युगऋषि और उनकी योजना

ऋषि-मनीषी सबके होते हैं

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        जब हम उनका परिचय गुरुदेव या भगवान् का देते हैं, तो उनका व्यक्तित्व वर्तमान समय के कथित गुरुओं और भगवानों की भीड़ में खो जाने का खतरा है। लेकिन यदि ऋषि- मनीषी का परिचय देते हैं, तो उनके प्रति सभी विचारशीलों, भावनाशीलों, आदर्श प्रेमियों का झुकाव स्वाभाविक ढंग से बढ़ने लगता है।

        ठाकुर रामकृष्ण परमहंस ने, स्वामी विवेकानन्द ने, गाँधी जी ने, बिनोवा जी ने कितनों को शिष्य बनाया? वे कितनों के गुरु बने? किन्तु, चूँकि उनकी प्रतिष्ठा ऋषि- मनीषी की है, इसलिए सभी क्षेत्रों और सभी वर्गों के लोग उनके उदाहरण देकर, उनके सूत्र- सिद्धान्तों को अपना कर चलने में गौरव अनुभव करते हैं। इसी तरह जब हम उनका परिचय युग निर्माण योजना का मूर्त रूप देने वाले युगऋषि के रूप में देते हैं, तो युग में रहने वाला प्रत्येक स्वेच्छा सम्पन्न व्यक्ति उनसे प्रेरणा लेकर अपने- अपने ढंग से युग निर्माण के अभियान में अपना- अपना योगदान देने में शान और संतोष का अनुभव करेगा। यदि हम वास्तव में उन्हें सन्तुष्ट करना चाहते हैं, उनकी कसौटी पर प्रामाणिक सिद्ध होना चाहते हैं, तो हमें इसके लिए स्वयं को तैयार करना होगा। साधना, स्वाध्याय एवं संयम का स्तर बढ़ाकर ही हम वह सेवा कार्य कर सकेंगे, जिससे उन्हें संतोष हो।

उनके स्वरूप का दर्शन

        घटना सन् ६० के दशक की है। अखण्ड ज्योति पत्रिका के कार्यालय में उत्तर प्रदेश के पोस्ट मास्टर जनरल (डाकतार विभाग के सबसे बड़े प्रांतीय अधिकारी) अचानक जा पहुँचे। पत्रिकाओं का डाक विभाग से घनिष्ठ सम्बन्ध रहता है। आश्चर्य मिश्रित हर्ष के साथ उनका स्वागत किया गया। पूज्य गुरुदेव को सूचना दी गई, सो वे भी पहुँच गये।

        पूछताछ से यह बात स्पष्ट हुई कि अखण्ड ज्योति की प्रतियाँ देख कर उनके मन में आश्चर्य उभरा कि इतने कम मूल्य में, इतने अच्छे मैटर और कलेवर वाली पत्रिका, विज्ञापन एक भी नहीं, लेखों पर लेखकों के नाम नहीं, सम्पादक मण्डल, संरक्षक मण्डल जैसी भी कोई सूची नहीं, आखिर यह सब चल कैसे रहा है? जानकारों ने जानकारी दी कि आचार्य जी वह सब अकेले ही करते हैं। उनके मन में ऐसे अनोखे व्यक्ति को देखने की इच्छा हुई, इसलिए अपने सरकारी दौरे के क्रम में अखण्ड ज्योति संस्थान भी शामिल कर लिया। गुरुदेव से जब उन्होंने अपना मंतव्य बताया, तो गुरुदेव ने सहज भाव से गागर में सागर भरते हुए कहा-

‘‘आप जिसे देखना चाहते हैं, उसे मैं आपको दिखा नहीं सकता और जिसे आप देख रहे हैं, वह इतना सब कर नहीं सकता।’’

        उनके कहने का भाव स्पष्ट है। देखने वाले उनके जिस हाड़- माँस के शरीर को देख पाते हैं, वह इस स्तर के कार्य कर नहीं सकता तथा शरीर के माध्यम से जो चेतन तत्त्व इतना सब कर रहा है, उसे देखना- अनुभव कर पाना हर एक के बस की बात भी नहीं है।

        अधिकारी महोदय तो मिल- जुलकर संतुष्ट होकर चले गये। युगऋषि के बारे में उन्होंने क्या धारणा बनाई? उनका क्या लाभ उठाया? ये तो वे ही जानें। किन्तु युगऋषि के उक्त कथन से हम सबके लिए एक महत्त्वपूर्ण संदेश- निर्देश उभरता है। हम सब भी उनके दिव्य पुरुषार्थ से चमत्कृत हुए हैं। उनके साथ अपने को भावनात्मक स्तर पर जुड़ा अनुभव करते हैं। उनके लिए कुछ करना भी चाहते हैं, उनसे कुछ विशेष पाना भी चाहते हैं। यदि अपने इन सब प्रयासों में हमें सफल होना है, तो हमें उनके प्रति अपनी अवधारणाओं को अपेक्षाकृत अधिक उत्कृष्ट और व्यापक स्तर की बनाना होगा।

        वे जीवन भर यह तथ्य विभिन्न ढंगों से समझाने की कोशिश भी करते रहे हैं। जब कोई कहता था कि हम दर्शन करने आए हैं, तो वे कहा करते थे ‘‘मित्रो! इस दर्शन से क्या बनेगा? मेरा जीवन दर्शन ही मेरा असली दर्शन है।’’ गाँधीजी, ठाकुर रामकृष्ण परमहंस की काया के दर्शन तो लाखों ने किए, किन्तु वास्तविक लाभ वे ही उठा सके, जिन्होंने उनके नाम, शरीर और कार्यों के पीछे सक्रिय उनके जीवन दर्शन को देखा- समझा। इसीलिए वे कहते रहे कि दर्शन के लाभ तो सभी पाना चाहते हैं, किन्तु दर्शन का दर्शन (फिलॉसफी) को कम ही लोग समझ पाते हैं। असली लाभ उन्हीं दिव्य दर्शन पाने वालों को मिलता है। उसी को अनुभव करने की विधा को धारणा कहते हैं।
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