युगऋषि की वेदना एवं उमंगें जानें तदनुसार कुछ करें

महाकाल की चेतावनी

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१. चेतें, चूक न करें—

        नया युग तेजी से बढ़ता चला आ रहा है। उसे कोई रोक न सकेगा। प्राचीनकाल की महान परम्पराओं को अब पुनः प्रतिष्ठित किया जाना है और मध्यकालीन अंधकार युग की दुष्ट विषमताओं का तिरोधान होना है। महाकाल उसके लिए आवश्यक व्यवस्था बना रहे हैं और तदनुकूल आधार उत्पन्न कर रहे हैं। युग का परिवर्तन अवश्यंभावी है। हमारा छोटा- सा जीवन इसी की घोषणा करने, सूचना देने के लिए है। परिस्थिति के अनुरूप जो समय रहते बदल सकेंगे वे संतोष और सम्मान प्राप्त करेंगे और जो बदलेंगे नहीं, मूढ़ता के लिए दुराग्रह करेंगे वे बुरी तरह कुचले जाएँगे। उनके हाथ अपयश, असंतोष एवं पश्चात्ताप के अतिरिक्त और कुछ न लगेगा।                   

        -अखण्ड ज्योति, जुलाई १९६९, पृष्ठ ६५


२. व्यक्ति के नाम हमारा उद्बोधन सदा से यही रहा है कि वह मात्र शरीर ही नहीं, आत्मा भी है। केवल परिवार तक की उसकी जिम्मेदारी सीमित नहीं, वरन समाज तक व्यापक है। केवल इन्द्रियाँ ही नहीं, अंतःकरण को भी तृप्त किया जाए। केवल भौतिक जीवन को ही सब कुछ न मान लिया जाए, आत्मिक जीवन की महत्ता एवं आवश्यकता को भी समझा जाए। कह नहीं सकते, हमारे उद्बोधन का किस प्रकार कितना प्रभाव पड़ा। पर यदि पड़ा होगा, तो उसे सौ बार यह सोचने को विवश होना पड़ा होगा कि उसकी वर्तमान गतिविधियाँ न तो संतोषजनक हैं, न पर्याप्त। उसे कुछ कदम आगे बढ़कर कुछ ऐसा करना चाहिए, जो अधिक महत्त्वपूर्ण हो, अधिक आत्मशांति और आंतरिक संतोष दे सके।

        ऐसे कदम उठा सकना हर किसी के लिए संभव है। केवल आत्मबल का अभाव ही ऐसे पारमार्थिक कदम उठाने से रोकता है, जो सुरदुर्लभ मानव जीवन के अमूल्य अवसर को सार्थक बना सके। तात्त्विक दृष्टि से देखने पर प्रतीत होता है कि हम व्यर्थ और अनर्थ कहे जा सकने वाले क्रिया- कलापों में लगे रहे और कीमती जीवन के हीरे- मोतियों से तोले जा सकने योग्य बहुमूल्य क्षण यों ही गँवा दिए। जिन उपार्जन को तुच्छ- सा शरीर लेकर तुच्छ जीवधारी पूरा कर लेते हैं, उन्हीं के इर्द- गिर्द मनुष्य का जीवन भी चक्कर काटे और अंततः अपने को बिना किसी उपलब्धि के यों ही समाप्त कर ले, तो इसे एक दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटना ही कहा जाएगा। हमने सदा सचेत किया है कि परिजनों का जीवनक्रम इतना घटिया न बीतना चाहिए। पेट और प्रजनन कोई बड़े आदर्श नहीं।

        प्रकृति ने ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि कीट- पतंग और पशु- पक्षी भी इन दो आवश्यकताओं को पूरा कर लेते हैं। फिर मनुष्य जैसे बुद्धिजीवी के लिए उनकी पूर्ति क्या कठिन हो सकती है? इतना ही उद्देश्य अपना है तो उसे पशु जीवन कहा जाएगा। मानव जीवन की विशेषता तो आदर्शवादिता और उत्कृष्टता पर निर्भर है। यदि उस दिशा में कुछ न किया जा सका तो निस्संकोच यही कहा जाएगा कि जीवन व्यर्थ चला गया।

