युगऋषि की वेदना एवं उमंगें जानें तदनुसार कुछ करें

कसौटी पर खरे उतरें

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१. जरूरत है जीवट वालों की—

अब युग की रचना के लिए ऐसे व्यक्तित्वों की ही आवश्यकता है जो वाचालता और प्रोपेगैंडा से दूर रह कर अपने जीवनों को प्रखर एवं तेजस्वी बना कर अनुकरणीय आदर्श उपस्थित करें और जिस तरह चंदन का वृक्ष आस- पास के पेड़ों को सुगंधित कर देता है, उसी प्रकार अपनी उत्कृष्टता से अपना समीपवर्ती वातावरण भी सुरभित कर सकें। अपने प्रकाश से अनेक को प्रकाशवान् कर सकें।

धर्म को आचरण में लाने के लिए निस्संदेह बड़े साहस और बड़े विवेक की आवश्यकता होती है। कठिनाइयों का मुकाबला करते हुए सदुद्देश्य की ओर धैर्य और निष्ठापूर्वक बढ़ते चलना मनस्वी लोगों का काम है। ओछे और कायर मनुष्य दस- पाँच कदम चलकर ही लड़खड़ा जाते हैं। किसी के द्वारा आवेश या उत्साह उत्पन्न किए जाने पर थोड़े समय श्रेष्ठता के मार्ग पर चलते हैं, पर जैसे ही आलस्य प्रलोभन या कठिनाई का छोटा- मोटा अवसर आया कि बालू की भीत की तरह औंधे मुँह गिर पड़ते हैं। आदर्शवाद पर चलने का मनोभाव देखते- देखते अस्त- व्यस्त हो जाता है।

ऐसे ओछे लोग अपने को न तो विकसित कर सकते हैं और न शांतिपूर्ण सज्जनता की जिंदगी ही जी सकते हैं। फिर इनसे युग निर्माण के उपयुक्त उत्कृष्ट चरित्र उत्पन्न करने की आशा कैसे की जाए? आदर्श व्यक्तित्वों के बिना दिव्य समाज की भव्य रचना का स्वप्न साकार कैसे होगा? गाल बजाने वाले ‘ पर उपदेश कुशल बहुतेरे ’ लोगों द्वारा यह कर्म यदि संभव होता, तो वह अब से बहुत पहले ही सम्पन्न हो चुका होता। जरूरत उन लोगों की है जो आध्यात्मिक आदर्शों की प्राप्ति को जीवन की सबसे बड़ी सफलता अनुभव करें और अपनी आस्था की सचाई प्रमाणित करने के लिए बड़ी से बड़ी परीक्षा का उत्साहपूर्ण स्वागत करें।
-अखण्ड ज्योति, मार्च १९६४, पृष्ठ ५८

२. ईसा मसीह अपने शिष्यों से कहा करते थे कि जो सच्चा ईश्वर- भक्त है, वह अपना क्रूस (मौत) अपने कंधे पर रखकर मेरे पीछे- पीछे आए। संसार के प्रायः सभी ईश्वर- भक्तों, धर्म- परायणों, महामानवों और सत्पुरुषों को अपनी मनोभूमि को वास्तविकता की अग्नि- परीक्षा देनी पड़ी है। जो ईंट भट्टी में पकने से पहले इनकार कर दे वह पानी की बूँद पड़ते ही गल जाने वाली निकम्मी चीज बनी रहेगी। मजबूती प्राप्त करने के लिए तो आग को अपनाना ही होगा। कच्चा लोहा भट्टियों में ही तो फौलाद बनता है। ऊबड़- खाबड़, ओछे और घिनौने, स्वार्थी और तृष्णा- वासना ग्रसित मनुष्य को आत्म- कल्याण के पथ पर अग्रसर होने के लिए त्याग और बलिदान का मार्ग सदा ही अपनाना पड़ा है। इसका और कोई विकल्प न तो था और न आगे हो सकता है।-अखण्ड ज्योति, सितम्बर १९६६, पृष्ठ ४४

