गायत्री अनुष्ठान का विज्ञान और विधान

विधिवत उपासना के सुनिश्चित परिणाम

<<   |   <   | |   >   |   >>

सामान्य रीति से अनेकों सामान्य कार्य ऐसे ही किये जाते हैं और उनकी व्यवस्था तथा सफलता सामान्य क्रम से चलती रहती है। इस प्रकार के कामों में कब तक कितनी मात्रा में क्या सफलता मिलेगी? इसका कुछ निश्चय नहीं रहता। ढर्रे पर गाड़ी लुढ़कती रहती है और उसका कुछ न कुछ परिणाम निकलता ही रहता है। किन्तु यदि किसी आवश्यक कार्य को नियत समय में सम्पन्न करना है और अभीष्ट सफलता प्राप्त करनी है तो फिर सामान्य ढर्रे से काम नहीं चलता। इसके लिए विशेष योजना बनाने साधन जुटाने विशेष मनोयोग लगाने और विशेष श्रम करने की आवश्यकता पड़ती है। इस विशिष्टता को अपनाये बिना महत्त्वपूर्ण कार्यों को नियत अवध में अभीष्ट सफलता के साथ सम्पन्न कर सकना सम्भव नहीं होता।

साधना के सम्बन्ध में भी यही बात है नित्य कर्म के रूप में सामान्य गायत्री उपासना की जाती रहती है। उसमें प्रायः मनः शुद्धि का उद्देश्य ही पूरा हो पाता है। शरीर से नित्य पसीना निकलना त्वचा पर जमता है अस्तु नित्य स्नान करने की आवश्यकता पड़ती है। गन्दगी जमना स्वाभाविक है तब उसकी सफाई भी होनी ही चाहिए। मन के ऊपर प्रस्तुत वातावरण में कषाय कल्मषों की परतें जमते रहना भी स्वाभाविक है। उसकी सफाई दैनिक उपासना नित्य नियम का पालन करने से ही संभव होती है। प्रायः सभी नित्य कर्मों का उद्देश्य सहज रीति से उत्पन्न होती रहने वाली मलीनता का निवारण निष्कासन करना है। यह भी कम महत्व का नहीं है। उपेक्षा करने पर जो हानि हो सकती है और तत्परता बरतने पर श्रेष्ठता का जो स्तर बना रहता है उस पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया जा सके तो प्रतीत होगा कि नित्य कर्म के रूप में दैनिक उपासना का भी कितना महत्त्व है।                                                                                                
अतिरिक्त रूप से आध्यात्मिक सामर्थ्य उत्पन्न करने के लिए संकल्पपूर्वक नियत प्रतिबन्धों और तपश्चर्याओं के साथ विशिष्ट उपासनायें करनी होती हैं। इन्हें अनुष्ठान कहते हैं। अनुष्ठान सर्व साधारण के लिए है। उनमें उपासना क्रम ऐसा रहता है जिसे पालन कर सकना सर्वसुलभ हो। उनमें मंत्रोपचार के पेचीदा विधि- विधानों का दबाव नहीं रहता। पुरश्चरण इसमें कुछ कड़े होते हैं। उनमें कवच, कील, अर्गलन, हृदय, न्यास के हवनतर्पण, मार्जन के विधान पूरे करने पड़ते हैं। इसके लिए संस्कृत भाषा का आवश्यक ज्ञान तथा विधानों को कार्यान्वित करने का शास्त्रोक्त प्रशिक्षण आवश्यक है। इसलिए पुरश्चरणों की प्रक्रिया उन लोगों के लिए ही उपयुक्त पड़ती है जिनके लिए आजीविका उपार्जन के- गृहस्थी के- बहुत से काम नहीं हैं, जो पूरा समय और मनोयोग उसी कार्य में नियोजित रखे रह सकते हैं। निर्धारित तपश्चर्या कड़ाई के साथ पालन कर सकते हैं। संस्कृत भाषा का समुचित ज्ञान रहने से उसे प्रयोग में आने वाले मन्त्रों का उपयोग सही कर सकते हैं। अनुष्ठानों से पुरश्चरणों के विधान कठिन हैं। इसलिए उनके प्रतिफल भी अधिक हैं। सर्व साधारण के लिए अनुष्ठान ही उपयुक्त पड़ते हैं। पुरश्चरणों का प्रशिक्षण जिन्हें आवश्यक लगता हो उन्हें आवश्यक उसके लिए सम्पर्क साधना चाहिए।