        जीवन बहुमूल्य है, उसे निरर्थक प्रयोजनों के लिए खर्च कर डालना एक ऐसी बड़ी भूल है, जिसके लिए हजारों वर्षों प्रायश्चित करना होगा। हर दिन इसलिए अश्रुपात करना होगा कि नर शरीर का एक बहुमूल्य अवसर मिला था, उसे हमने आत्मकल्याण के लिए खरच न कर उन्हीं निरर्थकताओं में लगा दिया, जिन्हें निम्न योनि वाले जीव भी बड़ी आसानी से पूरा कर लेते हैं। अगले ही दिनों इस पश्चात्ताप की आग में से अपने को गुजरना पड़ेगा, इस वस्तुस्थिति की आगाही हमने निरन्तर दी है। पता नहीं किस पर कितना उस चेतावनी का असर पड़ा और कितनों ने इसे निरर्थक बकवास कह मुख फेर लिया।                  

        -अखण्ड ज्योति, नवम्बर १९६९, पृष्ठ ६१


३. दो में एक रास्ता चुनें—

        मूढ़तावादी मोहग्रस्त असुर वर्ग और लोकमंगल की भूमिका सम्पादित करने में संलग्न देव- वर्ग इन दोनों को ही अगले दिनों अपनी रीति- नीति की श्रेष्ठता- निकृष्टता प्रस्तुत करने का अवसर मिलेगा। दोनों गतिविधियों के सत्परिणाम और दुष्परिणाम उपस्थित होंगे और उनको देख- समझकर भावी पीढ़ी को यह निश्चय करने का अवसर मिलेगा कि उपरोक्त दोनों पद्धतियों में से कौन उपयुक्त और कौन अनुपयुक्त है। इनमें से किसे ग्रहण किया जाए और किसे त्यागा जाए? अगले दिनों हमें इनमें से किसी एक वर्ग में सम्मिलित होना होगा, बीच में नहीं रहा जा सकता। महाकाल के विधान में प्रतिरोध प्रस्तुत करने वाले मूढ़तावादी लोगों में सम्मिलित रहना हो तो खुशी- खुशी वैसा करें और करालकाल- दंड के प्रहार सहने को तैयार रहें। यदि यह अभीष्ट न हो तो ईश्वरीय प्रयोजन की पूर्ति में सहायक बनकर चलना ही उचित है। तब हमें अपनी गतिविधियाँ अभी से बदलनी होंगी और उस पुण्य प्रक्रिया को अपनाना होगा जिसमें आत्मकल्याण और विश्वकल्याण दोनों का ही समान रूप से समन्वय हो।                   

        -अखण्ड ज्योति, दिसम्बर १९६७, पृष्ठ ४


४. लोभ, मोह के बंधन में न फँसे—

        अब किसी को भी धन का लालच नहीं करना चाहिए और बेटे- पोतों को दौलत छोड़ मरने की विडम्बना में नहीं उलझना चाहिए। यह दोनों ही प्रयत्न निरर्थक सिद्ध होंगे। अगला जमाना जिस तेजी से बदल रहा है, उससे इन दोनों विडम्बनाओं से कोई लाभान्वित न हो सकेगा, वरन् लोभ और मोह की इस दुष्प्रवृत्ति के कारण सर्वत्र धिक्कारा भर जाएगा। दौलत छिन जाने का दुःख और पश्चात्ताप सताएगा, सो अलग। इसलिए यह परामर्श हर दृष्टि से सही ही सिद्ध होगा कि मानव जीवन जैसी महान उपलब्धि का उतना ही अंश खर्च करना चाहिए, जितना निर्वाह के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक हो। इस मान्यता को हृदयंगम किए बिना आज की युग पुकार के लिए किसी के लिए कुछ ठोस कार्य कर सकना संभव न होगा। एक ओर से दिशा मुड़े बिना दूसरी दिशा में चल सकना सम्भव ही न होगा।

