युग की माँग प्रतिभा परिष्कार

संगठन और कार्यक्रम का शुभारंभ

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शक्तियों में सबसे प्रमुख है संघ शक्ति। उसकी तुलना में और सभी सामर्थ्य छोटी पड़ती हैं। तिनकों से मिलकर रस्सा बँटा जाता है। धागे मिलकर कपड़ा बनाते हैं। बूँदों के समुच्चय से घड़ा भरता है और छोटे परमाणुओं के सम्मिलन से ही यह समूचा विश्व ब्रह्माण्ड बना है। जड़ वस्तुएँ एक और एक मिलकर दो होती हैं, पर सचेतन मनुष्य एक और एक बराबर रखे जाने पर ग्यारह अंक बनते हैं। चींटियों, दीमकों टिड्डियों, मधुमक्खी, बन्दरों के समूहों की शक्ति देखकर आश्चर्य चकित रह जाना पड़ता है। फिर मनुष्य के सम्बन्ध में तो कहना ही क्या? थोड़े से अनाचारी गिरोह बना लेते हैं, तो सारे इलाके में अशान्ति फैला देते हैं। दुर्भाग्य इसी बात का है कि सज्जन एकत्रित नहीं हो पाते । उन्हें निजी उन्नति भर की बात सूझती है। उन्हें यह गले नहीं उतरता कि वे भी समन्वित शक्ति उत्पन्न करें और उन्हें फिर युग समस्याओं के समाधान में लगायें, तो कितने चमत्कारी परिणाम हो सकते हैं।

    प्राचीनकाल का स्वर्णिम युग और कुछ नहीं, सज्जनों के संगठित एवं उच्चस्तरीय प्रयत्नों का ही प्रतिफल था। देवताओं की संयुक्त शक्ति का समीकरण करके असुर निकंदिनी भगवती दुर्गा का अवतरण हुआ था। ऋषि रक्त के बूँद-बूँद संचय से त्रेता में सतयुग की पुनरावृत्ति करने वाली सीता प्रकट हुई थी। सज्जनों के संयुक्त शक्ति से ही संसार भर में प्रचण्ड क्रान्तियाँ सम्भव होती रही हैं। दास प्रथा जैसे असंख्य अनाचारों को उसी ने एक हुँकार में चकनाचूर कर दिया है। उसका एक प्रहार पड़ने पर अपने सर्वशक्तिमान कहने वाले राजमुकुट धराशायी हो गये। प्रजातंत्र के क्षेत्र में यही शक्ति मतपत्रों के सहारे किसी को भी शासनाध्यक्ष बनाकर रख देती है एवं किसी को कुर्सी से हटा देती है।

    अनाचारियों की संयुक्त शक्ति अपना लंका जैसा साम्राज्य और आतंक अभी भी दिग्दिगन्त में फैलाये हुए है, पर देवताओं को क्या कहा जाए? जो सज्जन रहने भर को सब कुछ मानते हैं और अपने समुदाय की संयुक्त शक्ति सँजोकर रामराज्य के अवतरण जैसा कोई साहसिक प्रयत्न नहीं करते। सज्जनों की अदम्य शक्ति सर्वविदित है। देवता ही स्वर्ग के अधिपति रहे हैं और रहेंगे, पर उस असंगठन-विघटन को क्या कहा जाय? जो तार-तार बिखेर कर, पर्वतों को बालू का कण बनाकर जहाँ-तहाँ छितरा देता है। इस विपर्यय को उलटना ही होगा।

    आरम्भ कहाँ से किया जाय? यह एक जटिल प्रश्न है। वह बीज कहाँ से पाया जाय, जो खेतों को सतयुगी धन-धान्य से भरा-पूरा बनाये, वह चिनगारी कहाँ से प्रकटे? जो दावानल की तरह अनीति की झाड़ियों के जंगल को भस्मसात करके रहे। अन्यत्र कहाँ जाया जाय, अपने ही घर-परिवार में ऐसे सुसंस्कारी नररत्न मौजूद हैं, जिन्हें आगे करके नवसृजन के युग यज्ञ की अग्नि स्थापना से लेकर पूर्णाहुति की समूची प्रक्रिया सम्पन्न की जा सकती है।

