त बनाते हैं। यह एक तथ्य है कि जन्म से प्रत्येक व्यक्ति शुद्र होता है, संस्कारों द्वारा परिमार्जित होकर ही वह द्विज बनता है। ‘जन्मना जायते शूद्र:, संस्काराद् द्विज उच्यते।’ इस तरह मानव जीवन को पवित्र एवं उत्कृष्ट बनाने वाले आध्यात्मिक उपचार का नाम ही संस्कार है।’’

संस्कार कैस बनते हैं?

    संस्कारों का प्रारम्भ अभ्यास से होता है। वस्तुत: मनुष्य अपने संस्कारों का दास होता है। संस्कार बहुत ढीठ प्रकृति के होते हैं। ये जल्दी नहीं बदलते।

संस्कार निर्माण की प्रक्रिया:-

1.    विचार

2.    विचार की पुनरावृत्ति (बारम्बार चिन्तन)

3.    विचारों का कर्म से क्रियान्वयन

4.    कर्म की पुनरावृत्ति (अभ्यास)

5.    आदत बन जाना।

6.    प्रवृत्ति बन जाना व जीवन के साथ प्रवृत्ति का ओत प्रोत हो जाना

7.    संस्कार- (स्वभाव में परिणित हो जाना)

8.    तद्नुरूप चरित्र का निर्माण

9.    व्यक्तित्व का निर्माण

    प्रथम चरण में मानव के मस्तिष्क में एक विचार आता है, फिर बारम्बार उस विचार की पुनरावृत्ति होने लगती है वह एक दिन क्रिया रूप में परिवर्तित हो जाता है, फिर वह कर्म की पुनरावृत्ति करने लगता है जिससे वह क्रिया उसके अभ्यास में आ जाती है, वही उसकी आदत बन जाती है। आदत जब ज्यादा सुदृढ़ हो जाते हैं, तो कालान्तर में प्रवृत्ति व स्वभाव का अंग बन जाते हैं, वही व्यक्ति का संस्कार होता है, इसी संस्कार से व्यक्ति का व्यक्तित्व बनता है। (बीड़ी, मद्यपान, चोरी, सत्संग, स्वाध्याय का उदाहरण)।

    इस प्रकार विचार से संस्कार बनता है, संस्कार से चरित्र बनते हैं और चरित्र ही व्यक्तित्व बनाता है। विचारों की एक विशेषता होती है कि यदि उनके साथ भावनात्मक अनुभूतियों को जोड़ दिया जाए तो वे न केवल तीव्र और प्रभावशाली हो जाते हैं बल्कि जल्दी ही पककर संस्कारों का रूप धारण कर लेते हैं। किसी विषय के चिन्तन के साथ यदि मनुष्य की भावनात्मक अनुभूति जुड़ जाती है तो वह विषय उसका प्रिय बन जाता है। यही प्रियता उस विषय को मानव मन पर हर समय जीवन्त बनाए रहती है फलत: उन्हीं विषयों में चिन्तन मनन अबाध गति से चलती रहती है और वह विषय अवचेतन में जा जाकर संस्कारों का रूप लेता रहता है। संस्कार अवचेतन मन में होते हैं। यही कारण है कि अनेक लोग भोग वासनाओं का निरन्तर चिंतन विशेष रूचि के साथ करते रहते हैं और अपने संस्कारों में सम्मिलित कर लेते हैं। वे बहुत पूजा पाठ सत्संग, धार्मिक साहित्य का अध्ययन करने पर भी भोग वासनाओं से मुक्त नहीं हो पाते। इस प्रकार केवल अच्छे विचार करने से अच्छा चरित्र व व्यक्तित्व नहीं बनता शानदार व्यक्तित्व के स्वामी बनने के लिए वांछनीय विचारों को भावनापूर्वक (अन्तरमन से) चिन्तन, मनन और विश्वासपूर्वक संस्कार रूप में ढालने की आवश्यकता है, अपना वैसा ही स्वभाव बना लेने की जरूरत है।

    इस प्रकार परिवर्तित संस्कार से परिवर्तित चरित्र का जन्म होता है और कू्ररकर्मा अंगुलीमाल का परम कारुणिक भिक्षु में बदल जाना, कामुकता की आग में जलने वाले विल्वमंगल के जीवन में ब्रह्मचर्य की भक्ति भावना की शीतलता का प्रवेश करने जैसी चमत्कारपूर्ण घटना घट जाती है।

    चरित्र ही वह धूरी है जिस पर मनुष्य का जीवन  सुख शान्ति और मान सम्मपन की अनुकुल दिशा अथवा दु:ख दरिद्रय अशान्ति असन्तोष की प्रतिकूल दिशा में गतिमान होता है, तब क्यों न उज्जवल चरित्र के लिए उज्जवल संस्कारों को कंसूस के धन की तरह बटोरना शुरु कर दें। इसके लिए उज्जवल विचारों को ग्रहण करना होगा। अकल्याणकारक दूषित विचारों को एक एक क्षण के लिए भी पास न फटकने दें। वेद भगवान का आदेश है (ऋग्वेद) ‘‘आ नो भद्र: क्रतबो भन्तुविश्वत:’’ सब ओर से कल्याणकारी विचार हमारे पास आए-हमारा जीवन मंत्र बन जाए।