        लोभ-मोह में जो डूबा हुआ होगा, उसे लोकमंगल के लिए न समय मिलेगा न सुविधा। सो परमार्थ पक्ष पर चलने वालों को सबसे प्रथम अपने इन दो शत्रुओं को - रावण, कुम्भकरणों को, कंस, दुर्योधनों को निरस्त करना होगा। यह दो आंतरिक शत्रु ही जीवन विभूति को नष्ट करने के सबसे बड़े कारण हैं। सो इनसे निपटने का अंतिम महाभारत हमें सबसे पहले आरंभ करना चाहिए। देश के सामान्य नागरिक जैसे स्तर का सादगी और मितव्ययितापूर्ण जीवन स्तर बनाकर स्वल्प व्यय में गुजारे की व्यवस्था बनानी चाहिए और परिवार को स्वावलम्बी बनाने की योग्यता उत्पन्न करने और हाथ- पाँव से कमाने में समर्थ बनाकर उन्हें अपना वजन आप उठा सकने की सड़क पर चला देना चाहिए। बेटे- पोतों के लिए अपनी कमाई की दौलत छोड़कर मरना, भारत की असंख्य कुरीतियों और दुष्ट परम्पराओं में से एक है। संसार में अन्यत्र ऐसा नहीं होता।

        लोग अपनी बची हुई कमाई को जहाँ उचित समझते हैं, वसीयत कर जाते हैं। इसमें न लड़कों को शिकायत होती है न बाप को, कंजूस कृपण की गालियाँ पड़ती हैं, सो अलग। इसलिए हम लोगों में से जो विचारशील हैं, उन्हें तो ऐसा साहस इकट्ठा करना चाहिए। जिनके पास इस प्रकार का ब्रह्मवर्चस न होगा, वे माला सटकाकर, पूजा- पत्री उलट- उलट कर मिथ्या आत्मप्रवंचना भले ही करते रहें, वस्तुतः परमार्थ पथ पर एक कदम भी न बढ़ सकेंगे।

        समय, श्रम, मन और धन का अधिकाधिक समर्पण विश्वमानव की सेवा कर सकने की स्थिति तभी बनेगी जब लोभ और मोह के खरदूषण कुछ अवसर मिलने दें। जिनके पास गुजारे भर के लिए पैतृक संपत्ति मौजूद है, उनके लिए यही उचित है कि आगे के लिए उपार्जन बिलकुल बंद कर दें और सारा समय परमार्थ के लिए लगाएँ। प्रयत्न यह भी होना चाहिए कि सुयोग्य स्त्री- पुरुषों में से एक कमाए, घर खर्च चलाए और दूसरे को लोकमंगल में प्रवृत्त होने की छूट दे दे।

        संयुक्त परिवारों में से एक व्यक्ति विश्व सेवा के लिए निकाला जाए और उसका खर्च परिवार वहन करे। जिनके पास संग्रहित पूँजी नहीं है। रोज कमाते, रोज खाते हैं उन्हें भी परिवार का एक अतिरिक्त सदस्य, बेटा ‘लोकमंगल’ को मान लेना चाहिए और उसके लिए जितना श्रम, समय और धन अन्य परिवारियों पर खर्च होता है, उतना तो करना ही चाहिए।                