अखण्ड ज्योति और उसकी सहेली मिशन की पत्रिकाएँ इन दिनों प्राय: पाँच लाख छपती हैं। हर पत्रिका के न्यूनतम पाठक पाँच माने जा सकते हैं। अंक पहुँचता है, उसके लिए छीना झपटी करने वालों और आदि से अन्त तक पढ़ने वालों की लाइन पहले से ही लगी रहती है। इन पच्चीस लाख में जो ध्रुव केन्द्र की भूमिका निभाते हैं, वे पिछले दशियों साल से इस प्राणवान् विचारधारा को श्रद्धापूर्वक हृदयंगम करते रहे हैं। उनकी सहज स्वाभाविक गलाई ढलाई होती रही है। क्रमश: उन्होंने उपलब्ध प्रेरणा को जीवनचर्या में उतारने और व्यक्तित्व का अंग बनाने का प्रयास जारी रखा है। तदनुसार उन्हीं दो प्रयासों को मूर्धन्य मानने की भावना ने आस्था का रूप धारण कर लिया है।

    इनमें से एक है-आत्मपरिष्कार लोकमानस का परिष्कार, अभिनव निर्माण। ज्ञान यज्ञ इसी समन्वय को कहा जाता रहा है। इसी का प्रतीक लाल मशाल के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है। युगसन्धि के अनुरूप अपने को ढालने और दूसरों को प्रभावित, प्रोत्साहित करने का उनमें उत्साह और साहस जागा है। इसमें जितना श्रम अखण्ड ज्योति की विचारधारा का है, उससे कहीं अधिक इस परिष्कार के घटकों में विद्यमान उनके पूर्व संचित संस्कारों का नाम है। समय-समय पर इन्हें चौकन्ना करने और हलचल में आने के लिये कहा जाता रहा है। देखा गया है कि वे एक ही बार बिगुल बजाने पर लाइन में सावधान की मुद्रा में खड़े मिले हैं। इन्हें मानसिक स्तर पर प्रौढ़ परिपक्व माना जाय, तो कुछ अत्युक्ति न होगी।

    आरम्भ इन्हीं प्रशिक्षित, अनुशासित सज्जनों से किया जा रहा है। अगले दिनों जन शक्ति और साधन शक्ति का नियोजन तो असंख्य गुना होना है, क्योंकि ध्वंस सरल होता है और निर्माण कठिन। वातावरण को बिगाड़ने वालों ने भी अपने प्रयास के कीर्तिमान स्थापित किये हैं। विकृतियाँ उत्पन्न करने में भारी श्रम, समय, कौशल एवं साधनों का नियोजन हुआ है। तब कहीं विविध जाल जंजालों में लोकमानस को फँसाया और भ्रम जंजालों में भटकाया जा सका है। सृजन के लिए उसकी तुलना में अधिक प्रभावी प्रतिभाएँ चाहिए और उनका पुरुषार्थ भी अपेक्षाकृत अनेक गुना होना चाहिए। यह सरंजाम नये सिरे से नहीं जुटाया जा सकता। अखण्ड ज्योति परिजनों को ही इस मोर्चे पर विश्वास पूर्वक खड़ा किया जा सकता था, सो किया भी जा रहा है।

    कहा जा चुका है, हर स्वर्णखण्ड को कसौटी पर कसा और आग पर तपाया जा रहा है; ताकि उसकी विशेषता सबके सामने उजागर हो सके। इनमें से पहला है-सतयुग की वापसी। दूसरा है- आद्यशक्ति का अभिनव अवतरण-नारी जागरण।

