‘‘शिक्षा और सामाजिक क्षेत्र में विज्ञान व अध्यात्म का समान व समन्वित उपयोग होगा तभी शिक्षा औचित्यपूर्ण होगी और समाज प्रगतिशील बनेगा।’’ यह बोलते हुए डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन्
की आँखों में ऋषियों का तेज दीप्त हो उठा। वह अपनी प्रज्ञा की
पावनता और प्रखरता में भविष्य के भारत की उजली तकदीर का
समाधान निहार रहे थे। यह अवसर खास था। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय
अपनी स्थापना के पच्चीस वर्ष पूरे कर चुका था। आज उसकी रजत
जयन्ती मनायी जा रही थी। २१ जनवरी १९४२
की यह शुभ तिथि स्वयं में कई अलौकिक रंग समेटे हुए थी।
विश्वविद्यालय के रजत जयन्ती समारोह के विशाल मंच पर
विश्वविद्यालय के संस्थापक महामना पं. मदन मोहन मालवीय स्वयं आसीन थे। उनके पार्श्व में बैठे थे महात्मा गान्धी- भारतवासियों के प्यारे बापू। जिनके हाथों में इस समय भारतीय स्वाधीनता महासंग्राम की बागडोर थी। जो कहीं अपने अन्तर्मन की गहराई में भारत छोड़ो आन्दोलन की योजना बुन रहे थे।
इसी महामंच पर विराजमान थे डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, पं.
जवाहरलाल नेहरू और अनेकों अन्य मूर्धन्य मनस्वी। राष्ट्रीय-
अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिभाओं की प्रखर चमक इस मंच पर और समूचे
समारोह में सब ओर दिखाई दे रही थी। कार्यक्रम का अध्यक्षीय
संचालन करने का दायित्व डॉ. राधाकृष्णन् संभाल रहे थे। वही इस समय बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति थे। हालांकि महामना मालवीय जी के आग्रह व अनुरोध पर वह इस विश्वविद्यालय से सन् १९२७ ई. से जुड़े थे। महामना ने उन्हें दर्शनशास्त्र विभाग में ऑनरेरी प्रोफेसर बनाने के साथ विश्वविद्यालय की सीनेट का सदस्य भी बनाया था। इसके पहले वह सन् १९२५ ई.
में कलकत्ता विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर थे। इसी
के प्रतिनिधि के तौर पर हार्वर्ड विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित इन्टरनेशनल कांफ्रेंस ऑफ फिलॉसफी में शामिल हुए और वैश्विक रूप से सराहे गए।
बाद के वर्षों में ऑक्सफोर्ड
विश्वविद्यालय ने कई रूपों में उनकी सेवाएँ ली ओर सम्मानित
किया। उनकी अटूट देशभक्ति के विचारों से न सहमत होते हुए भी
शिक्षा सेवाओं के लिए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘नाइट हुड’ (सर) का उच्च सम्मान दिया था। सन् १९३१ से १९३६ ई. तक वह अन्नामलाई
विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। लेकिन इसी के साथ महामना का आग्रह
बना रहा कि वह स्थाई तौर पर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय आ
जाएँ। महामना का आग्रह जिसे वह दैवी आदेश से कम नहीं मानते थे-
स्वीकार शिरोधार्य कर २४ सितम्बर १९३९ को इस विश्वविद्यालय के कुलपति का पदभार
ग्रहण किया। तब से लेकर निरन्तर वह मालवीय जी के अभिन्न सहयोगी
थे। मालवीय जी से उनकी निरन्तर चर्चा व विचार विमर्श होता रहता
था कि देश के शिक्षा व सामाजिक परिदृश्य में किस भांति क्रान्तिकारी परिवर्तन लाए जायें।
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् को अब तक पूर्व एवं पश्चिम के बीच सेतु के रूप में प्रतिष्ठा मिल चुकी थी। उनके द्वारा रचित इण्डियन फिलॉसफी, आइडियलिस्टिक व्यू ऑफ लाइफ, द हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ, इस्टर्न रिलीजन एण्ड वेस्टर्न थॉट, रिलीजन एण्ड सोसायटी एवं रिकवरी ऑफ फेथ
आदि ग्रन्थ भारत सहित पश्चिमी देशों में समान रूप से लोकप्रिय
थे। शिक्षण कार्य में उनकी अभिरुचि इतनी गहरी थी कि
विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में सभी प्रशासनिक दायित्व निभाने
के बावजूद वह नियमित निरन्तर दर्शनशास्त्र विभाग में दर्शन
शास्त्र की कक्षाएँ लेते थे। उनकी ये कक्षाएँ इतनी रुचिकर होती
थी कि इनमें दर्शन के विद्यार्थियों के अलावा विज्ञान, चिकित्सा, इंजीनियरिंग आदि अन्य विषयों के विद्यार्थी भी भागे- भागे आते थे। अपनी इन्हीं कक्षाओं में एक दिन उन्होंने कहा था कि ‘दर्शन की क्रियाशीलता विज्ञान है और विज्ञान की विचारशीलता दर्शन है।’
