एक और भी चीज सेवा के लिए आती और वह है ग्राम उद्योग और कुटीर उद्योग। हम ग्राम उद्योग और कुटीर उद्योगों की स्थापना करके अपने गाँव वालों के, नगर वालों के, बेकार आदमियों के आजीविका में खुशहाली में सहायक हो सकते हैं, और इस तरह के गृह उद्योग के चलाये जाने की आवश्यकता है, बहुत कुछ गुंजाइश है। शेखावाटी में दो उद्योग की मुझे याद आ गई, मारवाड़ी गृह उद्योग सोसायटी कलकत्ता में दो उद्योग को उस क्षेत्र में फैला दिया है, एक उद्योग है पापड़ तैयार करना, और दूसरा उद्योग है जनेऊ तैयार करना। पापड़ों का मारवाड़ी स्टाइल में खाये जाने का रिवाज है, कलकत्ता में मारवाड़ियों की संख्या भी ज्यादा है। पापड़ का एक गृह उद्योग ठीक ढंग से विकसित करके और सारे के सारे जिले को जिसमें विधवायें भी शामिल हैं, बच्चा भी शामिल है, कुँवारी कन्याएँ भी शामिल है, बुढ़िया भी शामिल है, हरेक को थोड़ा काम करने का मौका मिल जाता है और हरेक को थोड़ी आमदनी मिल जाती है। और थोड़ी- थोड़ी आमदनी मिलाकर के हर आदमी में स्वावलंबन की भावना पैदा हो जाती है। दो पैसा जेब में होते है। तो उसमें दान पुण्य करने से लेकर के खर्च करने तक, स्वास्थ्य संवर्धन से लेकर के घूमने फिरने मनोरंजन तक के लिए गुंजाइश मिल जाती है। उनमें खुशहाली पैदा होती है, स्वावलंबन पैदा होता है।
कलात्मक दृष्टि का विकास होता है, और हराम खोरी से बचाव करने की वृत्ति पैदा होती है। इस तरह से पापड़ के उद्योग लगते हैं। जनेऊ तो लोग पहनते ही हैं, हाथ से कता हुआ सूत और हाथ से बना हुआ सूत और उसके द्वारा हाथ से गाँठ लगा के यदि जनेऊ बनाये जाये तो उससे कितने आदमियों को काम मिल सकता है। मैंने मूल्य की बात बताई। सही अर्थों में उद्योगों का विकेन्द्रीकरण किया ही जाना चाहिए। बड़े- बड़े मील और आटोमैटिक मशीनें जो हजारों मनुष्य के श्रम को खा जाती है। उनका मुकाबला करने में मालुम पड़ता है कि बड़ा मुश्किल है लेकिन कुटीर उद्योग के लिए किया जाय साथ में दो रुपये की ग्राहक और मेन्टेनेन्श और मशीनों की टूट फूट और गवर्मेन्ट के टैक्स वगैरह जो लाख रुपयों का जो खर्चा आता है, हम कुटीर उद्योगो को उनके मुकाबले में खड़ा कर देंगे। हमारे कपड़े देहात में बनाये जाने लगे तो मशीनों के मुकाबले में बहुत ही सस्ते में बन सकते हैं। इस तरह की चीजें पैदा की जा सकती हैं।