    सतयुग की वापसी के लिए भावनाशीलों का संगठन एवं प्रशिक्षण किया जाता है। अभ्यास कार्य भी सौंपा जाता है। प्रज्ञा परिवार का संगठन इन्हीं से आरम्भ होगा। नारी मण्डल भी इन्हीं में से बनेेंगे। पाँच-पाँच प्राणवानों का एक मण्डल गठित किया जा रहा है। समीपवर्ती परस्पर घनिष्ट एवं विश्वासी लोग मिलकर पाँच की मण्डली उपर्युक्त उद्देश्य के लिए बना लें। इसके बाद उन पाँचों को अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र के पाँच-पाँच और खोजकर समूचे मण्डल को पाँच से पच्चीस बनाना है। पच्चीस का एक पूर्ण संगठन बन सकेगा। बड़े संगठन सँभालने में नहीं आते। उनमें अनगढ़ों की भरमार रहने से टाँग खिंचाई होती है और मेढ़क तराजू में तौलने के समय देखी जाने वाली धमा चौकड़ी मचती है। संख्या प्रदर्शन की अपनी कोई आवश्यकता भी नहीं। यहाँ क्वालिटी चाहिए, क्वाण्टिटी नहीं । इस दृष्टि से हम पाँच हमारे पच्चीस का चक्रवृद्धि क्रम यदि चल पड़े, तो इसी परिवार के बेटे, पोते, परपोते, सरपोते मिलकर समूची विश्व व्यवस्था बना जाने में सफल हो सकते हैं। हम पाँच हमारे पच्चीस का उद्घोष यदि प्राणपण से पूरा करने में सभी परिजन भावनापूर्वक जुट पड़ें, तो देखते-देखते एक लाख का प्रज्ञा संगठन खड़ा होने का स्वप्न साकार हो सकता है।

संगठन का दूसरा पक्ष है- नारी जागरण। महिला मण्डलों का गठन। वे भी आरम्भ में पाँच और कुछ दिन में पच्चीस की संख्या में विकसित होंगी। पुरुष परिजनों का कर्तव्य हो जाता है कि वे अपने परिवार की, अपने प्रभाव परिष्कार की प्रभावशाली पाँच शिक्षित महिलाएँ खोज निकालें और उन्हें संगठित, प्रोत्साहित प्रशिक्षित करते हुए इतना साहस उनमें भरें कि मिलजुलकर अपने प्रभाव क्षेत्र में नारी जागरण की पुण्य परम्परा को परिपूर्ण उत्साह के साथ सम्पन्न कर सकें। इस प्रकार जहाँ एक लाख पुरुष प्रधान प्रज्ञा-मण्डलों के गठन का काम सौंपा गया हैं। दोनों की समानान्तर व्यवस्था रहे। दोनों एक दूसरे का समर्थन सहयोग करें; परन्तु अपनी-अपनी सत्ता अलग-अलग ही बनाये रहें, इसमें सुविधा और सुरक्षा भी रहेगी।

    सभी प्रज्ञा मण्डलों और महिला मण्डलों को क्रिया पक्ष का यह प्रयास सौंपा गया है कि वे साप्ताहिक सत्संगों का क्रम बनायें। एक नियत स्थान पर या बारी-बारी से सदस्यों के घरों पर सत्संग उपक्रम बिना नागा किये चलाते रहें। उसमें आरम्भ में दीपयज्ञ का छोटा उपक्रम, गायत्री मंत्र का सामूहिक गान, युग संगीत सहगान की धार्मिक विधाएँ सम्पन्न की जाएँ। इसके बाद पारस्परिक विचार विनिमय का क्रम चले। पिछले सप्ताह में किसने क्या किया और अगले सप्ताह किसकी क्या करने की योजना है? इस प्रकार की जानकारियों का आदान-प्रदान चल पड़ने पर एक दूसरे को प्रोत्साहन भी मिलेगा। कठिनाइयों की जानकारी और उसके समाधान का तारतम्य भी बैठेगा। प्रभाव परिकर में सत्प्रवृत्ति संवर्धन और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन की जिम्मेदारी को इसी अवसर पर उठाया और अगले दिनों उसे पूरा करने की प्रतिस्पर्धा में दौड़ लगाया करेंगे। इन साप्ताहिक सत्संगों को नवसृजन योजना पर किया गया निर्धारण भी कहा जा सकता है।