        -अखण्ड ज्योति, जून १९७१, पृष्ठ- ५६, ५७


५. धर्मतंत्र को परिष्कृत करना होगा—

        उपाय आज खोजा जाए या हजार वर्ष बाद, प्रयत्न आज किया जाए या हजार वर्ष बाद इससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं। व्यक्ति और समाज के सम्मुख खड़ी हुई अनेकानेक समस्याओं, विपत्तियों और विभीषिकाओं का हल निकलेगा, तभी जब मानवी अंतःकरण में उत्कृष्ट आस्थाओं के बीजारोपण तथा परिपोषण का प्रयास युद्धस्तरीय तत्परता के साथ आरंभ होगा। इसके लिए न राजनीति से काम चलेगा न अर्थ तंत्र के बलबूते कुछ ठीक काम हो सकेगा। उसे मात्र धर्म तंत्र ही कर सकता है। आज धर्म का कलेवर उपहासास्पद और विद्रूप हो गया है, यह ठीक है, किन्तु यह भी ठीक है कि इसी को परिष्कृत, प्रखर एवं सुनियोजित बनाने पर भावनात्मक नव निर्माण का महान कार्य सम्पन्न हो सकेगा। इसके अतिरिक्त और कोई उपाय है नहीं।

        सम्पदा को अर्थ तन्त्र, शरीर को चिकित्सा तन्त्र, मस्तिष्क को शिक्षा तन्त्र, व्यवस्था को शासन तन्त्र प्रभावित कर सकता है, परन्तु अंतःकरण को प्रभावित करने की क्षमता धर्मतन्त्र के अतिरिक्त और किसी में भी है नहीं। टूटे को सुधारा जाए या उसे नए सिरे से ढाला जाए यह तकनीकी प्रश्न है। मूल तथ्य जहाँ का तहाँ रहता है कि विपत्तियों से छुटकारा पाने और उज्ज्वल भविष्य को मूर्तिमान करने में धर्मतन्त्र की सहायता लिए बिना काम किसी भी प्रकार नहीं चल सकता। बहस शब्द की नहीं, विवेचना तथ्य की है।

        किसी को धर्म-अध्यात्म से चिढ़ हो, तो उनको संतुष्ट कराने वाले शब्द दूसरे शब्दकोष में ढूँढ़ निकाले जा सकते हैं। पर करना यह होगा कि व्यक्ति एवं समाज की अनेकानेक दिशाधाराओं को प्रभावित करने वाले अंतःकरण को उत्कृष्टता की सम्पदा से सुसम्पन्न बनाया जाए, मानवी संस्कृति के अवमूल्यन का अन्त किया जाए, श्रद्धा और विवेक के समन्वय को, दृष्टिकोण को आधारभूत तथ्य बनाया जाए। प्रज्ञावतार का प्रयोजन यही है। उसका कार्यक्षेत्र जन- जन की आस्थाओं को अध्यात्म के आधार पर और आदतों को धर्म धारणा के सहारे परिष्कृत करना है। उत्कृष्टता के प्रति श्रद्धा संवर्द्धन उसका प्रधान कार्यक्रम है। यह गतिचक्र जितनी तेजी से परिभ्रमण करेगा नवयुग के दिव्य दर्शन की पुण्य वेला उतनी ही समीप आती चली जाएगी।   

        -अखण्ड ज्योति, अगस्त १९७९, पृष्ठ ३१


६.प्रत्यावर्तन ही युग परिवर्तन है—

        विगलित का अभिनव के रूप में प्रत्यावर्तन ही युग परिवर्तन है। व्यष्टि में दुष्टता और समष्टि में भ्रष्टता के तत्त्व बढ़ गए हैं। औचित्य का स्थान औचित्य हथियाता चला जा रहा है। समूहगत सहकारिता कुंठित हो गई है और संकीर्ण स्वार्थपरता का बोल- बाला है। प्रवृत्तियाँ सृजन का बहाना भर करती हैं। व्यवहार में ध्वंस ही उनकी दिशाधारा है। ऐसी दशा में बड़े परिवर्तन से कम में काम नहीं चल सकता। प्रवाह को उलटना बड़ा काम है, विशेषतया निकृष्टता की सड़क पर जब आतुर घुड़दौड़ मच रही हो तो पवमानों की लगाम पकड़ना और उन्हें रुकने ही नहीं, उलटने के लिए विवश करना, एक बहुत बड़ा काम है; साथ ही अति कठिन भी, श्रम- साध्य और साधन- साध्य भी।