वह पूर्वी अध्यात्म एवं पश्चिमी विज्ञान के समन्वय के प्रबल
पक्षधर थे। उनका कहना था कि विज्ञान व अध्यात्म के शिक्षा में
समायोजन से शिक्षा व शिक्षण की समूची प्रक्रिया अधिक औचित्यपूर्ण व उद्देश्य निष्ठ होगी। वैज्ञानिक जीवन दृष्टि शिक्षक, शिक्षण व विद्यार्थी को जिज्ञासु बनाएगी, प्रश्र करना सिखाएगी,
प्रयोगों में पारंगत करेगी। उसमें सत्य को स्वीकारने का साहस
होगा। इसी तरह आध्यात्मिक संवेदना के इसमें घुलने से शिक्षक,
शिक्षार्थी एवं शिक्षण की सम्पूर्ण प्रक्रिया में संवेदनशील उदारता
एवं उत्तरदायित्व निभाने के गुणों का विकास होगा। आध्यात्मिकता
से उपजे सद्गुण व्यक्तित्व को समस्त क्षुद्रताओं से मुक्त करेंगे।
उसमें सुख बांटने एवं दुःख बंटाने की जीवन शैली विकसित होगी।
इसी तरह वैज्ञानिक अध्यात्म का सामाजिक क्षेत्र में उपयोग समाज
को परम्परावादी बनाने की बजाय प्रगतिशील बनाएगा। प्रायः देखा जाता
है कि परम्पराएँ, रूढ़ियाँ, रीति- रिवाज समाज से विचारशीलता, चिन्तन की अभिवृत्ति छीन लेते हैं। वैज्ञानिक जीवन दृष्टि से यह कुहांसा सदा के लिए दूर हो सकेगा। इसके द्वारा समाज अपने अतीत का सही पुनर्मूल्यांकन
करने के साथ भविष्य की ओर देख सकेगा उसे संवार सकेगा।
आध्यात्मिक सम्वेदनाएँ उसमें पारस्परिक सौहार्द्र, सौमनस्य, एक- दूसरे
के सुख- दुःख में भागीदारी निभाने के सद्गुण विकसित करेंगे। डॉ. राधाकृष्णन् के इन विचारों से उनकी कक्षाओं के सभी विद्यार्थी परिचित थे और प्रेरित भी। वह सदा इस बात से गर्वान्वित होते थे कि वे एक ऐसे विश्वविद्यालय के छात्र हैं जहाँ के कुलपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् हैं।
आज वे सभी समवेत रूप से अपने कुलपति महोदय का अध्यक्षीय
उद्बोधन सुन रहे थे। इन्हें सुनने से पूर्व वह महात्मा गांधी, महामना मालवीय, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद एवं पं. नेहरू को सुन चुके थे। अभी तो उनके कुलपति बोल रहे थे- हमारा विश्वास है कि महात्मा गांधी
के मार्गदर्शन में हमारे राष्ट्रीय नेता एवं देशवासी मिलकर
जल्दी ही स्वाधीनता प्राप्त कर लेंगे। मैं देख रहा हूँ कि
सम्भवतः इसमें पाँच- छः साल से अधिक समय न लगे। ऐसे में आज से,
अभी से, इसी क्षण से हमारे विश्वविद्यालय के बल्कि मैं तो कहूँगा
पूरे देश के शिक्षकों, छात्र- छात्राओं सहित समस्त बुद्धिजीवियों
को भारत के भविष्य को उज्ज्वल बनाने वाली विचार पद्धति की
संरचना का कार्य प्रारम्भ कर देना चाहिए। हम भगवान् शिव जो समस्त
ज्ञान- विज्ञान के आदिगुरु हैं और माता अन्नपूर्णा जो कि सर्व
समृद्धि की अधिष्ठात्री हैं- उनकी नगरी काशी में बैठे हैं। वैदिक
ऋषियों एवं देवों के स्वर कभी यहीं गूंजे
थे। भगवान् बुद्ध ने यहीं अपना सारनाथ संदेश सुनाया था। भारत
भूमि के हजारों सन्तों एवं आचार्यों ने यहीं से प्रेरित होकर
अपने विचारों को प्रवर्तित किया है।
मेरा आपसे भावपूर्ण अनुरोध है कि क्यों न हम सब महामना एवं
महात्मा जी के संरक्षण में देश के शैक्षणिक एवं सामाजिक क्षेत्र
में सम्पूर्ण क्रान्ति के लिए वैज्ञानिक अध्यात्म के अनगिन
क्रान्ति दीप जलाएँ। शिक्षा का विषय कोई भी हो, पर उसमें
वैज्ञानिक जीवन दृष्टि होनी ही चाहिए। उसमें स्पन्दित होनी चाहिए
आध्यात्मिक सम्वेदना। उसका उद्देश्य होना चाहिए वैज्ञानिक अध्यात्म
पर आधारित सफल एवं समग्र व्यक्तित्व का निर्माण। इसी तरह सामाजिक
परिदृश्य में वैज्ञानिक अध्यात्म की ऐसी क्रान्ति किरणें फूटे
जिनसे मिट जाए जातीयता, क्षेत्रीयता, साम्प्रदायिकता का अंधियारा।
बचे तो केवल बस भारतीयता जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण और आध्यात्मिक
पावनता से ओत- प्रोत हो। जिसमें क्षुद्र आग्रहों से उपजे वैमनस्य
के कलुष का कोई कीचड़ न हो, जो व्यापक राष्ट्रीय व मानवीय हितों
के लिए निरन्तर अनुसन्धान के लिए संकल्पित हों। डॉ. राधाकृष्णन के द्वारा उच्चारित ये अग्रि
बीज सुनने वाले के मनों में क्रान्ति की ज्वालाएँ भड़काने लगे।
वहाँ उपस्थित वैज्ञानिक वर्ग यह सोचने लगा कि जीवन के अन्य
क्षेत्रों की भांति विज्ञान जगत् के लिए भी वैज्ञानिक अध्यात्म आवश्यक है।