    इसी साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर प्रज्ञा पुस्तकालयों के माध्यम से युग चेतना को व्यापक बनाने का प्रयास भी जुड़ा रहेगा। दोनों मण्डलों के अपने-अपने पुस्तकालय इस अवसर पर उपस्थित रहेेंगे। सदस्यगणों को एक सप्ताह में जितनी पुस्तकें अपने सम्बद्ध जनों को पढ़ाने के लिए ले जानी हो, ले जाया करेंगे। इस प्रकार झोला पुस्तकालय वाली वह योजना भी पूरी होती रहेगी, जिसमें हर शिक्षित को घर बैठे बिना मूल्य युग साहित्य पढ़ाने और वापस लाने का प्रावधान था। जिसमें अनपढ़ों को पुस्तकें पढ़कर सुनायी जाया करती थीं, अब वह उपक्रम साप्ताहिक सत्संगों मेें जुड़ जाने और सदस्यों द्वारा अपनी सामर्थ्य भर अपने प्रभाव क्षेत्र में युग चेतना का आलोक वितरण करने का दायित्व नियमित रूप से उठाया जाता रहेगा। काम बँट जाने से वह अधिक भी होगा और सार्थक भी रहेगा। जो जिसे पढ़ायेगा, वह उससे सम्पर्क भी साधेगा और जब घनिष्ठ परिपक्वता बढ़ने लगे, तो उन नव-परिचितों को प्रस्तुत संगठनों में नियमित से सम्मिलित करने का प्रयत्न किया करेगा।

    पच्चीस से अधिक सदस्य बढ़ जाने पर उन्हें अलग टोलियों में विभाजित किया जाता रहेगा, ताकि व्यवस्था और प्रौढ़ता बनी रहे। एक बहुत बड़ा संगठन बनाने की अपेक्षा छोटे-छोटे अनेक बना लेने पर अधिक सुविधा रहेगी और अधिक प्रगति भी होगी। पक्षी समर्थ हो जाने पर माँ-बाप वाला घोंसला छोड़कर अपना नया नीड़ बनाने और नया परिवार बनाने की प्रक्रिया पूरी करता है। इसमें हर्ज कुछ नहीं, लाभ अनेक हैं। इस आधार पर टाँग खिंचाई से तो निश्चित रूप से बचा जा सकता है।

    संगठन का ढाँचा खड़ा हो जाने पर उसे अनेक स्तर के (१) प्रचारात्मक, (२) रचनात्मक एवं (३) सुधारात्मक कार्य हाथ में लेने होंगे। इसके लिए जन शक्ति भी चाहिए और साधन जुटाने के लिए धन शक्ति भी। इसके लिए जगह-जगह चन्दा माँगते फिरने की अपेक्षा अपनी लोगों की श्रद्धा परखी जानी चाहिए कि उसमें बातूनी जमा खर्च ही है या श्रद्धा की गहराई भी जुड़ गयी है। इसके लिए हर गठित मण्डलों में सम्मिलित होने वाले के लिए सक्रिय योगदान की शर्त रखी गई है- समयदान व अंशदान। दोनों मण्डलों के सदस्य अपने संगठनों को सुचारु ढंग से चलाने के लिए नियमित योगदान प्रस्तुत करते रहने का संकल्प करें और उसका व्रत धारण की तरह निर्वाह करें।

    युगऋषि ने नवसृजन के लिए हर भावनाशील से समयदान और अंशदान माँगा है। समयदान कम से कम एक घंटे प्रतिदिन से लेकर ४ घंटे प्रतिदिन तथा अंशदान आधा कप चाय की कीमत प्रतिदिन से लेकर माह में एक दिन की आय नियमित रूप से नवसृजन प्रयोजनों में लगाने का आग्रह किया गया है।

    न्यूनतम दो घण्टे का समयदान और एक रुपये का अंशदान सभी को करना चाहिए। इतनी न्यूनतम उदारता अपनाना किसी भी भावनाशील के लिए कठिन नहीं पड़ना चाहिए। महत्ता समझने और श्रद्धा का पुट रहने पर इतनी उदारता अपनाना किसी के लिए भारी नहीं पड़ेगा। व्यस्तता और अभाव ग्रस्तता की बात कहना, तो अपनी कृपणता, अनुदारता और उपेक्षा को ढकने का बहाना मात्र है। वस्तुत: कोई भी विचारशील इतना तो कर ही सकता है कि बाईस घण्टा अपने निजी कार्य के लिए रखकर शेष दो घण्टे इस आपत्तिकाल में युगधर्म को निबाहने के लिए लगाता रहे। एक रुपया इस मँहगाई के जमाने में चौथाई कप चाय की कीमत है। इसे दे सकने में निर्धन भी असमर्थ नहीं रह सकते। उपर्युक्त ढाँचा खड़ा हो जाने पर वे अन्यान्य कार्य सरलतापूर्वक चल पड़ेंगे, जिन्हें अगले ही दिनों व्यापक क्षेत्र को प्रभावित करने के लिए उठाया जाना है।

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