युग परिवर्तन की यह ऐतिहासिक वेला है। इन बीस वर्षों में हमें जमकर काम करने की ड्यूटी सौंपी गई है। सन् १९८० से लेकर अब तक के चार वर्षों में जो काम हुआ है, वह पिछले ३० वर्षों की तुलना में कहीं अधिक है। समय की आवश्यकता के अनुरूप तत्परता बरती गई है और खपत को ध्यान में रखते हुए तद्नुरूप शक्ति उपार्जित की गई है। ये वर्ष कितनी जागरूकता, तन्मयता, एकाग्रता और पुरुषार्थ की चरम सीमा तक पहुँचकर व्यतीत करने पड़े हैं, उनका उल्लेख उचित न होगा। क्योंकि इस तत्परता का प्रतिफल २४०० प्रज्ञा पीठों और ७५०० प्रज्ञा संस्थानों के निर्माण के अतिरिक्त और कुछ प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होता। एक कड़ी हर दिन एक फोल्डर लिखने की इसमें और जोड़ी जा सकती है। शेष सब कुछ परोक्ष है। परोक्ष का प्रत्यक्ष लेखा- जोखा किस प्रकार संभव हो?
वे लिखते हैं कि विशेष समय में उन्हें विशेष ड्यूटी सौंपी गई है। ड्यूटी सौंपने वाली कौन है? इस संदर्भ में थियोसोफिकल सोसायटी के विद्वानों का मानना है कि ऋषि तंत्र कुछ भी करने में समर्थ होता है, किन्तु जब तक निर्देश नहीं मिलता, वे अपने आप कुछ नहीं करते। स्पष्ट रूप से उन्हें निर्देश देने वाली सत्ता विश्व नियंता स्तर की ही हो सकती है। युग ऋषि ने अपनी वसीयत और विरासत तथा प्रज्ञोपनिषद में इस संदर्भ में संकेत किए हैं।
निर्देश मिलने पर उनका पुरुषार्थ किस स्तर का होता है, यह भी झलक उनके लेखन में पाई जा सकती है। युगऋषि के लेखन तथा उनके प्रभाव से कुछ ही वर्षों में हजारों पीठों- प्रज्ञा संस्थानों के निर्माण को लोग इतिहास की अद्भुत घटना कहते हैं किन्तु वे किये गये दिव्य पुरुषार्थ का एक छोटा- सा प्रत्यक्ष अंश भर कहते हैं। सामान्य रूप से वे भी अपने कार्यों की उपमा समुद्र में तैरने वाले उन ग्लेशियरों (हिमखंडों) से करते हैं, जिनका केवल १/१०भाग प्रत्यक्ष दिखाई देता है और शेष ९/१० भाग पानी में डूबा- अप्रत्यक्ष रहता है।
युगसंधि की वेला में अभी १६ वर्ष और रह जाते हैं। इस अवधि में गतिचक्र और भी तेजी से भ्रमण करेगा। एक ओर उसकी गति बढ़ानी होगी, दूसरी ओर रोकनी। विनाश को रोकने और विकास को बढ़ाने की आवश्यकता पड़ेगी। दोनों ही गतियाँ इन दिनों मंथर हैं। इस हिसाब से सन् २००० तक उस लक्ष्य की उपलब्धि न हो सकेगी, जो अभीष्ट है। इसलिए सृष्टि के प्रयास चक्र निश्चित रूप से तीव्र होंगे। उसमें हमारी भी गीध- गिलहरी जैसी भूमिका है। काम, कौन, कब, क्या किस प्रकार करे? यह बात आगे की है। प्रश्न जिम्मेदारी का है। युद्धकाल में जो जिम्मेदारी सेनापति की होती है, वही खाना पकाने वाले की भी। आपत्ति काल में उपेक्षा कोई भी नहीं बरत सकता।
इस अवधि में एक साथ कई मोर्चों पर एक साथ लड़ाई लड़नी होगी। समय ऐसे भी आते हैं, जब खेत की फसल काटना, जानवरों को चारा लाना, बीमार लड़के का इलाज कराना, मुकदमे की तारीख पर हाजिर होना, घर आये मेहमान का स्वागत करना जैसे कई काम एक ही आदमी को एक ही समय पर करने होते हैं। युद्धकाल में तो यह बहुमुखी चिंतन एवं उत्तरदायित्व और भी अधिक सघन अथवा विरल हो जाता है। किस मोर्चे पर कितने सैनिक भेजना, जो लड़ रहे हैं, उनके लिए गोला बारूद कम न पड़ने देना, रसद का प्रबंध रखना, अस्पताल का दुरुस्त होना, मरे हुए सैनिकों को ठिकाने लगाना, अगले मोर्चे के लिए खाइयाँ खोदना जैसे काम बहुमुखी होते हैं। सभी पर समान ध्यान देना होता है। एक में भी चूक होने से बात बिगड़ जाती है। करा- धरा सब चौपट हो जाता है।