सेवा साधना

आत्मबल

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        आत्मबल का अर्थ यह है कि जिन विचारों को हम सही मानते हैं उन सही मानने वाले कामों को हम करने की हिम्मत इकट्ठा करें, त्याग इकट्ठा करें। इसके लिए पुरुषार्थ करें। इसके लिए मेहनत करें और उसके रास्ते पर कोई विरोध आता है तो इसको भी बरदाश्त करें। इस तरह की आदमी के भीतर विचारों को कार्य रूप में परिणित करने की क्षमता उत्पन्न हो जाये तो समझना चाहिए कि जो बीज बोया गया था उसका पत्ता और पल्लव पैदा होना शुरू हो गया बीज बोया जाय और उसका पत्ता पैदा ही न हो, अंकुर पैदा ही न हो, बीज बोने न बोने से क्या फर्क पड़ी कथा हमने सुनी, ज्ञान हमने सुना, पुस्तकें हमने पढ़ी लेकिन हमारे मन में काम करने की ऐसी उमंगें ही नहीं उठीं, तो ये मानना चाहिए कि हमने बीज बोया और बीज बोने के बाद पैदा नहीं हुआ, उगा नहीं फला नहीं, फूला नहीं, फला- फूला नहीं तो बोने का लाभ क्या रह गया? हमको जो अच्छे विचार और श्रेष्ठ विचार और जीवन को ऊँचा उठाने वाले विचार लोगों में विस्तृत करने चाहिए और फैलाने चाहिए जैसे कि अभी- अभी कहा गया ज्ञानयज्ञ के माध्यम से जन साधारण को विचार करने की महती आवश्यकता पर बल देना चाहिए। और ये उसे सिखाया जाना चाहिए कि जीवन श्रेष्ठ तरीके से कैसे जिया जा सकता है, और समाज को सुव्यवस्थित कैसे बनाया जा सकता है? समाज अर्थात भगवान। भगवान की पूजा कैसे की जा सकती है इसका एक समग्र शिक्षण करने के लिए ज्ञान- यज्ञ किया गया था। ज्ञान- यज्ञ बीज बोने के बराबर है। वह बीज पैदा हुआ कि नहीं, उसकी परीक्षा, उसकी परीक्षा ये है और हमारा प्रयत्न सफल हुआ कि नही उसकी परीक्षा, उसकी परीक्षा यह है कि आदमी को उसके विचारों को कार्यान्वित करने के लिए सामर्थ्य पैदा हुई कि नहीं। सामर्थ्य पैदा होने का अर्थ ही उस ज्ञान यज्ञ की सफलता है।

समय का सुनियोजन   

        ज्ञानयज्ञ का दूसरा चरण रचनात्मक कार्यक्रमों के रूप में और सेवा- साधना के रूप में प्रस्तुत किया गया है। जिन लोगों ने उन विचारों पर निष्ठा उत्पन्न कर लिया और ये ख्याल कर लिया है कि ठीक है। २४ घंटे हमारे लिए ही नहीं है और हमारी जिन्दगी अपना पेट पालने के लिए ही नहीं है हम बच्चों के हम गुलाम नहीं हैं। बल्कि समाज के लिए भी हमारा फर्ज हो जाता है, और वो समय इसके लिए आगे निकालना चाहिए। ज्ञान यज्ञ के लिए एक घंटा निकालने के लिए बात कही थी वो प्राथमिक पाठ था। मनुष्य को ज्यादा समय देना चाहिए। ८ घंटा आदमी कमाने के लिए खर्च करें। ठीक है मुनासिब है, पेट पालने के लिए बच्चों को पालने के लिए ८ घंटा हर आदमी ठीक तरीके से करें। विदेशों में ८ घण्टे ही दुकानें खुलती हैं, ८ घंटे से ज्यादा कोई काम नहीं करता। बाजार बिल्कुल आठ घंटे से एक मिनट ज्यादा नहीं खुलता।

        किसी मजदूर को दूसरे आदमी से आठ घंटे से ज्यादा काम करने की इजाजत नहीं है। क्योंकि अगर आदमी ज्यादा काम करेगा तो इसके दिमागी और शारीरिक स्थिति सब खराब हो जायेंगी और आदमी किसी काम का नहीं बचेगा। आठ घंटे आदमी जीता है कमाने के लिए, रोटी कमाये बिल्कुल ठीक बिल्कुल सही, आठ घंटे में इतना काम हो सकता है। अगर आदमी मुस्तैदी से काम करें तो मैं क्या कह सकता हूँ। हिन्दुस्तान का किसान, हिन्दुस्तान का मजदूर जितना काम आठ घंटे में करता है। अमेरिकन मजदूर ५ गुना काम ज्यादा करता है, लीजिए ये कमीशन की रिपोर्ट है। मुस्तैदी से करता है। दिलचस्पी से करता है। मेहनत से करता है। आठ घंटे काम करें तो शिक्षित व्यक्ति १२ घंटे और १६ घंटे काम करने की अपेक्षा ज्यादा काम कर सकता है। छः घण्टे सात घण्टे काफी होना चाहिए। आठ घंटे मुस्तैदी के साथ रोटी कमाने के लिए काम करे, सही है। और अगर आठ घंटे हमें सोने और स्नान वगैरह करने लिए नित्य कर्म में खर्च करें। सोने के लिए छः- सात घण्टे काफी होना चाहिए और एक घंटे में नहाया धोया जा सकता है। एक घण्टे  लेट्रीन वगैरह जाया जा सकता है।