३. अपने प्रिय परिजनों को आत्मिक प्रगति के पथ पर क्रमशः अग्रसर करना हमारा लक्ष्य रहा है। प्रगति की मंजिलें जैसे- जैसे आगे बढ़ेंगी, ऊँची उठेंगी वैसे- वैसे ही शर्तें कड़ी होती चली जाएँगी। इसमें हमारा दोष नहीं है, यह अनादि परंपरा है। यदि एक- दो माला जपने, हनुमान चालीसा पढ़ने, दस- पाँच आहुतियाँ दे लेने और थोड़ी- सी पूजा- पाठ का कर्मकाण्ड निपटा लेने से आत्मिक- प्रगति का लक्ष्य प्राप्त हो सकना संभव रहा होता, तो हम अपने प्रियजनों को कदापि अधिकाधिक कष्टसाध्य वजन उठाने के लिए अनुरोध न करते। सस्ते में अधिक मूल्य की चीज मिल सकी होती, तो हमसे अधिक और कोई प्रसन्न न हुआ होता। छुटपुट कर्मकाण्डों से ही आत्मा की प्राप्ति हो जाया करे, तो कष्टसाध्य तपस्वी- जीवन में प्रवेश करने की आवश्यकता ही क्या रह जाए?

हमें पूरे विश्वास के साथ यह मान लेना चाहिए कि कीमती चीजें उचित मूल्य चुकाने पर ही मिलती हैं। स्वास्थ्य, शिक्षा, यश, धन आदि सांसारिक विभूतियाँ उपार्जित करने में लोगों को कितना घोर प्रयत्न और कितना साहस करना पड़ता है, फिर मानव जीवन की सर्वोपरि सार्थकता, सबसे बड़ा- चढ़ा लाभ, प्राप्त करने के लिए तनिक भी कठिनाई का सामना न करना पड़े, ऐसा किसी भी प्रकार संभव नहीं। जो सस्ते कर्मकाण्डों के सहारे स्वर्ग, मुक्ति एवं आत्मिक प्रगति की आशा लगाए बैठे रहते हैं, उन्हें वज्र मूर्खों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं समझना चाहिए।                                   -अखण्ड ज्योति, सितम्बर १९६६, पृष्ठ ४५

४. उपयुक्त पात्रों की खोज—

युग परिवर्तन के उपयुक्त व्यक्तियों तथा परिस्थितियों का अभाव दूर हो सके। हमारे गुरुदेव ने हमारी भौतिक सुविधाओं को एक- एक करके घटाया है और त्याग- बलिदान की आग में अधिकाधिक तपाया है। हमारा अगला कदम आगे और भी अधिक कठोरतापूर्ण है। हमें अपने इस सौभाग्य पर अत्यधिक हर्ष और संतोष है, क्योंकि हमें आत्मिक प्रगति की सुनिश्चित क्रम व्यवस्था का पता है। अनादिकाल से प्रत्येक आत्मिक स्तर पर ऊँचा उठने वाले को यही रीति- नीति अपनानी पड़ी है। हमारे लिए भी और कोई नया मार्ग कैसे हो सकता था?

प्रिय परिजनों के लिए या उनकी आत्मिक प्रगति के लिए इसी राजमार्ग पर चलने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। गाँधी जिन्हें प्यार करते थे उन्हें जेल भिजवाते थे। बुद्ध जिन्हें प्यार करते थे, उन्हें प्रव्रज्या देते थे। हम भी परिजनों को असुविधाएँ ही दे सकते हैं। ऊँचा उठने के लिए और कोई सरल मार्ग यदि हमारे हाथ में रहा होता, तो उसे बताते हुए प्रसन्नता ही अनुभव करते, पर सस्ते मूल्य पर ऊँची उपलब्धियाँ पाने का जब कोई विधान ईश्वर ने रखा ही नहीं तो हमें विवशता ही व्यक्त करनी पड़ती है। कुछ भी त्याग न करने पर भी आत्म लाभ हो सकने का झूठा आश्वासन दे सकना भी तो हमसे बन नहीं पड़ता।-अखण्ड ज्योति, सितम्बर १९६६, पृष्ठ ४६

