‘‘विज्ञान
जगत् के लिए आवश्यक है कर्मशील अध्यात्म। वैज्ञानिकों के लिए
निहायत जरूरी इस अध्यात्म को मैं वैज्ञानिक अध्यात्म कहता हूँ।
बीते युगों के अध्यात्म ने संसार को छोड़ने की बात की और कुछ
कर्मकाण्डों तक सिमटा रहा। लेकिन आज के युग में विज्ञान,
वैज्ञानिकता एवं वैज्ञानिकों के भारत देश के लिए ऐसा अध्यात्म
आवश्यक है, जिसमें वैज्ञानिक कर्मों का अविराम पराक्रम हो, साथ ही
हो आध्यात्मिकता की पावन संवेदना। जो विज्ञान को, वैज्ञानिकों के
जीवन को सभी कालिख, कलुष और क्रूरताओं से मुक्त रखे।’’ अपने इस कथन के साथ डॉ.
होमी जहाँगीर भाभा ने उस हाल में बैठे हुए वैज्ञानिकों के
समूह की ओर देखा और फिर नजर डाली पीछे की ओर लगे एक बड़े से
आकर्षक चित्र पर। यह चित्र था महाभारत की युद्धभूमि में अर्जुन
की कायरता को देख उसे धिक्कारते हुए स्वयं चक्र धारण करने वाले
महायोद्धा महान् दार्शनिक श्रीकृष्ण का।
यह चित्र सचमुच ही बहुत आकर्षक था। इसमें भगवान् श्रीकृष्ण योद्धावेश में थे। उनकी उंगली में प्रज्वलित चक्र था। उनकी त्यौरियाँ
तनी हुई थी, परन्तु होठों पर शान्त मुस्कान थी। भीत अर्जुन उनके
पाँवों को पकड़े हुए था। उनके इस रूप को देखकर कौरवों की सेना
भी आतंकित और सहमी खड़ी थी। इस चित्र को निहारते हुए डॉ. भाभा बोले- सच कहूँ तो यह चित्र है हमारे परमाणु ऊर्जा सम्पन्न समर्थ राष्ट्र का। पं. नेहरू कहते हैं कि गांधी जी हमारे राष्ट्रपिता हैं। मैं भी महात्मा जी का बहुत आदर करता हूँ; परन्तु इसी के साथ मैं यह भी कहता हूँ, श्रीकृष्ण भारत राष्ट्र के आदिपिता हैं। वे पिताओं के पिता परमपिता हैं। उनके हाथों में प्रज्वलित महाचक्र ऐसा लग रहा है जैसे कि उन्होंने इस चक्र के रूप में प्रचण्ड परमाणु ऊर्जा को धारण किया हो। उनकी तनी हुई त्यौरियाँ
आक्रान्ता शत्रुओं के लिए साहसिक प्रत्युत्तर है, जिसे देख शत्रु
भयभीत एवं आतंकित है। साथ ही उनके होठों की मुस्कान इस सत्य
का आश्वासन है कि हम शान्ति के पक्षधर हैं। और अर्जुन के रूप
में वह देश की कायरता और क्लीवता को अपने पाँवों की ठोकरों से प्रचण्ड पौरूष एवं महापराक्रम में रूपान्तरित कर रहे हैं।
भगवान् श्रीकृष्ण के चित्र की इस व्याख्या ने वैज्ञानिकों के
समूह को रोमांचित कर दिया। उन्हें पुनः प्रेरित करते हुए डॉ. भाभा ने कहा- श्रीकृष्ण इसलिए मुझे प्रेरित करते हैं, क्योंकि वह महान् अध्यात्मवेत्ता दार्शनिक होने के बावजूद महाशस्त्र प्रज्वलित चक्र थामे हैं और सतत्
कर्मशील हैं। मेरे विचार से तो वह जीवन विज्ञान के महान्
वैज्ञानिक हैं। मैं तो कहता हूँ कि भगवद्गीता को राष्ट्रीय पुस्तक
एवं वैज्ञानिक अध्यात्म को राष्ट्रीय धर्म के रूप में अपनाया
जाना चाहिए। एक ऐसा धर्म जिसमें किसी धार्मिक
संकीर्णताओं का कोई स्थान नहीं हो और जिसमें सभी धर्म समान
रूप से समाविष्ट हों। देश की स्वाधीनता के बाद गठित हुए परमाणु
ऊर्जा आयोग के पहले अध्यक्ष के रूप में वह वैज्ञानिकों के समूह
को सम्बोधित कर रहे थे। उनका विषय था- वैज्ञानिकों का राष्ट्र
धर्म। वैज्ञानिकों के इस समूह में नाभिकीय वैज्ञानिकों के अलावा
अन्य विधाओं के वैज्ञानिक भी थे। इनमें कई तो ऐसे थे जिनका
क्षेत्र परमाणु विधा से एकदम अलग था। जो केवल डॉ. होमी भाभा को सुनने के लिए यहाँ आग्रहपूर्वक आए थे।
स्वाधीन भारत देश के वैज्ञानिकों के लिए डॉ. होमी जहाँगीर भाभा प्रेरणा पुञ्ज थे। बचपन से ही प्रतिभा के धनी डॉ.
