इस अंधकार भरी निविड़ निशा के बाद प्रभात के आशा की किरण यदि जीवित है, तो वह एक ही है कि अदृश्य जगत् से कोई सृजन प्रवाह उमँगे और वर्षा के बादलों की तरह तपते धरातल को शीतलता और हरीतिमा से भर दे। ऐसे अवसरों पर दैवी चमत्कार ही काम आते हैं। हेमन्त में जब शीताधिक्य से जंगलों के जंगल पत्ते रहित होकर ठूँठ बन जाते हैं। पाले के दबाव से पौधे मुसकराते और मृतक जैसे दीखते हैं, तब वसंत का मौसम ही उत्साहवर्धक परिवर्तन का माहौल बनाता है। यह कार्य कोई व्यक्ति या संगठन करना चाहे, तो कठिन है। पतझड़ ग्रस्त पेड़- पौधों को पुष्प- पल्लवों से लादने में मानवीय प्रयत्नों की पहुँच कहाँ तक हो सकती है? सूखी जमीन को हरा- भरा बनाने में सिंचाई के प्रयत्न कितने क्षेत्र में सफल हो सकते हैं। इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। वर्षा और वसंत ही हैं, जो हरीतिमा उगाने और उसे फलने- फूलने की स्थिति तक पहुँचाने की जिम्मेदारी उठा सकते हैं।
मानवीय पुरुषार्थ को यहाँ तो नगण्य नहीं ठहराया जा रहा है। कहा इतना ही जा रहा है कि बड़ी समस्याओं का समाधान, बड़े संकटों का निराकरण और बड़े अभावों की पूर्ति के लिए प्रायः दैवी अनुकूलता ही काम देती है। पहाड़ों पर बर्फ जमाना और उसे पिघलाकर नदियों को जलधारा से भरी- पूरी रखना मानवीय पुरुषार्थ के बाहर की बात है। उसके द्वारा समुद्र के जल को बादल के रूप में परिणत करना और दूर तक बरसने के लिए खदेड़ देना भी संभव नहीं। सूर्य जैसा ताप और चन्द्रमा जैसा शीत बरसाने में मनुष्य कहीं सफल हो सकेगा? उपग्रहों का निर्माण करने पर भी अभी नया ग्रह बना देना या पुरानों को हटा देना, किसके लिए कब तक संभव हो सकेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता।
इतिहास साक्षी है कि मनुष्य वातावरण को बिगाड़ने में तो अनेक बार सफल हुआ है, पर जब- जब परिस्थितियाँ बेकाबू हुई हैं, तब- तब नियंता ने ही उलटे को उलटकर सीधा किया है। पर यह दैवी अनुग्रह भी अनायास ही उपलब्ध नहीं होता, उसके पीछे भी ऋषिकल्प देवताओं का दबाव काम करता है।
जल के लिए सर्वत्र त्राहि- त्राहि मची थी। आर्यावर्त, ब्रह्मावर्त से लेकर मगध, बंगाल तक का इलाका प्यास से मर रहा था। उपयोगी उपाय गंगावतरण समझा गया। इसके लिए तपस्वी की प्रार्थना ही सुनी जा सकती थी। यह कार्य भगीरथ ने अपने जिम्मे लिया। उद्देश्य की पवित्रता को देखकर शिव जी सहायक बने और जाह्नवी स्वर्गलोक से धरती पर उतरीं। अभाव दूर हो गया।
ऐसे- ऐसे असंख्यों उदाहरणों का इतिहास- पुराणों में वर्णन है। दैवी अनुकम्पा अंधविश्वास नहीं है। दैवी प्रकोपों का कुचक्र जब मानवीय प्रगति प्रयत्नों को मटियामेट कर सकता है, तो दैवी अनुग्रह से अनुकूलता क्यों उत्पन्न न होगी? बाढ़, भूकम्प, दुर्भिक्ष, महामारी, अतिवृष्टि, इति भीति आदि विनाशकारी घटनाक्रम दैवी प्रकोप से ही उत्पन्न होते हैं। उसी क्षेत्र की अनुकम्पा से समृद्धि प्रगति और शांति के अप्रत्याशित द्वार भी खुल सकते हैं।
दैवी प्रकोप या अनुग्रह अकारण नहीं बरसते। सृष्टि की सुव्यवस्था में व्यतिरेक उत्पन्न करने पर सुयोग सँजोने में मनुष्य की बहुत बड़ी भूमिका होती है। कुकृत्य ही अदृश्य वातावरण को दूषित करते और प्रकृति प्रकोपों को टूट पड़ने के लिए आमंत्रित करते हैं। इसके साथ ही एक सुनिश्चित तथ्य यह भी है कि ऋषि स्तर के व्यक्ति जब उच्च प्रयोजनों के निमित्त तपश्चर्या करते और वातावरण में उपयोगी ऊर्जा उत्पन्न करते हैं, तो दैवी अनुकम्पा का भी सुयोग बनता है। देवता न किसी पर कुपित होते हैं, न दयालु। स्थिति का पर्यवेक्षण करते हुए वे तदनुरूप दण्ड पुरस्कार का तालमेल बिठाते रहते हैं। इस प्रकार दुरात्माओं का बाहुल्य संसार में विपत्ति बरसाने का सरंजाम जुटाता है। उसी प्रकार देव मानवों की तपश्चर्या प्रत्यक्ष और परोक्ष क्षेत्र के सुयोग जुटाती है। संत अपनी सेवा- साधना में जहाँ धर्म- धारणा और पुण्य- प्रक्रिया को प्रोत्साहित करते हैं, वहाँ उनकी विशिष्ट साधनाओं से अदृश्य जगत् का परिशोधन भी होता चलता है। यही कारण है कि अध्यात्मवेत्ता लोकसाधना और अध्यात्म साधना को समान महत्त्व देते हैं। दोनों के लिए समान प्रयत्न करते हैं।
इन दिनों अदृश्य वातावरण की विषाक्तता ही अनेकानेक संकटों को जन्म दे रही है। विज्ञानवेत्ताओं के अनुसार बढ़ते प्रदूषण और तापमान में ध्रुवीय बर्फ पिघलने, समुद्र उफनने और हिम युग लौट आने जैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर दी हैं। अदृश्य वेत्ताओं के अनुसार दुर्भावनाओं, उद्दण्डता और कुकर्मों ने देव जगत् को रुष्ट कर दिया है और वे सामूहिक दण्ड व्यवस्था करके मनुष्य समुदाय को कडुआ पाठ पढ़ाने करारे चपत लगाने के लिए आमादा हो गये हैं। प्रस्तुत समस्याओं का कारण चाहे वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाय, चाहे आध्यात्मिक दृष्टि से, उसमें अदृश्य जगत् में संव्याप्त वातावरण की विषाक्तता प्रमुख कारण है। इसका समाधान भी उतने ही वजनदार पुरुषार्थ चाहता है, जिससे खोदी हुई खाई पट सके और लगी हुई।