५. हमें अपनी क्रिया पद्धति अगले दिनों समाप्त करनी है, अपने उत्तरदायित्व मजबूत कंधों पर सौंपने हैं। हमारी समस्त गतिविधियों का केंद्र उत्कृष्ट व्यक्ति और उत्कृष्ट समाज की रचना है। इस प्रयोजन में जो लोग हमारा साथ दे सकते हों, वस्तुतः वे ही हमारे सच्चे आत्मीय हो सकते हैं।        -अखण्ड ज्योति, सितम्बर १९६६, पृष्ठ ४६ ६. जो खुद ही कुछ थोड़ा तप, त्याग कर सकने में असमर्थ होंगे, वे आखिर दूसरों से कुछ त्याग- बलिदान करने की बात किस मुँह से कह सकेंगे? अब गाल बजाने वालों का जमाना चला गया। बढ़- चढ़ कर बोलने और लिखने से जनता का मनोरंजन मात्र ही हो सकता है। प्रभाव उनका पड़ता है, जो कुछ स्वयं करते हैं। जन मानस को त्याग- बलिदान की प्रेरणा दे सकने की आवश्यकता केवल वे ही लोग पूरी कर सकेंगे जो पहले अपने जीवन में वैसा कुछ कर सकने की अपनी प्रामाणिकता सिद्ध कर चुके होंगे।

        -अखण्ड ज्योति, नवम्बर १९६६, पृष्ठ ४७


७. कभी हमने पूर्व जन्मों के सत् संस्कार वालों और अपने साथी सहचरों को बड़े प्रयत्नपूर्वक ढूँढ़ा था और ‘अखण्ड ज्योति परिवार’ की शृंखला में गूँथकर एक सुंदर गुलदस्ता तैयार किया था। मंशा थी इन्हें देवता के चरणों में चढ़ाएँगे। पर अब जब बारीकी से नजर डालते हैं कि कभी के अति सुरम्य पुष्प अब परिस्थितियों ने बुरी तरह विकृत कर दिए हैं। वे अपनी कोमलता, शोभा और सुगंध तीनों ही खोकर बुरी तरह इतना मुरझा गए कि हिलाते- डुलाते हैं, तो भी सजीवता नहीं आती उलटी पंखुड़ियाँ झर जाती हैं।

        ऐसे पुष्पों को फेंकना तो नहीं है, क्योंकि मूल संस्कार जब तक विद्यमान हैं, तब तक यह आशा भी है कि कभी समय आने पर इनका भी कुछ सदुपयोग सम्भव होगा, किसी औषधि में यह मुरझाए फूल भी कभी काम आएँगे। पर आज तो देव वेदी पर चढ़ाएँ जाने योग्य सुरभित पुष्पों की आवश्यकता है, सो उन्हीं की छाँट करनी पड़ रही है। अभी आज तो सजीवता ही अभीष्ट है और वस्तुस्थिति की परख तो कहने- सुनने, देखने- मानने से नहीं वरन कसौटी पर कसने से ही होती है। सो परिवार की सजीवता- निर्जीवता, श्रद्धा- अश्रद्धा, आत्मीयता, विडम्बना के अंश परखने के लिए यह वर्तमान प्रक्रिया प्रस्तुत की है।

        -अखण्ड ज्योति, अगस्त १९६९, पृष्ठ १०, ११


८. अगल चरण और कठिन होंगे—

        हम भाग्यशाली हैं, जो सस्ते में निपट रहे हैं। असली काम और बढ़े- चढ़े त्याग- बलिदान अगले लोगों को करने पड़ेंगे। अपने जिम्मे ज्ञानयज्ञ का समिधाधान और आज्याहुति होम मात्र प्रथम चरण आया है। आकाश छूने वाली लपटों में आहुतियाँ अगले लोग देंगे। हम प्रचार और प्रसार की नगण्य जैसी प्रक्रियाएँ पूरी करके सस्ते में छूट रहे हैं। रचनात्मक और संघर्षात्मक अभियानों का बोझ तो अगले लोगों पर पड़ेगा।