सामान्य जप की तुलना में अनुष्ठानों से उत्पन्न शक्ति का स्तर तथा परिमाण कहीं अधिक होता है। अधिक श्रम, समय, अधिक तत्परता, अधिक तपश्चर्या का समावेश होने से गायत्री उपासना में विशिष्टता उत्पन्न हो जाना और उसका प्रभाव परिणाम अधिक ऊँचे स्तर का दीख पड़ना स्वाभाविक है।

अनुष्ठानों के विशेष नियम यह हैं () नियत दिनों में नियत संख्या में जप संख्या पूरी करनी होती है, जिसमें सामान्य उपासना की तुलना में अधिक समय लगता है। इसके लिए दिन चर्या आवश्यक हेर- फेर करके अधिक समय लगाने का प्रबन्ध करना पड़ता है। () अनुष्ठान के दिनों में ब्रह्मचर्य पालन अनिवार्य रूप से आवश्यक होता है। () भोजन में उपवास तत्व का समावेश किसी न किसी रूप में करना ही होता है। साधारण भोजन क्रम नहीं चल सकता। () अनुष्ठान काल में साधक की स्थिति तपस्वी जैसी होती है। उन दिनों इतना तो करना ही होता है अपनी शारीरिक सेवा जहां तक हो सके दूसरों से न करायें उन्हें अपने हाथों ही पूरा करें। () भूमि शयन कम वस्त्रों का उपयोग, चमड़े से बनी वस्तुओं का त्याग जैसी तितीक्षायें सम्पन्न करें। (6) अन्त में हवन, ब्रह्मभोज की पूर्णाहुति सम्पन्न करें। यह छैः कार्य करने से अनुष्ठान की मर्यादायें पूरी होती हैं। और उनके अभीष्ट सत्परिणाम उत्पन्न होते हैं।

अनुष्ठान की तीन श्रेणियां हैं- लघु मध्यम और पूर्ण। लघु अनुष्ठान के २४ हजार जप दिन में पूरा करना होता है। मध्यम सवा लाख जप का होता है उसके लिए ४० दिन की अवधि नियत है। पूर्ण अनुष्ठान २४ लाख जप का होता है। उसमें एक वर्ष लगता है। माला में यों १०८ दानें होते हैं पर अनुष्ठान गणना में उन्हें १०० ही माना जाता है। आठ भूल- चूक, अशुद्धि उच्चारण आदि के लिए अतिरिक्त छोड़ दिये जाते हैं एक घण्टे में १० से १२ मालायें पूरी होती हैं। यह मध्यम गति है। किसी की मुख संरचना इससे न्यूनाधिक हो सकती है। ऐसी दशा में संख्या सन्तुलन ठीक करने की अपेक्षा यह अधिक उत्तम है कि घड़ी रखकर उतना समय पूरा कर लिया जाय जो मध्यम गति से जप करने में लगा है। २४ हजार जप दिन में पूरा करने के लिए हर दिन २७ मालायें जपनी होती हैं। इनमें प्रायः ढाई घण्टा समय लगता है। सवा लाख जप ४० दिन में करने पर प्रतिदिन ३३ मालायें की जाती हैं जो प्रायः तीन घण्टे में पूरी होती हैं। २४ लाख जप एक वर्ष में पूरा होता है और उसमें ६६ मालायें हर दिन की जाती हैं जिनमें प्रायः छैः घण्टे का समय लगता है सर्वोत्तम समय प्रातःकाल का ही है पर यदि वह एक बार में पूरा न हो सके तो प्रातः सायं दो बार में पूरा किया जा सकता है। त्रिकाल संध्या की दृष्टि से मध्यान्ह काल में भी कुछ अंश पूरा किया जा सकता है पर परम्परा में अधिकांश प्रातःकाल और कम पड़े वह सायं- काल कर लेने का प्रचलन है।   

जप से पूर्व स्नान, और धुले वस्त्र पहनने का नियम है। उपासना कक्ष, पूजा के पात्र हर दिन साफ करने चाहिए। पूजा उपचार की वस्तुओं में से जो पहले दिन प्रयोग में आ चुके हों उन्हें दुबारा काम में नहीं लाना चाहिए आधी जली हुई धूपबत्ती दूसरे दिन प्रयोग में नहीं आनी चाहिए। इसी प्रकार दीपक में बचा हुआ घी या बत्ती दूसरे दिन प्रयोग में नहीं लाई जाती। कटोरी में बचा हुआ चन्दन भी अगले दिन काम का नहीं रहता फूल आदि वस्तुयें तो नई ही ली जाती हैं। अक्षत नैवेद्य जैसी वस्तुयें ही ऐसी हैं जो डिब्बी में रखी रहती हैं और उनमें से थोड़ी- थोड़ी निकाली और काम में लाई जाती रहती है। 
 