भाभा के मस्तिष्क में विचारों के तीव्र प्रवाह के कारण नींद
कम आती थी। इस पर माता- पिता ने उन्हें जब चिकित्सकों को दिखाया
तो उन्होंने कहा, यह इनके अत्यधिक प्रतिभाशील
होने के कारण है। तीक्ष्ण प्रतिभा के कारण उन्होंने अपने अध्ययन
को भी तीव्रता से पूरा किया। उनमें जहाँ एक ओर चमत्कारी
बौद्धिक प्रतिभा थी, वहीं दूसरी ओर था अटूट देश प्रेम और साथ ही
चुनौतियों को स्वीकारने की साहसिक क्षमता। यही वजह थी कि रदरफोर्ड, डिराक एवं नील्स
बोर जैसे महान् वैज्ञानिकों के साथ काम करने, उनकी सराहना पाने
और विदेशों में अनेकों आकर्षक प्रस्तावों के बावजूद उन्होंने देश
की वैज्ञानिक प्रगति के लिए काम करने की ठानी। टाटा एवं पं. जवाहरलाल नेहरू के सहयोग से उन्होंने स्वतंत्र देश में परमाणु कार्यक्रम की नींव रखी। ट्राम्बे परियोजना, तारापुर अणुशक्ति केन्द्र, सायरस परियोजना, जेरिलीना परियोजना उन्हीं की देन रही। जिनेवा में ‘एटॉमिक पावर फॉर पीस’ (अणुशक्ति शान्ति के लिए) की द्वितीय संगोष्ठी के अवसर पर प्रसिद्ध वैज्ञानिक फ्रांसिस
पैरा ने जब यह कहा- संसार के अल्प विकसित एवं गरीब देशों को
परमाणु शक्ति के बारे में सोचने की बजाय अपने औद्योगिक विकास पर
ध्यान देना चाहिए।
तब वहाँ भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे डॉ. भाभा से फ्रांसिस पैरा के इस बड़बोलेपन पर चुप न रहा गया। उन्होंने कहा कि ‘‘अन्यों
की तो मैं नहीं कहता पर मुझे और मेरे देश को आपकी चुनौती
स्वीकार है। मेरा देश विश्व की औद्योगिक शक्ति भी बनेगा और
परमाणु शक्ति भी।’’
उनके इस कथन की सत्यता विश्व में आज सभी अनुभव कर रहे हैं।
परमाणु परियोजनाओं के भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में भी उन्होंने
विलक्षण अनुसन्धान किए। उन्होंने ही मीसॉन कण की खोज की। ‘‘कास्केड थ्योरी ऑफ इलेक्ट्रॉन शावर्स’’ का प्रतिपादन भी उन्होंने ही किया। उनके द्वारा लिखी गयी क्वांटम थ्योरी, एलीमेण्ट्री फिजिकल पार्टिकल्स व कॉस्मिक
रेडिएशन की पुस्तकें अपने समय में वैज्ञानिकों के द्वारा
प्रशंसित रही। यह सत्य भी सम्भवतः कम ही लोग जानते हों कि
परमाणु शक्ति के शान्तिपूर्ण उपयोग करने की कल्पना करने वालों
में वह विश्व में प्रथम अग्रणी वैज्ञानिक थे।
इन वैज्ञानिक विशिष्टताओं के अलावा संगीत के वह मर्मज्ञ
कलाकार थे। इसी के साथ थी उनमें गहन आध्यात्मिक अभिरुचि।