        कोई प्रबुद्ध व्यक्ति नवनिर्माण के इस महाभारत में भागीदार बने बिना बच नहीं सकता। इस स्तर के लोग कृपणता बरतें तो उन्हें बहुत मँहगी पड़ेगी। लड़ाई के मैदान से भाग खड़े होने वाले भगोड़े सैनिकों की जो दुर्दशा होती है, अपनी भी उससे कम न होगी। चिरकाल बाद युग परिवर्तन की पुनरावृत्ति हो रही है। रिजर्व फोर्स के सैनिक मुद्दतों से मौज- मजा करते रहे, कठिन प्रसंग सामने आया तो कतराने लगे, यह अनुचित है। परिजन एकांत में बैठकर अपनी वस्तुस्थिति पर विचार करें, वे अन्न कीट और भोग कीटों की पंक्ति में बैठने के लिए नहीं जन्मे हैं। उनके पास जो आध्यात्मिक सम्पदा है, वह निष्प्रयोजन नहीं है। अब उसे अभीष्ट विनियोग में प्रयुक्त किए जाने का समय आ गया, सो उसके लिए अग्रसर होना ही चाहिए।

        -अखण्ड ज्योति, सितम्बर १९६९, पृष्ठ ६५


९. कितने व्यक्ति कहते रहते हैं कि हम आपके साथ हिमालय चलेंगे। उनसे यही कहना है कि वे आदर्शों के हिमालय पर उसी तरह चढ़ें जिस तरह हम जीवन भर चढ़ते रहे। तपश्चर्या का मार्ग अति कठिन है। हमारी हिमालय यात्रा कश्मीर की सैर नहीं है जिसका मजा लूटने हर कोई बिस्तर बाँधकर चल दे। उसकी पात्रता उसी में हो सकती है जिसने आदर्शों के हिमालय पर चढ़ने की प्राथमिक पात्रता एकत्रित कर ली। सो हम अपने हर अनुयायी से अनुरोध करते रहे हैं और अब अधिक सजीव शब्दों में अनुरोध करते हैं कि वे बड़प्पन की आकांक्षा को बदलकर महानता की आराधना शुरू कर दें।

        यह युग परिवर्तन का शुभारंभ है जो हमारे परिजनों को तो आरंभ कर ही देना चाहिए। ‘हम बदलेंगे युग बदलेगा’ का नारा हमें अपने व्यक्तिगत जीवन की विचार पद्धति और कार्य प्रणाली में आमूल चूल परिवर्तन प्रस्तुत करके सार्थक बनाना चाहिए। निस्संदेह अपने परिवार में इस प्रकार का बदलाव यदि आ जाए तो फिर कोई शक्ति युग परिवर्तन एवं नव निर्माण को सफल बनाने में बाधक न हो सकेगी।

        -अखण्ड ज्योति, जून १९७१, पृष्ठ ५६


१०. संगठित अभियानों को नष्ट करने के लिए कार्यकर्ताओं में फूट डालने, बदनाम करने, बल प्रयोग से आतंकित करने, जैसे प्रयत्न सर्वत्र हुए हैं। ऐसा क्यों होता है यह विचारणीय है। सुधारक पक्ष को अवरोधों का सामना करने पर उनकी हिम्मत टूट जाने, साधनों के अभाव से प्रगति क्रम शिथिल या समाप्त हो जाने जैसे प्रत्यक्ष खतरे तो हैं, किन्तु परोक्ष रूप से इसके लाभ भी बहुत हैं। व्यक्ति की श्रद्धा एवं निष्ठा कितनी सच्ची और कितनी ऊँची है इसका पता इसी कसौटी पर कसने से लगता है कि आदर्शों का निर्वाह कितनी कठिनाई सहन करने तक किया जाता रहा। अग्नि में तपाए जाने और कसौटी पर कसे जाने से कम में, सोने के खरे- खोटे होने का पता चलता ही नहीं। आदर्शों के लिए बलिदान से ही महामानवों की अंतःश्रद्धा परखी जाती है और उसी अनुपात से उनकी प्रामाणिकता को लोकमान्यता मिलती है। जिनको कोई कठिनाई नहीं सहनी पड़ी, ऐसे सस्ते नेता सदा संदेह और आशंका का विषय बने रहते हैं। श्रद्धा और सहायता किसी पर तभी बरसती है जब वह अपनी निष्ठा का प्रभाव प्रतिकूलताओं से टकरा कर प्रस्तुत करता है।

        -अखण्ड ज्योति, अगस्त १९७९, पृष्ठ ५३

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