यों नियम तो सम्मिलित उपासना में भी वहीं है पर अनुष्ठान के दिनों में अग्नि और जल को साक्षी रखा ही जाना चाहिए। जल कलश के लिए छोटी- सी लुटिया रखी जाती है जिसमें देव शक्तियों का आह्वान करते हैं और पीछे उसे ही सूर्यार्घ्य के लिए चढ़ा देते हैं। अग्नि के लिए इन दिनों अगरबत्ती से काम चल जाता है। यों महत्व दीपक का अधिक है। पर यह शुद्ध घृत का ही होना चाहिए। तेल वेजीटेबिल आदि से काम नहीं चलेगा। इन दिनों शुद्ध घी मिलना उन्हीं के लिए सम्भव है जो या तो स्वयं गाय पालें या दूध खरीदकर उसमें से अपने हाथों निकालें। पैक बन्द डिब्बों का घृत भी शुद्ध हो सकता है। बाजार में खुला बिकने वाला तो प्रायः संदिग्ध ही होता है। जहाँ द्विविधा हो वहाँ अगरबत्ती से ही काम चला लेना पर्याप्त है। अनुष्ठान काल में ही पूरी अवधि तक अखण्ड दीपक जलाने की बात सोचना तो उत्तम है पर उसके लिए सावधानी बहुत बरतनी पड़ती है। तनिक भी असावधानी रहने से दीपक बुझ जाता है और उसमें देवता की नाराजी आदि का अनुमान लगाकर साधक को व्यर्थ ही खिन्न बनाना पड़ता है। इसलिए यदि दीपक जलाना हो तो जप काल की अवधि तक ही उसे जलाना चाहिए। 
 
पूजा वेदी यदि दैनिक उपासना के लिए पहले से ही बनी हुई है तो वही पर्याप्त है। अन्यथा नई चौकी स्थापित की जानी चाहिए। गायत्री माता का चित्र आवश्यक है। पिछला चित्र मैला धुधला हो गया हो तो अनुष्ठान के समय नया चित्र बदल लिया जाय और पुराना जल में विसर्जित कर दिया जाय। चौकी पर बिछाने वाला कपड़ा अनुष्ठान के लिए बदल लेना चाहिए। वह पुराने कपड़े में से निकाला हुआ नहीं वरन् नया ही होना चाहिए। पीले रंग में रंगा हुआ। पूजा उपचार के लिए पंचपात्र में जल, पुष्प, अक्षत नैवेद्य अगरबत्ती, चन्दन रोली यह वस्तुयें काम में लाई जाती हैं। अन्य वस्तुओं में कठिनाई नहीं होती पर नये फूल प्रातःकाल मिलने कठिन हो जाते हैं शाम को पानी छिड़कर फूल खुली जगह में रखे रहने दिये जायें तो वे मुरझाते नहीं। बिना मुरझाये फूल पूजा के काम आते हैं। यदि वे न मिलें तो चावलों को चन्दन तथा हल्दी के रंग में रंगकर उन्हें फूलों के स्थान पर प्रयोग में लाया जा सकता है। 
 
आसन चमड़े का नहीं होना चाहिए। इन दिनों वध किये गये जानवरों का ही चमड़ा मिलता है। प्राचीन काल में अपनी मौत मरे हुए मृग चर्म काम में आते थे। अब वैसी सुविधा नहीं रही। 
 
साथ ही अन्य आसन भी सुविधापूर्वक उपलब्ध हैं। प्राचीन काल में वनवासी तपस्वी न केवल आसन का वरन् वस्त्रों का काम भी चमड़े से ही चलाते थे। अब वैसी स्थिति नहीं रही। अस्तु कुशा के आसन, चटाई कम्बल आदि के आसन ही काम में लाने चाहिए। कपड़ा प्रयोग करना हो तो उसे धोते रहना चाहिए। 
 