संस्कार परम्परा व भारतीय संस्कृति के षोडश संस्कार:

    यों किसी व्यक्ति को सुसंस्कृत बनाने के लिए शिक्षा, सत्संग, वातावरण, परिस्थिति, सूझ-बूझ आदि अनेक बातों की आवश्यकता होती है। सामान्यत: ऐसे ही माध्यमों से लोगों की मनोभूमि विकसित होती है। इसके अतिरिक्त भारतीय तत्व वेत्ताओं ने मनुष्य की अन्त:भूमि को श्रेष्ठता की दिशा में विकसिम करने के लिए कुछ ऐसे सूक्ष्म उपचारों का भी आविष्कार किया है जिनका प्रभाव शरीर तथा मन पर ही नहीं सूक्ष्म अन्त:करण पर भी पड़ता है और उसके प्रभाव से मनुष्य को गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से समुन्नत स्तर की ओर उठने में सहायता मिलती है। इसी आध्यात्मिक उपचार का नाम ‘संस्कार’ है। जिसे मन्त्रोचारण द्वारा यज्ञ की साक्षी में कर्मकाण्ड परक क्रिया द्वारा सम्पन्न किया जाता है।

    भारतीय धर्म के अनुसार संस्कार 16 प्रकार के हैं जिन्हें ‘षोडश संस्कार’ कहते हैं। माता के गर्भ में आने के दिन से लेकर मृत्यु तक की अवधि में समय-समय पर प्रत्येक भारतीय धर्मावलम्बी को 16 बार संस्कारित करके एक प्रकार का आध्यात्मिक रसायन बनाया जाता था। फलस्वरूप मनुष्य शरीर में रहते हुए भी उसके आत्मा देवताओं के स्तर की बनती थी। यहां के निवासी भूसुर (वृथ्वी के देवता) होत थे एवं उनके निवास की यह पुण्य भूमि ‘स्वार्गादपि गरियसी’ समझाी जाती थी। संस्कारों में जो विधि विधान है उनका मनोवैज्ञानिक प्रभाव मनुष्य को सन्मार्गगामी होने के उपयुक्त बनाता है।

    भारतीय संस्कृति में 16 प्रकार के संस्कारों का उल्लेख मिलता है। वर्तमान समय में यह संस्कार परम्परा एक तरह से लुप्त ही हो गयी थी जिसे गायत्री परिवार के संस्थापक वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं.श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने पुनर्जीवित किया। वर्तमान परिवेश के अनुकूल उसे नया स्वरूप देते हुए उसकी वर्तमान में संख्या 12 है जिसमें दो संस्कारों को व्यक्ति निर्माण एवं परिवार निर्माण के शिक्षण के ध्येय से नया जोड़ा गया है। ये संस्कार हैं-

1.    पुंसवन संस्कार- गर्भ स्थापना के दो महीने बाद तीसरे माह में गर्भिणी माता को संस्कार वास्तव में गर्भस्थ शिशु का प्रथम संस्कार होता है।

2.    नामकरण संस्कार- बालक के जन्म के दसवें दिन किया जाता है। अपने नाम का बालक पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है अत: गौरवशाली, गुणवाचक नाम रखने की परम्परा है।

3.    अन्नप्राशन संस्कार- बालक जब चार-पांच महिने के बाद ऊपर का आहार लेने लगे तब अन्न प्राशन संस्कार किया जाता है।

4.    मुण्डन (चुड़ाकर्म) संस्कार- जन्म से प्रथम वर्ष पूरा होने तक की अवधि में प्रथम बार सिर के बाल उतारे जाते हैं यह मुण्डन संस्कार है।

5.    विद्यारम्भ संस्कार- विद्याध्ययन करना आरम्भ करने से पूर्व जब बालक को पाठशाला जाने की तैयारी हो जाए तो विद्यारम्भ संस्कार।

6.    दीक्षा व यज्ञोपवीत संस्कार- किशोरावस्था में जब शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक परिवर्तन तीव्र होते हैं, यौवन शक्ति का उद्भव होता है, तब उपनयन के साथ दीक्षा संस्कार का अंकुश लगाया जाता है।

7.    विवाह संस्कार- विवाह संस्कार द्वारा दो अपूर्ण व्यक्तित्व अपनी विशेषताओं से परस्पर दूसरे के सहयोग से पूर्णता को प्राप्त करते हैं।

8.    वानप्रस्थ संस्कार- पचास वर्ष की आयु के उपरान्त शेष जीवन समाज सेवा हेतु समर्पित करने व समाज का ऋण चुकाने हेतु तत्पर होने के लिए वानप्रस्थ संस्कार किया जाता है।

9.    अन्त्येष्टि संस्कार- मृत्यु के उपरान्त पार्थिव शरीर को यज्ञ में विसर्जित कर जीवात्मा की सम्मानपूर्वक विदाई का संस्कार।