        आठ घंटे शरीर के लिए हो गये और आठ घंटा सोने के लिए और शरीर के लिए हो गये। अब इसके बाद में लगभग आठ घण्टे बच जाते हैं। आदमी के पास जो काम करते है जो रोजी रोटी कमाते है, गुजारा करते हुए भी आदमी लोक मंगल के लिए समाज के लिए बहुत काम कर सकता है। आठ घंटे इतने महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं। किसी को नौकरी छोड़ने की भी जरूरत नहीं। बाबाजी होने की भी जरूरत नहीं और कुछ भी करने की जरूरत नहीं। अपनी रोटी कमाता हुआ आदमी इतना काम कर सकता है जो पूरे एक आदमी के काम के बराबर होता है। आठ घंटे बाकी रह गये ना ।   

        आठ घंटे सोने के लिए और खाने के लिए और आठ घंटा, आठ घण्टा मजदूरी करने के लिए, १६ घंटे,  आठ घंटे बचते है चलिए आठ घंटे में से और निकाल डालिए चार घंटे मटर मस्ती के लिए मान लीजिए, यहाँ खड़े हो गये, वहाँ खड़े हो गये, तास खेल लिये बच्चों के लिए समान खरीद रहे है। इसी के चार घंटे और भी निकाल लीजिए। अब चार घंटे तो आदमी निकाल सकता है। कौन ऐसा है जो चार घण्टे नहीं निकाल सकता। इसका उपयोग कहाँ सिखा लोगों ने, समय की कीमत कहाँ सीखी लोगों ने, बस याद रख ली, हम यहाँ चल दिये, यहाँ बैठे, यहाँ पड़े, आदमी की आधी जिन्दगी तीन चौथाई जिन्दगी ऐसे ही कूड़े कबाड़ा की तरह खर्च हो जाती है।    

        आदमी अगर समय का उपयोग करना सीख लिया। आलस्य हीन जीवन सीखे और एक- एक मिनट का ठीक तरह से इस्तेमाल सीखे। तो हम लोग इतना काम कर सकते हैं। सौ गुना ज्यादा काम कर सकते हैं। जैसे अपने जिन्दगी में इतना साहित्य लिखा। संगठन किया। क्या किया क्या नहीं किया? लोग इसे कोई जादू कहते हैं और चमत्कार, देवता की सिद्धि कहते हैं, मैं कहता हूँ, कोई सिद्धि नहीं है। यह केवल इस बात की सिद्धि है कि समय को आदमी किस तरह से खींच सकता है और एक मिनट पर हावी कैसे हो सकता है और एक एक मिनट के लिए जो काम किया जाय उसको पूरी मनोयोग और दिलचस्पी के साथ करने के कारण वो थोड़े समय में कितना बेहतरीन किस्म का हो सकता है। बस यही चमत्कार हैं। यही मोटे सिद्धान्त है। मोटे सिद्धांतों को कार्यरत कर लीजिए। आप भी ऐसे ही चमत्कारी बन सकते हैं। जैसे मैंने विद्या प्राप्त कर ली, साहित्य लिख लिया, कोई भी बन सकता है। किसी के लिए न बंधन है न किसी के लिए रोक। चमत्कार हर आदमी के लिए है।

        आज आदमी ढीला, आलसी, निकम्मा, प्रमादी, यहाँ बैठा, वहाँ बैठा, यहाँ दिन काटा,  वहाँ वक्त काटा। ये जिंदगी को काटना बहुत ही बुरी बात है। इसीलिए मैं ये निवेदन कर रहा था कि मनुष्य के पास जो आठ घण्टे बच जाते हैं। उसमें से चार घण्टा मुस्तैदी के साथ समाज की सेवा के लिए लगा दें। और ५० करोड़ मनुष्य चार घण्टा समय लगाने लगे तो २५ करोड़ लोकसेवी पैदा हो जाते हैं, जो २५ करोड़ आदमी विषपान करने के लिए भी, ईश्वर की सेवा के लिए काफी हैं। चार घण्टे का वक्त किस तरीके से सेवा कार्य में खर्च किया जाय। इसका एक छोटा सा उदाहरण अपने सत सूत्री योजना में है। कोई न कोई आदमी ये कसम खा ले कि मुझे समाज की सेवा करनी ही है। अपने जीवात्मा को शुद्ध और पवित्र बनाने के लिए ईश्वर की पूजा और क्या हो सकती है। समाज की सेवा के अलावा मैं पूछता हूँ कि ईश्वर की सेवा और क्या हो सकती है? कोई सेवा नहीं। और ईश्वर का भजन क्या हो सकता है? आत्म चिंतन? आत्म चिन्तन और आत्मशोधन और आत्म- निर्माण और आत्म विकास के लिए आदमी एकांत में बैठता है। समझ में आ गया। लेकिन ईश्वर की खुशामद करना, और बहुत सारे आवरण लाद देना, क्या मतलब है? ईश्वर व्यक्ति नहीं है, ईश्वर वृत्ति है। और भावनाओं का परिपोषण करने के लिए आदमी को विश्व मानव की सेवा ही करनी पड़ेगी और कोई तरीका नहीं ।   