जप के समय पालथी मारकर बैठना चाहिए। यह सुखासन ही सुविधाजनक है। पद्मासन आदि पर देर तक नहीं बैठा जा सकता। टाँगों पर दबाव पड़ने से ध्यान भी उचटता है। जप काल में कमर सीधी ही रखी जाय। आंखें अधखुली। माला चन्दन की अधिक उपयुक्त है। इन दिनो तुलसी और रूद्राक्ष के नाम पर नकली वस्तुयें ही बाजार में बिकती हैं। चन्दन की आसानी से मिल जाती है। अनुष्ठान काल में जप में पूरे वस्त्र पीले रखने में कठिनाई हो तो कम से कम कन्धे पर दुपट्टा तो पीला रहना ही चाहिए। पीत वस्त्र अनुष्ठान का परिधान है। पायजामें का नहीं धोती का ही अनुष्ठान काल में उपयोग होने की परम्परा है। 
 
जप काल में पालथी बदलते रहने से कोई प्रतिबन्ध नहीं है। देर तक बैठना सम्भव न हो सके तो खड़े होकर भी जप कि या जा सकता है। बीच में पेशाब जाना हो तो हाथ पैर धोकर फिर बैठना चाहिए। शौच जाना पड़े तो धोती बदलने एवं स्नान करने की आवश्यकता पड़ेगी। जम्हाई, या झपकी आने लगे तो उस आदमी को दूर करने के लिए मुँह धोने और आचमन करने से चेतनता आ जाती है। 
 
अनुष्ठान के उपरोक्त नियमों में कई बार कुछ शिथिलता करने की आवश्यकता पड़ती है। देश, काल, पात्र, को ध्यान में रखते हुए वैसी छूटें दी जाती हैं। अति शीत प्रधान देशों में अथवा कमजोरों- रोगियों को शीत ऋतु में प्रातःकाल स्नान करते नहीं बन पड़ता। गर्म पानी उपयोग करने की तो छूट है पर उतने से भी काम न चले तो शरीर को तौलिये से पोंछकर या हाथ- पैर मुँह धोकर भी काम चल सकता है। कपड़ों में वे वस्त्र तो बदल ही लेने चाहिए। जिन से पसीना पेशाब आदि का स्पर्श होता है। 
 
यज्ञोपवीत पहनना, शरीर मन्दिर पर गायत्री की प्रतीक प्रतिमा धारण कर लेने के समतुल्य है अस्तु अनुष्ठान के दिनों में तो हमें पहन ही लेना चाहिए पीछे भले ही अनुष्ठान की पूर्ति होने पर विसर्जित कर दिया जाय। नर और नारी दोनों ही समान रूप से यज्ञोपवीत धारण करने के अधिकारी हैं।स्त्रियों को मासिक धर्म होने के उपरान्त पुराना यज्ञोपवीत उतार कर नया धारण करना होता है। 
 
अनुष्ठान काल में ब्रह्मचर्य पालन आवश्यक है। स्वप्नदोष होना अपने हाथ की बात नहीं, इसलिए उसमें दोष नहीं आता। किन्तु यदि मध्य में ब्रह्मचर्य टूटता है तो वह अनुष्ठान जितना हो चुका खंडित माना जायेगा। और नये सिरे से करना पड़ेगा।   
अनुष्ठान का दूसरा व्रत है उपवास। केवल जल पर नहीं रहना चाहिए। उसके लिए विशेष सतर्कता और अनुभव की आवश्यकता पड़ती है अन्यथा हानि होने का डर रहता है। दूध, छाछ, फलों का रस शाकों को उबालकर बनाया गया रस जैसे द्रव्य पदार्थों पर चलने वाला उपवास पूर्ण माना जाता है। नौ दिन तो वह आसानी से निभ सकता है ।। यदि उतना न बन पड़े तो तो उसके हलके स्वरूप और भी हैं। जैसे () नमक और शक्कर का त्याग कर अस्वाद व्रत का पालन। () एक समय भोजन एक समय दूध छाछ पर निर्वाह () शाकाहार- फलाहार। () एक वस्तु खाने की दूसरी दूसरी लगाने की मात्र दो ही वस्तुओं का उपयोग। जैसे रोटी साग, चावल, दाल आदि। थाली में दो से अधिक वस्तुयें न हों।