10.    मरणोत्तर संस्कार- अन्त्येष्टि संस्कार के पश्चात् तेरहवें दिन शोक मोह की पूर्णाहुति का विधिवत् आयोजन किया जाता है। मृतात्मा का अगला जीवन अपेक्षाकृत अधिक सुसंस्कारवान् बने यह कामना की जाती है। इसे श्रद्धा-तर्पण भी  कहते हैं।

11.    जन्म दिवसोत्सव संस्कार- जन्म दिन पर मनुष्य जीवन के लक्ष्य, उद्देश्य एवं उसके गौरव का बोध कराने एवं उत्कर्ष की दिशा प्रेरणा देने हेतु प्रतिवर्ष जन्मदिवस संस्कार।

12.    विवाह दिवसोत्सव संस्कार- वैवाहिक उत्तरदायित्वों और कर्तव्यों को निबाहने की प्रेरणा देने हेतु विवाहित दम्पत्तियों का प्रतिवर्ष विवाह दिवस संस्कार।

    उपरोक्त संस्कारों की श्रृंखला में वर्तमान में आपकी आयु दीक्षा यज्ञोपवित संस्कार के योग्य है।

    भारतीय संस्कृति की एक विशिष्टता है गुरु शिष्य परम्परा। व्यक्तित्व को ऊँचाईयों तक ले जाने हेतु एक अवलम्बन की आवश्यकता होती है। भौतिक जीवन में अनुशासन एवं मर्यादा सिखाने एवं आत्मिक क्षेत्र में उन्नति के शिखर पर जिस सशक्त अवलम्बन द्वारा साधारण मानव अपने को पहुँचाने में सफल हो पाता है उसी का नाम गुरु है। स्वामी विवेकानन्द व स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी दयानन्द सरस्वती व स्वामी बीरजानन्द, चन्द्रगुप्त व चाणक्य, छत्रपति शिवाजी व समर्थ गुरु रामदास का उदाहरण इस बात का प्रमाण है, कि अदना सा व्यक्ति गुरु को पाकर शक्ति व तप प्राण का बल पाकर व अपनी श्रद्धा व समर्पण का खाद पानी देकर अपनी चेतना को अपने व्यक्तित्व को किस ऊँचाई तक पहुँचा सकता है। (गुरु तत्व को समझाएं)।

    दीक्षा संस्कार की आवश्यकता युवावस्था में ही इसलिए आवश्यक माना गया है क्योंकि तरुणावस्था में शरीर व मन में नई शक्तियों का उफान आता है। यदि शक्तियों पर अनुशासन व मर्यादाओं का अंकुश न लगाया जाय तो शक्ति के अधीन उन्मत्त होकर युवावस्था में व्यक्ति अपना नुकसान कर बैठता है। उसे जीवन की दिशा अपनी शक्ति की पहचान उसकी गरिमा एवं गम्भीरता तथा उसका नीयोजन इस सब विषयों में मार्गदर्शन चाहिए। गुरु शक्ति का पुञ्ज, इस विषय का मर्मज्ञ होता है वह व्यक्ति नहीं होता है। गुरु चिकित्सक की भांति शिवम् के चित्त एवं मन: क्षेत्र में जमे हुए जन्म-जन्मान्तर के कुसंस्कारों का उच्छेदन करता है, उसके प्रारब्ध को संवारता है। दीक्षा से शिष्य द्विज बन जाता है। यहाँ गुरु का अर्थ आध्यात्मिक गुरु का है।

दीक्षा क्या है? (कर्मकाण्ड भास्कर पृष्ठ क्र.198 देखें)

    (प्रशिक्षक ‘दीक्षा’ विषय को समझाते समय स्पष्ट रूप से दीक्षा ले लेने की बात दबाव डालने हुए न कहें। भावनात्मक तरीके से गुरु के चमत्कारों व महिमा की जानकारी दें। वे दीक्षा हेतु प्रेरित तो हों किन्तु दबाव महसूस न करें। पञ्च कुण्डीय यज्ञ में दीक्षा संस्कार सम्पन्न होने की सूचना देते हुए यह स्पष्ट कर दें कि यहां गायत्री मन्त्र की दीक्षा दी जाएगी। संक्षेप में परमपूज्य गुरुदेव के व्यक्तित्व एवं कत्र्तृत्व पर प्रकाश डालें।)


सन्दर्भ पुस्तकें:-

1.    विचारों की अपार और अद्भुत शक्ति।

2.    आत्मिक उन्नति हेतु अवलम्बन की आवश्यकता।

3.    षोडश संस्कार विवेचन- बाङमय 33

4.    कर्मकाण्ड भास्कर।


संस्कार निर्माण के उपाय
    भक्ति एवं समर्पण बुद्धि के द्वारा जब साधक अपने कुसंस्कारों से मुक्ति हेतु अपने ईष्ट या गुरु को आते भाव से पुकारता है और उसके निमित्त तप करता है, अपने कुविचारों और गलत आदतों से लड़ता है, अपने आप से संघर्ष करता है, तो कुसंस्कारों का शमन होता है, श्रेष्ठ संस्कारों की स्थापना होती है।


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