बलि वैश्व

पाप के अन्न का दुष्परिणाम

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        पूज्य महात्मा हंसराज जी एकबार हरिद्वार के मोहन आश्रम में ठहरे हुए थे। एक वानप्रस्थी उनके पास ही एक कमरे में रहता था। एक दिन वानप्रस्थी महात्माजी के पास आया और जोर- जोर से रोने लगा। महात्माजी ने पूछा- क्या हुआ आपको?’’
वह बोला- ‘‘मै लुट गया, महात्माजी ! मेरी उम्र भर की कमाई नष्ट हो गई!
        पूछने पर पता लगा कि वह वानप्रस्थी पिछले कई वर्षों से ईश्वर- भक्ति के मार्ग पर चलता हुआ ध्यान और उपासना की उस सीढ़ी तक पहुँच चुका था। उसमें आनन्द से मस्त होकर ध्यान में वह घण्टों बैठा रहता।  उसने रोते हुए बताया कि कल रात से ध्यान में एक नौजवान लड़की उसके सामने आकर खड़ी हो जाती है। प्रयास करने पर भी मन ध्यान में नहीं लगता। स्वामी जी ने पूछा इस बीच किसी बुरे व्यक्ति की संगति या किसी घटिया पुस्तक का अध्ययन तो नहीं किया? उसने कहा नहीं।

        बाद में खोजने पर पता लगा कि कल शाम उसने एक भण्डारे में भोजन किया था। उस व्यक्ति ने धन के लोभ में 10 हजार रुपये में अपनी जवान बेटी को बेच दिया था। उस पाप का प्रायश्चित करने के लिए उसने हरिद्वार आकर स्नान और भण्डारा किया था।

        महात्माजी ने इस बात को सुनकर कहा- ‘‘यही वह नौजवान लड़की है, जो तुम्हें दिखाई देती है। तुमने जो कुछ खाया वह पुण्य भाव से दिया हुआ दान नहीं था; परन्तु पाप की कमाई में तुम्हें भागीदार बनाया। जब तक वह अन्न तुम्हारे शरीर से नहीं निकलेगा, तब तक उस दुःखी लड़की का दिखाई देना बन्द न होगा।’’ महात्माजी ने उसे जुलाब देकर दस्त कराये और दस दिन गंगाजल पर उपवास कराया, तब जाकर सामान्य स्थिति में आया।
        यह है पाप का अन्न खाने का परिणाम! आप और हम दिन प्रतिदिन किस प्रकार का अन्न खा रहे हैं। सोचिये हमारा क्या होगा?
पकाने वाले का दुष्प्रभाव

        भारत के मान्य संन्यासी महात्मा आनन्द स्वामी, गायत्री के सिद्ध साधक थे। उनके पुत्र रणवीर पर एकबार, संयोग वश हत्या का गलत इल्जाम लगा था, जेल में फॉसी की कोठरी में कैद था। उसके बारे में स्वामी जी ने स्वयं यह संस्मरण लिखा था।

        रणवीर था फाँसी की कोठरी में। वह उपनिषदों का पाठ करता था। गायत्री मंत्र का जाप करता था। फाँसी की कोठरी में वह हर समय हँसता रहता था। परन्तु एक दिन मैंने उसे बहुत उदास देखा; पूछा- ‘‘तू आज उदास क्यों है?

रणवीर ने कहा- ‘‘आप तो जानते ही हैं, मैं अपनी माँ से बहुत प्यार करता हूँ, परन्तु कल से मेरे मन में भयानक दृश्य उभरता है, ऐसा प्रतीत होता है कि कोठरी में मेरी माँ अपने बालों को खोल बैठी हैं, बालों को सुखा रही हैं। तभी मैं हाथ में तलवार लेकर सेहन में पहुँचा और मैंने अपनी माँ को बालों से पकड़ा है। उन्हें घसीटता हुआ बाहर के सेहन में ले आया हूँ। माँ चिल्ला रही हैं और मैं उनके वक्षःस्थल पर तलवार से वार के ऊपर वार कर रहा हूँ। वह रो रही हैं, चिल्ला रही हैं, लहूलुहान हो गई हैं, परन्तु मैं रुकने का नाम ही नहीं लेता। वह भयानक दृश्य मुझे बार- बार दिखाई देता है। अपनी ही माँ के लिए ऐसी बातें मुझमें आयें, इससे तो अच्छा है कि मैं मर जाऊँ।’’
      महात्मा आनन्द स्वामी ने रणवीर के भोजन की खोजबीन की। रणवीर का भोजन पकाने वाला कैदी दो दिन पहले बदला गया था। उसका रिकार्ड मँगवाकर देखा गया तो पता लगा कि ‘‘अपनी माँ को कत्ल करने के अपराध में उसे आजीवन कारावास मिला है। वह एक गाँव में रहता था, (कच्चे मकान में) जहाँ उसकी माँ नहाने के पश्चात् अपने बाल सुखा रही थी कि यह व्यक्ति, जो उसके धन पर अधिकार करना चाहता था, महात्मा जी समझ गये कि भोजन पकाने वाले के संस्कारों का असर अन्न पर पड़ रहा है। उन्होंने जेलर से कहकर उसकी ड्यूटी बदलवा दी। उसके बाद रणवीर को वह भयानक दृश्य दिखना बंद हो गया।