        विश्व मानव  की सेवा करने के लिए आदमी को कोई कार्यक्रम नियत निर्धारित करना चाहिए और ये देखना चाहिए कि हम समय का कितना अंश खर्च कर सकते हैं। पैसा आदमी के पास में न हो, तो कोई हर्ज की बात नहीं। आदमी के पास समय इतना कीमती है और भावनाएँ इतना कीमती है। कि इस समय और भावना का ही आदमी ठीक तरह से इस्तेमाल करना कर सके, समाज के लिए इतना अनुदान दिया जा सकता हैं, जो करोड़ों रुपयों के कीमत से ज्यादा है। अगर हम लोग चाहें और हम पढ़े लिखे लोग चाहें तो अपने इस बचे हुए सेवा वाले समय में से हम क्या दो घण्टे रात्रि पाठशाला नहीं चला सकते। हाँ हम चला सकते हैं। चला सकते हैं। दो घंटे हमारे पास फुरसत का नहीं है, हाँ है, हमारे पास, अगर हम चाहें तो उसे लगा सकते हैं।   

        एक आदमी एक रात्रि पाठशाला चलाने का समय दे, जिस तरीके से हमारी योजनाओं के अन्तर्गत केवल साक्षरता ही नहीं साक्षरता के साथ विचारक्रांति और ज्ञानयज्ञ और सही ढंग से सोचने के तरीके सिखाने के लिए यदि विद्यालय स्थापित किये जायें, उन विद्यालयों को अपने मोहल्ले में गली में, कस्बे में गाँव में इकट्ठा किया जा सकता है। और छोटी उमर से लेकर बड़े बूढ़ों तक के इस मामले में सब बच्चे है। आज कल हमारे यहाँ सब बच्चे लोग रहते है। एक भी जवान आदमी नहीं है। जवान आदमी होते तो मजा आ जाता। सब बिना पढ़े लिखे लोग रहते हैं एक भी पढ़ा आदमी नहीं। पढ़े आदमी रहे होते तो अकल नहीं होती क्या? जिन्दगी के बारे में कुछ समझ नहीं होती क्या, जिन्दगी के बारे में जरा भी समझ नहीं है इनको। बिना पढ़ा लिखा कौन कहेगा और जो आदमी ठीक से विचार करना नहीं जानते तो जिन्दगी को उत्कृष्ट जीवन जीने और समाज के प्रति अपने कर्तव्यों को पालन करने की भावना नहीं है उनको दुबारा आदमी कौन कहेगा। बच्चा ही कहा जायेगा। बिना पढ़े लिखे कहा जाएगा। बिना पढ़े और बच्चे, छोटे उमर के भी और बूढ़े उमर के भी, और बिना पढ़े भी पढ़े लिखे भी, दोनों एक ही किस्म के लोगों में आते हैं। और इन लोगों को शिक्षित बनाने के लिए विधावान बनाने के लिए हमें रात पाठशाला की सख्त जरूरत है और हर जगह रात्रि पाठशाला चलाई जानी जानी चाहिए। भले ही हमारे पाठशाला में पढ़ने के लिए न आये हमारी धर्मपत्नी तो शामिल हो ही सकती है। हमारे बच्चे तो शामिल हो ही सकते हैं।   

        हमारे माँ बाप और भाई बच्चे तो शामिल हो ही सकते हैं। उन्हें पढ़ाये सिखाये और समझायें। यही शान की बात है। और अपनी तो रात पाठशाला में भेजना इतना आकर्षक है, उसमें तो बिना पढ़े लिखे लोगों के लिए कथानकों को जोड़ दिया गया है, सरस बना दिया गया है, कि हम दो घण्टे क्या 4 घण्टे भी किस्से कहते रहें, कहानियाँ कहते रहें, और शिक्षा देते रहें और उनको बात बताते रहें, तो आदमी चल नहीं सकता है, हट नहीं सकता, टस से मस नहीं हो सकता। बैठा ही रहेगा और ऐसे कहेगा। दो घण्टे कम है, क्या मजेदार बात कह रहे थे, ऐसी कथा कहानियाँ हमको रोज सुनाइये ना, भाई साहब और ज्यादा कहिए। इस तरीके से एक काम ये है कि हमको रात्रि पाठशालाओं के माध्यम से प्रौढ़ पाठशालाओं के माध्यम से साक्षरता का प्रचार करना चाहिए और साक्षरता के साथ- साथ मनुष्य के जीवन की समस्याओं के समाधान करने वाली विचारणाओं को देने का प्रयत्न करना चाहिए।
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