अपने शरीर की सेवा आप करने में अपने हाथों की तप- तितीक्षा में भोजन अपने हाथ से बनाने की बात भी आती है। उतना न बन पड़े तो अपनी पत्नी, माता अथवा कुमारियों के हाथ का पकाया हुआ भोजन लिया जा सकता है। कुसंस्कारी हाथों का पकाया हुआ बाजारू भोजन तो ग्रहण नहीं ही किया जाय। हजामत अपने हाथों बनाने से काम चल सकता है। कपड़े अपने हाथों धोये जायें तो उत्तम है अन्यथा माता पत्नी मात्र की सेवायें उसके लिए स्वीकार की जाय। मनुष्य द्वारा खींचे जाने वाले रिक्शे में बैठने से बचा जा सके तो उत्तम है। बुहारी लगाने, तेल मालिश, करने जैसे काम भी अपने हाथों ही उन दिनों स्वयं करने का प्रयत्न करना चाहिए। 
 
भूमि शयन का स्थानापन्न लकड़ी का तख्त हो सकता है। उसमें भी कठोरता होती है। कोमल शय्या पर पर तितीक्षा नहीं सधती। भूमि शयन का नियम इसीलिए बनाया गया है। जहाँ तक हो सके कम वस्त्र पहने ताकि सर्दी गर्मी का प्रभाव कुछ तो सहन करना ही पड़े। यदि चलने की भूमि बहुत अनुपयुक्त न हो तो अनुष्ठान के दिनों नंगे पैर भी रहा जा सकता है। चमड़े के बने जूतों का तो अनुष्ठान काल में निषेध है ही क्योंकि बध किया चमड़ा ही आज उपलब्ध होता है। इस वध कृत्य में काटने वाला ही नहीं उस मांस और चमड़े का उपयोग करने वाला भी पाप का भागी बनता है। 
 
अनुष्ठान के अन्त में जप की शतांश आहुतियाँ देनी चाहिए। यज्ञ हवन अब सर्व साधारण की अर्थ शक्ति के बाहर है। २४ हजार जप के लिए २४० आहुतियाँ दी जाती हैं। इन्हें कई व्यक्ति मिलकर करे तो उसी हिसाब से कम बार आहुति देनी होंगी। २४० आहुतियाँ पांच व्यक्ति मिलकर दें ४८ बार मंत्रोच्चार करके साथ- साथ आहुतियाँ देने से वह कार्य सम्पन्न हो जाता है यदि प्रतिदिन आहुतियाँ दी जाती रहें तो एक व्यक्ति भी २७ आहुति नित्य देकर भी अपने अनुष्ठान का हवन पूरा कर रह सकता है। यदि कारण वश हवन की व्यवस्था न बन पड़े तो दशांस जप अधिक करने से भी उसकी पूर्ति हो सकती है। चौबीस हजार जप के लिए २४०० जप अधिक कर लिया जाय तो भी विवशता की स्थिति में उसे भी पर्याप्त मान लिया जायेगा। 
 
प्रसाद वितरण ब्रह्मभोज की आवश्यकता उन दिनों ज्ञान प्रसाद वितरण से की जानी चाहिए। आत्मिक प्रगति में सहायक सद्ज्ञान प्रदान करने वाला ऐसा सस्ता साहित्य युग निर्माण योजना द्वारा इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए छापा गया है न्यूनतम सवा रूपया इस ब्रह्मभोज के लिए ज्ञान वितरण के लिए खर्च किया जाय। अधिक बन सके तो और भी उत्तम है। इस प्रसाद को जिस- तिस को बखेर नहीं देना चाहिए वरन् सत्पात्रों के पास डाक से या व्यक्तिगत रूप से पहुँचाना चाहिए ताकि उसका समुचित उपयोग हो सके। 
 
आश्विन और चैत्र की नवरात्रियाँ लघु अनुष्ठानों के लिए अत्यन्त उपयुक्त समय हैं। यों उन्हें कभी सम्पन्न किया जा सकता है किसी तिथि मुहूर्त का कोई बन्धन नहीं है। फिर भी दोनों नवरात्रियों का विशेष महत्व है ज्येष्ठ में प्रतिपदा से दशमी तक गायत्री जयन्ती पर भी तीसरी नवरात्रि मानी गई है। चौबीस लाख का लम्बा अनुष्ठान करने के स्थान पर सवा लाख के बीस या चौबीस हजार के सौ कर लेना अधिक सुविधाजनक रहता है। किसी कारणवश कोई अनुष्ठान खंडित हो जाय तो उसे नये सिरे से करना चाहिए। यदि स्त्रियों का अनुष्ठान मासिक धर्म आ जाने से बीच में ही खण्डित हुआ हो तो जितना शेष था उसकी पूर्ति शुद्ध के बाद की जा सकती है उसे खण्डित हुआ नहीं माना जायेगा। मात्र व्यवधान ही गिना जायेगा।




<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118