        क्रांतियों की बात करना सरल है, योजनाएँ बनने में भी देर नहीं लगती, किन्तु उन्हें कर दिखाना और सफल बनाना दुस्तर होता है। श्रेय हलचलों को नहीं, सफल प्रतिफल को मिलता है। इस दृष्टि से क्षेत्रीय और सामयिक क्रांतियाँ भी आंशिक रूप से ही सफल हो पाती हैं। फिर चार सौ करोड़ मनुष्यों की मनःस्थिति और २५ हजार मील परिधि के भूमण्डल की परिस्थितियों को बदल देना कितना कठिन कार्य है, इसकी कल्पना करने भर से सामान्य बुद्धि उतनी ही हतप्रभ हो जाती है जितनी कि विशिष्ट प्रज्ञा, ब्रह्माण्ड के विस्तार और उसके अंतराल में चलती हुई हलचलों को देखकर। फिर भी काम तो काम ही है। जो होना है वह तो होगा ही। दूसरा विकल्प नहीं। यह जीवन और मरण का चौराहा है। जहाँ आज की दुनियाँ आ खड़ी हुई है। वहाँ से आगे बढ़ने के लिए दो ही मार्ग हैं एक सर्वनाश, दूसरा नव सृजन। चुनाव इन्हीं दोनों में से एक का होना है। नियति को इन्हीं दोनों में से एक का चयन करना है।                 

        -अखण्ड ज्योति, सितम्बर १९७९, पृष्ठ ५२


७. पेट और प्रजनन तक सीमित न रहें—

        प्रत्येक परिजन को पेट और प्रजनन की पशु प्रक्रिया से ऊँचे उठकर उन्हें दिव्य जीवन की भूमिका संपादित करने के लिए कुछ सक्रिय कदम बढ़ाने चाहिए। मात्र सोचते विचारते रहा जाए और कुछ किया न जाए तो काम न चलेगा। हममें से प्रत्येक को अधिक ऊँचा दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और कर्तृत्व में ऐसा हेर- फेर करना चाहिए, जिसके आधार में परमार्थ प्रयोजनों को अधिकाधिक स्थान मिल सके। उपलब्ध विभूतियों और सम्पदाओं को अपने शरीर और अपने परिवार के लिए सीमित नहीं कर लेना चाहिए, वरन् उनका एक महत्त्वपूर्ण अंश लोकमंगल के लिए नियोजित करना चाहिए।                

        -अखण्ड ज्योति, मई १९७२, पृष्ठ ४३


८. राजतन्त्र और धर्मतन्त्र परस्पर पूरक—

        यह ध्यान रखने की बात है कि संसार की दो ही प्रमुख शक्तियाँ हैं- एक राजतंत्र दूसरी धर्मतंत्र। राजसत्ता में भौतिक परिस्थितियों को प्रभावित करने की क्षमता है और धर्मसत्ता में अंतश्चेतना को। दोनों को कदम से कदम मिलाकर एक दूसरे की पूरक होकर रहना होगा। यह धोखा है कि राजनीति का धर्म से कोई संबंध नहीं। सच्ची बात यह है कि एक के बिना दूसरा अपूर्ण है। कर्तव्यनिष्ठ और सदाचारी नागरिकों के बिना कोई राज्य समर्थ, समुन्नत नहीं हो सकता और राजसत्ता यदि धर्मसत्ता को उखाड़ने की ठान ले, तो फिर उसके लिए भी कुछ अधिक कर सकना कठिन है। रामराज्य तभी सफल रह सका जब उस पर वशिष्ठ का नियंत्रण था। चन्द्रगुप्त की शासन गरिमा का श्रेय चाणक्य के मार्गदर्शन को ही दिया जा सकता है। प्राचीनकाल की यह परम्परा आगे भी चलेगी। धर्मसत्ता का स्थान पहला है; इसलिए राजसत्ता को उसका समर्थक और सहायक ही बनकर रहना चाहिए।

