जहाँ स्वर्गीय परिस्थितियों के निर्माण की बात आती है, वहाँ लोग एक अच्छे समाज के निर्माण के लिए विचार और प्रयास करने लगे हैं। युगऋषि कहते हैं कि समाज निर्माण करना है, तो पहले उसकी आधारभूत इकाइयों- व्यक्ति तथा परिवार के निर्माण को प्राथमिकता देनी होगी। इसलिए युग निर्माण के लिए तीनों निर्माण व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण तथा समाज निर्माण के समानान्तर प्रयास करने होंगे।
व्यक्ति निर्माण-
व्यक्ति निर्माण का अर्थ है व्यक्तित्व का निर्माण। मनुष्य के व्यक्तित्व में, स्वभाव में, मनुष्यता का, देवत्व का उदय हो।
उसके सूत्र हैं-
१. ईश्वर उपासना
२. आत्म साधना
३. लोक आराधना
४. समयदान
५. अंशदान
उपासना-
ईश्वर की : युगऋषि का सूत्र है ‘‘मनुष्य महान् है, किन्तु उससे भी महान् है उसका सृजेता। मनुष्य में वाँछित महानता एवं देवत्व का संचार सृजेता, परमात्मा के सम्पर्क से ही संभव है। अपनी कामना की पूर्ति के लिए प्रार्थना, पूजा- उपचार करने से उपासना का उद्देश्य नहीं सधता। उसके लिए तो मन को खाली करके बैठना तथा ईश्वरीय प्रेरणा- प्रकाश को अंदर उतारने का भाव करना होता है। इष्टमंत्र या इष्टनाम का जप इसमें सहायक सिद्ध होता है।’’
साधना-
अपनी : अपने जीवन को ईश्वरीय प्रेरणा के अनुरूप साधना, गढ़ना, विकसित करना। स्वाध्याय एवं संयम इसके लिए सबल माध्यम बनते हैं।
स्वाध्याय- सत्साहित्य का अध्ययन करके, सत्पुरुषों के अनुभव सुनकर- सत्संग से जो सूत्र मिलें, उन्हें मनन- चिंतन द्वारा जीवन का अंग बनाने का प्रयास स्वाध्याय है। युग साहित्य इसमें समर्थ सहयोगी की भूमिका निभाता है।
संयम-
महर्षि पतंजलि का सूत्र है- ‘त्रयमेकम् संयमः’ तीन मिलकर संयम बनते हैं। हर मनुष्य के अंदर दिव्य क्षमताएँ हैं, उन्हें १. विकसित करना, २. नियंत्रित रखना, बिखरने न देना तथा ३. सदुद्देश्यों में संकल्पपूर्वक लगा देना। इन तीनों प्रयासों के संयोग से संयम साधना सधती है।
हर मनुष्य में चार विशिष्ट क्षमताएँ हैं, उनको संयमित करना जरूरी है। वे हैं- इन्द्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम और विचार संयम। इन्हें मिलाकर जीवन व्यवस्थापन (लाइफ मैनेजमेण्ट) भी कह सकते हैं।
प्रगतिक्रम- व्यक्तित्व में प्रगति का क्रम बराबर बना रहे, इसके चार सूत्र हैं- आत्म समीक्षा, आत्म शोधन, आत्म निर्माण एवं आत्म विकास।
(अ) आत्म समीक्षा-
हम वर्तमान में किस स्तर पर हैं तथा अगला चरण क्या हो, इस अन्तर्दृष्टि को आत्म समीक्षा की क्षमता कहते हैं। दुनिया भर की समीक्षा में रस लेने वाले चतुर लोग भी आत्म समीक्षा में कमजोर एवं बचकाने ही सिद्ध होते देखे जाते हैं। इसे स्व- मूल्यांकन (सेल्फ एसेसमेण्ट) भी कह सकते हैं।
(ब) आत्म शोधन-
समीक्षा से अपने अंदर जो दोष- दुर्गुण दिखें, उन्हें संकल्पपूर्वक एक- एक करके दूर करना आत्म शोधन है।
(स) आत्म निर्माण-
समीक्षा के आधार पर अपने अंदर जिन श्रेष्ठ गुणों का अभाव दिखता है, उन्हें अपने अंदर पैदा करना, स्थापित करना आत्म निर्माण है।
(द) आत्म विकास-
अपने अंदर जो श्रेष्ठ गुण- भाव (प्रेम, आत्मीयता आदि) हैं, उन्हें छोटी सीमा से निकाल कर व्यापक बनाना आत्म विकास है।
ये साधना के सूत्र व्यक्ति को जीवन के हर क्षेत्र में उत्कृष्टता, सफलता, सुयश तथा सद्गति प्रदान कर सकते हैं।