आध्यात्मिक साधनाओं एवं वैज्ञानिक अनुसन्धानों की तीव्र त्वरा की
वजह से ही उन्होंने विवाह नहीं किया। वह कहते थे कि रचनात्मकता
एवं साधना ही मेरी जीवन संगिनी है। उनके अपने समृद्ध पुस्तकालय
में जितनी विज्ञान की पुस्तकें थी उतनी ही अध्यात्म की पुस्तकें
भी थी। हँसते हुए इसे वे विज्ञान व अध्यात्म का समन्वय कहते
थे। पारसी होने के कारण जेन्द अवेस्ता उनका धार्मिक ग्रन्थ था। लेकिन उनकी सबसे प्रिय पुस्तक श्रीमद्भगवद्गीता थी। वह कहते थे कि गीता धार्मिक नहीं आध्यात्मिक पुस्तक है। अपने एकान्त के क्षणों में वह तारवाद्य पर इसके श्लोक
गाया करते थे। प्रातः जागरण के समय एवं रात्रि शयन के समय
ध्यान करना इनका नियमित क्रम था। वह अपने सहयोगियों को भी सीख
देते थे कि वैज्ञानिकों को नियमित ध्यान करना चाहिए। इससे मेधाशक्ति का विकास होता है, अन्तर्प्रज्ञा
विकसित होती है। अनुसन्धान कार्य के लिए जिस प्रखर प्रतिभा,
असामान्य बौद्धिक ऊर्जा एवं सर्वथा मौलिक सोच की आवश्यकता है वह
ध्यान के द्वार से सरलता से प्रवेश करती है।
उन्हें जानने वाले और उन्हें सुनने वाले सभी को डॉ.
होमी भाभा की इन उपलब्धियों एवं विशेषताओं के बारे में पता
था। तभी तो प्रत्येक व्यक्ति उनकी बात को मन्त्र की तरह ग्रहण
करता था। इस सम्मेलन में भी उस दिन उनकी वाणी ने कितने ही
वैज्ञानिकों की दिशा बदली, उनमें राष्ट्रप्रेम जाग्रत् किया। डॉ.
होमी भाभा की जीवन शैली ने उन्हें सम्पूर्ण निःस्पृह योगी बना
दिया था। बाद के वर्षों में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर
शास्त्री ने उन्हें केबिनेट मन्त्री पद देने का प्रस्ताव रखा तो उन्होंने अतिविनम्रता से भगवान् श्रीकृष्ण की वाणी का स्मरण कराया- श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्व नुष्ठितात्। स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥ ३/३५॥ ‘स्वयं के कर्त्तव्य का पालन कमतर होते हुए भी दूसरे के कर्त्तव्य से श्रेष्ठ है। अपने कर्त्तव्य का पालन करते हुए मरना भी कल्याणकारक है। लेकिन दूसरे का कर्त्तव्य तो भय देने वाला है।’ उनकी इस आध्यात्मिक निःस्पृहता के सामने शास्त्री जी जैसे त्याग मूर्त भी नतमस्तक हो गए। अपनी मृत्यु से एक सप्ताह पूर्व उन्होंने अपने सहयोगियों से कहा था कि देश के धार्मिक
जगत् के लोग जिस दिन विज्ञान व वैज्ञानिक अध्यात्म के महत्त्व
को पहचान लेंगे उस दिन अपना राष्ट्र विश्व के शिखर पर होगा