        -अखण्ड ज्योति, मई १९७२, पृष्ठ ३६


९. विवेकपूर्ण तालमेल जरूरी—

        सभी मनुष्य हमारे जैसे विचार के नहीं हो सकते हैं और न हर परिस्थिति हमें प्रिय लगने वाली हो सकती है। ऐसी दशा में सहिष्णुता ही अपनानी पड़ती है। यदि तालमेल न बैठता हो तो उन परिस्थितियों से हट जाने या हटा देने का रास्ता अपनाया जा सकता है, पर निरन्तर टकराव का कोई प्रयोजन नहीं। सुधार यदि अपनी मर्जी जैसा नहीं हो सकता, तो इसे दुर्भाग्य मान बैठना और खीजने या असंतुलित होने लगना व्यर्थ है।              

        -अखण्ड ज्योति, फरवरी १९७४, पृष्ठ ३४


१०. हमें व्यक्तियों अथवा परिस्थितियों की विपरीतता देखकर आवेशग्रस्त नहीं होना चाहिए। क्रोध में आना या हताश हो बैठना दोनों ही मनुष्य की आन्तरिक कमजोरी की निशानी हैं। परिस्थितियों से धैर्य और औचित्य के आधार पर निपटा जाना चाहिए और सफलता को अनिवार्य न मानकर अपने प्रयास एवं कर्तव्य की सीमा में सन्तोष करना चाहिए।

        -अखण्ड ज्योति, फरवरी १९७४, पृष्ठ ३४


११. भगवान् की इच्छा युग- परिवर्तन की व्यवस्था बना रही है। इसमें सहायक बनना ही वर्तमान युग में जीवित प्रबुद्ध आत्माओं के लिए सबसे बड़ी दूरदर्शिता है। अगले दिनों में पूँजी नामक वस्तु किसी व्यक्ति के पास नहीं रहने वाली है। धन एवं संपत्ति का स्वामित्व सरकार एवं समाज का होना सुनिश्चित है। हर व्यक्ति अपनी रोटी मेहनत करके कमाएगा और खाएगा। कोई चाहे तो इसे एक सुनिश्चित भविष्यवाणी की तरह नोट कर सकता है। अगले दिन इस तथ्य को अक्षरशः सत्य सिद्ध करेंगे। इसलिए वर्तमान युग के विचारशील लोगों से हमारा आग्रहपूर्वक निवेदन है कि वे पूँजी बढ़ाने, बेटे- पोतों के लिए जायदाद इकट्ठी करने के गोरखधंधे में न उलझें। राजा और जमींदारों को मिटते हमने अपनी आँखों देख लिया, अब इन्हीं आँखों को व्यक्तिगत पूँजी को सार्वजनिक घोषित किया जाना देखने के लिए तैयार रहना चाहिए।             

        -अखण्ड ज्योति, मार्च १९६७, पृष्ठ ३४, ३५


१२. सच्चे साथी सिद्ध हों—

        हमारे चले जाने के बाद युग परिवर्तन का दृश्य और स्थूल क्रियाकलाप जारी रखना हमारे हर प्रेमी, स्वजन, आत्मीय और सहचर का कर्त्तव्य है। जिसके भी मन में हमारे प्रति श्रद्धा, सद्भावना हो, वह उसे भीतर ही दबाकर न रखे। उसे रोने- कलपने तक सीमाबद्ध न करे। वरन् उस संवेदना को मिशन को अधिक सहयोग देने में बदल दे। मरने के बाद पितरों का श्राद्ध, तर्पण उसके वंशज अधिक भावनापूर्वक करते हैं। वियोग की व्यथा और श्रद्धा की प्रखरता का उभार जिस रचनात्मक मार्ग से प्रकट हो सके उसे श्राद्ध कहते हैं। आशा करनी चाहिए कि हमारे प्रति जहाँ भी श्रद्धा होगी श्राद्ध के रूप में परिणत और विकसित होकर रहेगी।