लोक आराधना- आराधना-
श्रद्धा, संवेदना युक्त सेवा समाज की। साधक यह मानकर चलें कि ईश्वर ने हमें जो श्रेष्ठ विभूतियाँ प्रदान की हैं, वे उसी की अमानत हैं। हम उसकी दी अमानत को उसके लिए ही खर्च करने की समझ रखते हैं या नहीं, यह परीक्षा लेने के लिए वही प्रभु समाज में अभावग्रस्त, पीड़ित, पतित के रूप में आता है। उसकी दी विभूतियों को हम उसे सौंपने में रुचि ले पाते हैं, तो यह सेवा- आराधना है। उसकी परीक्षा में खरे उतरने पर वह आत्म संतोष, लोक सम्मान तथा दैवी अनुग्रह जैसे वेश कीमती इनाम देता है।
समयदान- अंशदान :-
उक्त सभी साधनाएँ नियमित- व्यवस्थित चलें, इसके लिए हर साधक को ईश्वर द्वारा दिये गये समय तथा अपने पुरुषार्थ से प्राप्त धन का एक अंश नियमित रूप से इस निमित्त निकालना ही चाहिए। जो भी व्यक्ति, साधक उक्त पाँचों सूत्रों को जीवन में नियमितता से धारण करेंगे, उनके अंदर देवत्व के स्तर की सतत वृद्धि होते रहना सुनिश्चित है।
परिवार निर्माण
युगऋषि ने परिवार को व्यक्ति निर्माण की प्रयोगशाला, व्यायाम शाला, टकसाल कहा है। यह समाज की छोटी आधारभूत सामूहिक इकाई भी है। परिवार में ही व्यक्ति ‘मैं’ की संकीर्णता से ऊपर उठकर ‘हम’ की व्यापकता में प्रवेश करता है। ऋषि का सूत्र है- प्यार और सहकार से भरा- पूरा परिवार ही धरती का स्वर्ग होता है।
परिवार घर-
परिवार भी होता है, लेकिन वह वहीं तक सीमित नहीं। वह संस्था- परिवार, संगठन -परिवार, राष्ट्र- परिवार से विश्व परिवार तक विकसित हो सकता है। परिवार के सदस्यों में पारिवारिक पंचशील- श्रमशीलता, शालीनता, मितव्ययिता, सुव्यवस्था तथा सहकारिता के संस्कार जाग्रत् करने से आदर्श परिवार-भाव का विकास होता है।
युगऋषि ने यह तथ्य बार- बार दुहराया है कि जब भी आदर्श सामाजिक व्यवस्था बनेगी, तो वह पारिवारिक संवेदना- सहकार के आधार पर ही बनेगी। इसीलिए घर- परिवार और संगठन- परिवार दोनों स्तरों पर पारिवारिक व्यवस्था बनेगी, तो समाज में भी वही रीति- नीति लागू की जा सकेगी।
समाज निर्माण
श्रेष्ठ व्यक्ति तथा सुसंस्कारित परिवारों के संयोग से आदर्श समाज निर्माण का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। इसके लिए दो तरह के अभियान चलाना जरूरी है। अ. दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन तथा ब. सत्प्रवृत्ति संवर्धन। इनके लिए तीन तरह की गतिविधियाँ चलाना जरूरी है।
त्रिविध गतिविधियाँ-
उक्त उद्देश्यों के लिए तीन प्रकार की गतिविधियाँ जरूरी हैं-
क. प्रचारात्मक
ख. रचनात्मक
ग. संघर्षात्मक
प्रचारात्मक- से बड़ी संख्या में लोगों में जागरूकता फैलेगी। नर- नारी प्रभावित होकर नवसृजन के लिए आगे आयेंगे।
यों कहने के लिए तो अपना परिवार प्रचारात्मक कार्यक्रमों में काफी कुशल हो गया है, किन्तु जहाँ तक युग निर्माण के सूत्रों के समझने- समझाने की बात है, उसमें हम अभी काफी पीछे हैं।
यह बात ठीक है कि भारत धर्मप्राण देश है। इसलिये धार्मिक कार्यक्रमों के माध्यम से जन- जन तक पहुँचना आसान होता है। फिर भी माध्यम तो माध्यम ही है। वह लक्ष्य या उद्देश्य तो नहीं बन सकता। लक्ष्य हमारा है युग निर्माण। इसलिए जन साधारण में जैसा उत्साह धार्मिक कर्मकाण्ड करके पुण्य लूट लेने के लिए है, वैसा ही उत्साह स्वयं को ईश्वरीय योजना में भागीदार बनने- बनाने के लिए भी जगाना होगा। तभी हमारा प्रचारात्मक अभियान युगऋषि की कसौटी पर खरा सिद्ध होगा।