दार्शनिक पायथागोरस ने कहा ‘‘आप मुझे बताओ की कौन व्यक्ति कैसा भोजन कर रहा है, मैं आपको बताऊँगा कि उसके विचार कैसे होंगे?’’
अन्न ईमानदारी की कमाई का हो परन्तु भोजन बनाने वाले का विचार और आचरण ठीक नहीं हों तो उसका प्रभाव भोजन करने वाले पर होगा। माता, पत्नी, पुत्री या बहन का बनाया हुआ रूखा- सूखा भोजन गाजर के हलवे से अधिक गुणकारी होता है क्योंकि उनकी प्रेम- भावनाएँ भी इसमें सन्निहित होती हैं। शबरी के बेरों की भगवान् रामजी ने और विदुर के शाक की भगवान् श्रीकृष्ण ने इसीलिए प्रशंसा की है।

परम पूज्य गुरुदेव कहते थे कि माताओं, बहनों को रसोई बनाते समय गायत्री मंत्र जप और अच्छे विचार करने चाहिए। क्रोध नहीं करना चाहिए। केवल छूने से ही भोजन पर वैयक्तिक विकृत असर नहीं पड़ता वरन् पास बैठने वालों से भी वह प्रभावित होता है क्योंकि भोजन मनुष्य की प्रिय वस्तु है और एक व्यक्ति दूसरे की थाली पर विशेष दिलचस्पी के साथ दृष्टि डालता है तो उस पर निश्चित उसका असर होता है। कोई दुःखी या तिरस्कृत होकर भोजन देता है तो खाने वाला दुःखी हो जाता है।
यज्ञ शिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः
भूज्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्म कारणात्।

(गीता ३/१३)


यज्ञ में बचा हुआ (यज्ञावशिष्ट) भोजन करने वाला सज्जन पाप कर्मों से मुक्त हो जाता है और जो मात्र अपने लिए बनाता और खाता है वह पाप खाता है। प्रत्येक व्यक्ति का इस प्रकार सोचना व्यर्थ है कि हमने अपने श्रम से, बुद्धि से, पैसे से उपार्जन किया इसलिए उस पर हमारा ही अधिकार है। परन्तु शरीर, बुद्धि, शक्ति परमात्मा ने दी है। भूमि, वर्षा और बीज न होता तो अन्न कैसे उगाते? भोजन करने से पूर्व भगवान् को समर्पित करने के बाद भोजन करने से व्यक्ति हरेक प्रकार के ऋण में से मुक्त होता है। मात्र भोजन ही नहीं परन्तु अपनी सम्पत्ति, बुद्धि, शक्ति, ज्ञान, वैभव, समय और प्रभाव का एक अंश परमार्थ कार्य के लिए दान करके अपने अथवा परिवार के उपयोग में लेने से व्यक्ति, परिवार और समाज उत्कर्ष और शान्ति प्राप्त करता है।

यज्ञ में अनेकों वस्तुएँ इकट्ठी करनी पड़ती है, खर्च भी होता है और समय भी लगता है। इसलिए हमारे ऋषियों ने एक सुगम और सरल बलिवैश्व परंपरा चलाई है जो एक छोटे से यज्ञ संस्कार की महान धरोहर है। इस यज्ञ को वेद, उपनिषद्, शास्त्र, पुराण, गीता, संत, महंत, ध्यानी, ज्ञानी, योगी, तपस्वी, साधक और भक्त ‘‘बलिवैश्व यज्ञ’’ कहते हैं।

युगऋषि पं० पूज्य गुरुदेव श्री राम शर्मा आचार्यजी ने गायत्री परिवार के परिजनों को घर- घर पहुँचकर इस बलिवैश्व यज्ञ अभियान को पुनः स्थापित करने हेतु आह्वान किया है। इसलिए अपने राष्ट्र की माताओं, बहनों को इस व्यक्ति और परिवार निर्माण की महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया को जानना चाहिए और प्रत्येक घर में उसका शुभारम्भ करना- कराना चाहिए। घर में बिना नमक और मिर्च का भोजन यानि रोटी या चावल थोड़ा- सा लेकर एक बूँद घी, थोड़ी सी चीनी- गुड़ मिलाकर एक स्वच्छ ताँबे के कुण्ड को गैस या चूल्हा पर रखकर इसमें पाँच आहुति देनी चाहिए। जब परिवार के सदस्य भोजन के लिए बैठें तो उन्हें उसी का प्रसाद पहले देना चाहिए जिसे यज्ञ शिष्ट कहते हैं। यही है यज्ञ भगवान् का प्रसाद। योगेश्वर श्रीकृष्ण गीता में बताते हैं कि ...
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