        मिशन अभी ‘ज्ञानयज्ञ’ की प्रथम कक्षा में चल रहा है। इसे और अधिक व्यापक बनाया जा सके। ज्ञानघट, झोला-पुस्तकालय हमारे लिए पिण्डदान और तर्पण के श्रेष्ठतम आधार माने जा सकते हैं। हमारी आत्मा जहाँ कहीं भी स्वजनों को यह धर्मकृत्य करते देखेगी- संतोष और आनंद अनुभव करेगी। इस क्रिया- कलाप में संलग्न भावनाशील परिजनों को हमारा स्नेह, आशीर्वाद, संरक्षण, सहयोग और सान्निध्य अपने चारों ओर बिखरा दिखाई देगा। सुविकसित पुष्पों पर उड़ने वाले भौंरों की तरह ऐसे दूरदर्शी और सेवाभावी परिजनों के इर्द- गिर्द हम मँडराते ही रहेंगे और उन्हें अपना भावभरा गुंजन अति उत्साहपूर्वक निरंतर सुनाते रहेंगे।

        मिशन के अगले कदम रचनात्मक और संघर्षात्मक कार्यक्रमों से भरे हुए हैं। अवांछनीयता के विरुद्ध एक अति उग्र और अति व्यापक संघर्ष छेड़ना पड़ेगा। विचारों को विचारों से काटने की एक घमासान लड़ाई अगले दिनों होकर रहेगी। अनुचित और अन्याय का उन्मूलन किया जाना है इसके लिए घर- घर और गली- गली में जो भावी महाभारत लड़ा जाएगा उसकी रूपरेखा विस्तारपूर्वक बता चुके हैं, यह विश्व का अंतिम युद्ध होगा। इसके बाद युद्ध का वर्तमान वीभत्स स्वरूप सदा के लिए समाप्त हो जाएगा।

        अनुचित के उन्मूलन के साथ- साथ सृजन के लिए अनेक रचनात्मक प्रवृत्तियाँ विकसित की जाती हैं। नींव खोदना ही काफी नहीं, महल की दीवार भी तो चुननी पड़ेगी। ध्वंस के साथ सृजन और आपरेशन के साथ मरहम पट्टी और सिलाई, सफाई का प्रबंध अनिवार्य रूप से जुड़ा रहता है। सो समयानुसार वे कथाएँ भी जल्दी ही सामने आने वाली हैं। ज्ञानयज्ञ की आग में पका- पकाकर इन दिनों उस सृजन के लिए ईंट चूने के भट्टे लगाए जा रहे हैं। इसमें जैसे ही प्रखरता आई कि दूसरे मोर्चे खड़े हुए। अज्ञान, अभाव और अशक्ति के तीनों मोर्चों पर अपनी सेना कमान सँभालेगी।
बौद्धिक क्रांति अकेली नहीं है। उसके साथ- साथ नैतिक क्रांति और सामाजिक क्रांति भी अविछिन्न रूप से संबद्ध हैं।

        राजनैतिक स्वाधीनता के लिए लड़ा गया संग्राम जितनी जनशक्ति और साधनों से लड़ा गया, अपना मोर्चा बहुत बड़ा, कम से कम तिगुना होने के कारण उसके लिए तिगुनी जनशक्ति, श्रमशक्ति, भावशक्ति और धनशक्ति की आवश्यकता पड़ेगी। ज्ञानयज्ञ के विस्तार से ही यह उपलब्धियाँ हाथ लगेंगी, इसलिए इसी आरंभिक चरण पर इन दिनों अधिक जोर दिया जा रहा है। सीमित इतने तक नहीं रह सकते। हाथ पाँवों में जरा सी गरमी आते ही मंजिल की ओर अधिक तत्परतापूर्वक कदम उठने स्वयं ही शुरू हो जाएँगे और वे तब तक बढ़ते ही रहेंगे जब तक मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का लक्ष्य पूरा नहीं हो जाता।