रचनात्मक- से नवसृजन की दिशा में समय, शक्ति, साधनों का नियोजन होगा। व्यक्तियों और व्यक्ति- समूहों में सृजन का कौशल उभरेगा। जैसे- जैसे सृजनशील व्यक्तियों की संख्या और कुशलता बढ़ेगी, वैसे- वैसे सृजन अभियान गति पकड़ेगा।
हमारा सबसे प्रधान रचनात्मक कार्य है ‘जन मानस का निर्माण, नवयुग के अनुरूप व्यक्ति निर्माण।’ यह कार्य महत्त्वपूर्ण तो है, किन्तु इसे सभी कर नहीं सकते। प्रचारात्मक कार्यक्रमों से उभरकर आये जो युग साधक व्यक्ति निर्माण के कार्य में लग सकें, उन्हें उसी को प्राथमिकता देनी चाहिए, अन्य सृजनशील साधकों को विभिन्न प्रत्यक्ष दिखने वाले रचनात्मक कार्यक्रमों, सृजनात्मक आन्दोलनों के साथ जोड़ देना चाहिए।
सृजन साधना एक प्रकार का तप है। जिसने लगन और धैर्य के साथ उसका नियमित अभ्यास नहीं किया है, वह चाहते हुए भी सृजन कार्यों में प्रभावपूर्ण भागीदारी नहीं निभा पाता। इसलिए ‘सृजन साधना’ में नियमितता जरूरी है। समयदान, अंशदान इसी के लिए नियमित रूप से निकाले जाते हैं। संगठित प्रयास इसीलिए किये जाते हैं। सृजन साधना महापुरश्चरण द्वारा भावनाशील नर- नारियों को सृजनशील तप- साधना से जोड़ने का प्रयास किया जाना है। अपने परिवार की सृजनात्मक क्षमता को कई गुना बढ़ाये जाने की जरूरत है। इसके लिए सामर्थ्य के साथ प्रामाणिकता और नियमितता जरूरी है।
संघर्षात्मक- से सृजन के मार्ग में आने वाले अवरोधों को काटकर आगे बढ़ने का क्रम चलेगा।
सृजन के रास्ते में रुकावटें जरूर आती हैं। बाहर से आसुरी तत्त्व और अंदर से आसुरी प्रवृत्तियों द्वारा तरह- तरह के विघ्न पैदा किए जाते हैं, प्रतिरोध खड़े किये जाते हैं। उन्हें निरस्त करके आगे बढ़ना पड़ता है। इसके लिए अदम्य साहस, अविचल धैर्य और अटूट आत्म विश्वास की जरूरत पड़ती है। सृजन कार्य तो अपनी स्थिति के अनुसार नियमित व्यवस्था बनाने से ही सध जाते हैं। संघर्ष के लिए तो पुकार पर तत्काल उछल कर आगे आना पड़ता है। जो लोग सृजनात्मक कार्यों में ही समय और सामर्थ्य की कमी का रोना रोने लगते हैं, वे संघर्षात्मक कार्यों की अग्निपरीक्षा में कैसे टिक सकते हैं? इसलिए प्रचारात्मक एवं सृजनात्मक तप से निखर कर उभरे हुए व्यक्तित्व ही संघर्षात्मक कार्यों की चुनौतियों का सामना करके विजयी होकर आगे बढ़ने में सफल हो सकते हैं।
युगऋषि कहते रहे हैं कि हमारा प्रचार भी सृजन हेतु है तथा संघर्ष भी सृजन का सहयोगी है। जैसे- चिकित्सक का संघर्ष किसी व्यक्ति या उसके अंग विशेष से नहीं, उसमें घुसे हुए रोगों से होता है। चीर- फाड़ भले ही किसी व्यक्ति विशेष या उसके अंग विशेष की होती दिखे, किन्तु चिकित्सक का एकमात्र लक्ष्य उसमें समाये रोग को निर्मूल करना होता है। हमारा संघर्ष भी किसी भावनाशील और कुशल चिकित्सक के उपचार जैसा ही है। वैसी ही मनोवृत्ति और वैसी ही कुशलता हमें अर्जित करनी होगी।
इस प्रकार संस्कारवान् व्यक्ति उभरकर ईश्वरीय चेतना तथा ऋषिसत्ता के सहयोग से व्यक्ति, परिवार एवं समाज निर्माण के चरण बढ़ाते हुए युग निर्माण के महान् लक्ष्य की ओर बढ़ते रह सकेंगे।