गायत्री द्वारा आत्म कल्याणकारी योग साधना करने के लिए सर्वप्रथम
साधक को चरित्रवान् बनने की आवश्यकता होती है। अपने अन्दर जो
कोष हैं उनको आत्म निरीक्षण के द्वारा पता लगा कर परित्याग करना
चाहिए। मन बार- बार उनकी ओर फिरे तो प्रायश्चित के दण्ड विधानों
द्वारा तथा वैसे अवसर न आने देने की व्यवस्था करके उस पर
अंकुश लगाना चाहिए। मन सीधे वश में नहीं आता वह
जन्मजन्मान्तरों
से संचित कुसंस्कारों को भी आसानी से नहीं छोड़ता। इसके लिए
उससे संग्राम ही करना पड़ता है। इसलिए साधना को एक संग्राम भी
कहा गया है। आसुरी और दैवी शक्तियों का जो निरन्तर संग्राम हमारे
मनःक्षेत्र में होता रहता है उसी का दिग्दर्शन गीता में कौरव-
पाण्डवों के महाभारत युद्ध के रूप में कराया गया है। मन को
निर्विषय, शान्त और स्थिर बनाना गायत्री उपासक के लिए आवश्यक है।
इसमें सफलता प्राप्त करने के लिए मार्गदर्शन इस प्रकार मिलता
हैः-
वन्धाय विषयासंगि मुक्त्यै निर्विषयं मनः।
-विष्णु पुराण ६।१।२८
विषयों में बन्धन और विषय त्याग देने से मुक्ति है।
यत्र- यत्र
मनोयाति ब्रह्मणस्तत्र दर्शनम् ।।
जहाँ- जहाँ मन जाय वहाँ- वहाँ परमात्मा के दर्शन करे।
दृष्टि ज्ञान
मयीं कृत्वा
पश्येद् ब्रह्म मयं जगत् ।।
दृष्टि को ज्ञानमयी बनाकर सारे संसार को ब्रह्म मय देखना चाहिये।
वितर्क
वाधने प्रतिपक्ष
भावनम् ।।
-योग दर्शन
२।३३
दुर्भावनाएँ मन में आने पर उनके विरोधी सद्भावनापूर्ण विचार करके कुविचारों को
काटें।
मैत्री
करूणामुदितोयेक्षाणां सुख दुःख
पुण्या
पुण्य
विषयाणां भावनाताश्चित्त प्रसादनम् ।।
-
गी.सृ. १।३३
मैत्री, करुणा, मुदिता, इन चार प्रकार के सुखी, दुःखी, पुण्यात्मा,
पापियों के बारे में चिन्तन करने से चित्त प्रसन्न रहता है।
चित्त की स्थिरता बड़ी चीज है पर वह गायत्री उपासक के लिए सरल
भी है। इस मनोनिग्रह के द्वारा महत्त्वपूर्ण सिद्धियों का द्वार
खुलता है :-
आर्विभूत प्रकाशानाम नुपद्रुत चेतसाम् ।।
अतीतानागतज्ञानं प्रत्यक्षान्त विशिष्यते ॥
-वाक्य प्रदीप
चित् जब सत् और तम से रहित होकर दीप्तिमान होता है और फिर
रज को भी त्याग कर स्थिर हो जाता है तो भूत और भविष्य की
प्रत्येक बात स्पष्ट दिखाई देने लगती है।