        हम इस सारे चक्रव्यूह का संचालन परदे के पीछे बैठकर करेंगे। हमारा प्रयाण नवनिर्माण के पथ पर चलने वाले किसी सैनिक को अखरेगा नहीं; क्योंकि अदृश्य रहते हुए भी हम दृश्य व्यक्तियों से अधिक समर्थ बनकर, अधिक साहस और अधिक क्षमता के साथ अधिक योगदान, अधिक मार्गदर्शन कर सकने में समर्थ होंगे। छोड़े हुए काम को अधूरा छोड़कर हम कंधा डालने वाले नहीं हैं। हमारी सत्ता दृश्य रहे या अदृश्य, लोक में रहे या परलोक में, इससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं। प्रश्न केवल मिशन की प्रगति में योगदान करने का है सो हम किसी भी स्थिति में रहते हुए निरंतर करते रहेंगे। साथी सहचरों को अकेला छोड़कर चल देना हमारे लिए उचित नहीं होगा।

        -अखण्ड ज्योति, मार्च १९७१, पृष्ठ ५२


१३. जो घटित होने वाला है उस सफलता के लिए श्रेयाधिकारी भागीदार बनने से दूरदर्शी विज्ञजनों में से किसी को भी चूकना नहीं चाहिए। यह लोभ- मोह के लिए खपने और अहंकार प्रदर्शन के लिए ठाठ- बाट बनाने की बात सोचने और उसी स्तर की धारणा रीति- नीति अपनाये रहने का समय नहीं है। औसत नागरिक स्तर का निर्वाह और परिवार को बढ़ाने की अपेक्षा स्वावलम्बी बनाने का निर्धारण किया जाए, तो वह बुद्धिमत्ता भरा लाभदायक निर्धारण होगा। जिनसे इतना बन पड़ेगा वे देखेंगे कि उनके पास युगसृजन के निमित्त कितना अधिक तन, मन, धन का वैभव समर्पित करने योग्य बच जाता है। जबकि लिप्साओं में ग्रस्त रहने पर व्यस्तता और अभावग्रस्तता की ही शिकायत बनी रहती है।

        श्रेय सम्भावना की भागीदारी में सम्मिलित होने का सुयोग्य- सौभाग्य जिन्हें अर्जित करना है, हमारी ही तरह भौतिक जगत् में संयमी- सेवाधर्मी बनना पड़ेगा। सादा जीवन उच्च विचार का मंत्र अपने रोम- रोम में जमाना पड़ेगा। इतना कर सकने वाले ही अगले दिनों की दिव्य भूमिकाएँ, हमारे छोड़े उत्तराधिकार को वहन कर सकेंगें।

        -अखण्ड ज्योति, फरवरी १९८७, पृष्ठ ६४

१४. अखण्ड ज्योति परिवार के प्रत्येक सदस्य को प्रतिनिधि अथवा उत्तराधिकारी बनाने का खुला आमंत्रण प्रस्तुत किया गया है। प्रश्न साहस का है। जिनमें हिम्मत हो, वे इस निमंत्रण को स्वीकार कर सकते हैं। कोई भौतिक पदार्थ बाँटे जा रहे होते, तो अगणित याचक आ खड़े होते, पर यहाँ तो लेने का नहीं देने का प्रश्न है। भोग का नहीं, त्याग का प्रश्न है। इसलिए स्वभावतः कोई बिरले ही आगे बढ़ने का साहस करेंगे। फिर भी यह निश्चित है कि यह धरती कभी भी वीर- विहीन नहीं होती। इसमें ऊँचे आदर्शों को अपनाने वाले, ऊँचे स्तर के बड़े दिल वाले व्यक्ति भी रहते ही हैं और उनका अपने परिवार में अभाव नहीं है। थोड़े ही सही पर हैं जरूर। जो हैं उतनों से भी अपना काम चल सकता है। हमारे हाथों में जो मशाल सौंपी गई थी उसे हम हजार- दो हजार हाथों में भी जलती देख सकें तो संतोष की बात ही कही जाएगी।

        -अखण्ड ज्योति फरवरी १९६५, पृष्ठ ५१

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