जो साधना विधि व्यवस्था का,
शास्त्र
मर्यादा का ध्यान नहीं रखते, मनमानी चलाते हैं उनका योग कुयोग
बन जाता है और थोड़ा बहुत उन्हें प्राप्त होता है वह भी
इन्द्रिय प्रलोभनों या सांसारिक तुच्छ प्रयोजनों में खर्च हो जाने
का खतरा बना रहता है। बहुधा ऐसे उच्छृंखल, नियन्त्रण विहीन साधक
पथ भ्रष्ट होकर उस उपलब्ध हुई नवोदित शक्ति का दुरुपयोग करते
देखे गये हैं। इसलिए साधना काल में सतर्कता और आत्म नियन्त्रण की
बड़ी आवश्यकता है।
कुयोगिनो ये विहिताद्यन्तरायैर्मनुष्यभूतोस्रिदर्शी य सृष्टैः ।।
-भागवत २
कुयोगी जो विधिपूर्वक आत्म साधना नहीं करते उन्हें नवोदित शक्तियाँ लुभाकर विषय भोगों में डाल देती हैं।
चित्त की स्थिरता एवं आत्म संयम पर पूरा ध्यान रखते हुए
गायत्री उपासक को विधि पूर्वक साधना पथ पर अग्रसर होना चाहिये।
गायत्री परा विद्या है उसकी उपासना एक बहुत ही सुव्यवस्थित
विज्ञान है। विज्ञान की शिक्षा को कोई शिक्षार्थी बिना किसी मार्ग
दर्शक के अपने आप पूर्ण नहीं कर सकता। जब डाक्टरी, इन्जीनियरिंग,रसायन,
साइंस आदि साधारण कार्य बिना शिक्षक के नहीं सीखे जा सकते तो
फिर अध्यात्म विद्या जैसे महान् विज्ञान को अपने आप किसी सक्रिय
मार्ग दर्शन के सफलतापूर्वक प्राप्त कर सकना कैसे सम्भव हो सकता
है?
यों आत्म कल्याण की सभी साधनाओं में गुरू की आवश्यकता है पर
गायत्री उपासना में तो यह आवश्यकता विशेष रूप में है। क्योंकि
शब्द के अक्षरों में स्पष्ट है कि- गय=प्राण, त्री=त्राण
करने वाली अर्थात् प्राणों की रक्षा शक्ति ही गायत्री उपासक को
अपने में विशेष प्राण बीज धारण करके ही आगे बढ़ना होता है और
यह प्राण किसी प्राणवान् साधना निष्णात गुरू से ही प्राप्त हो
सकता है। जिस प्रकार गन्ने के, गुलाब के बीज नहीं
होते उसकी लकड़ी काट कर दूसरी जगह बोई जाती है उसी प्रकार
जिसने कम से कम सवा करोड़ जप किया हो ऐसे परिपक्व साधन वाले
अनुभवी गुरू के प्राणों का एक अंश अपनी प्राण भूमिका में बोने
से ही नवीन साधक का साधना वृक्ष बढ़ता और फलफूलों से सुशोभित होता है। दीक्षा गायत्री उपासना का महत्त्वपूर्ण अंग है। साधना की सफलता चाहने वाले और शास्त्र की महत्ता को स्वीकार करने वालों के लिए तो यह अनिवार्य ही है। देखियेः-
दीक्षा मूलं जपं सर्व दीक्षा मूलं परं तपः ।।
दीक्षामाश्रित्य निवसेधत्र कुत्रश्रमे वसन् ॥
दीक्षा ही जप का मूल है, दीक्षा ही तप का मूल है। किसी भी
साधना में दीक्षा का आश्रय लेकर ही प्रवेश करना चाहिये
मंत्र विहीनस्य न सिद्धिर्नय सद्गतिः ।।
तस्यात्सर्व प्रयन्नेन गुरूणा दीक्षितो भवेत् ॥
दीक्षा विहीन मंत्र से सिद्धि प्राप्त नहीं होती इसलिए प्रयत्न पूर्वक गुरू दीक्षा लेनी चाहिये।
तद्विज्ञानार्थ स गुरू मेवामि गच्छेत्।
गुरूमेवाचचार्य शम दमादि सम्पन्नमभिगच्छेत् ॥
शास्त्र ज्ञोऽपि स्वातंत्रेण ब्रह्म ज्ञानयन्वेषणं न कुर्यात ।।
-मुण्डकोपनिषद
साधना का मार्ग जानने के लिए गुरू की सेवा में उपस्थित होवे।
शम, दम आदि सद्गुणों से सम्पन्न गुरू एवं आचार्य के पास जाना
चाहिए। स्वयं शास्त्रज्ञ हो तो भी ब्रह्म विद्या की मनमानी साधना
न करे।
आज के कृत्रिमता प्रधान युग में नकली चीजों की बाढ़ आ गई है।
असली वस्तुओं का मिलना दुर्लभ होता जा रहा है। गुरू भी नकली ही
अधिक हैं। जिन्होंने शिष्य के भी गुण प्राप्त नहीं किये हैं वे
गुरू बनते हैं। जिनके पास अपनी साधना की पूँजी कुछ नहीं है,
जिनसे अपना प्राण विकसित नहीं हुआ है वह दूसरों को क्या प्राण
दान देगा। उसकी दीक्षा में शिष्य का क्या नकली से बचने तथा असली
ढूँढ़ने की भारी आवश्यकता है।
गुरूवो वहवस्तात शिष्य वित्तापहारकाः ।।
विरला गुरूवस्ते ये शिष्य सन्तापहारकाः ॥
संसार में ऐसे गुरू बहुत हैं जो शिष्य का धन हरण करते हैं
पर ऐसे गुरू कोई विरले ही होते हैं जो शिष्य का सन्ताप दूर
करें।
गुरू कैसा हो? इसकी कुछ परीक्षाएँ नीचे श्लोक में बताई गई हैं।
जो इन परीक्षाओं में खरा उतरें उसे ही गायत्री उपासक अपना गुरू
वरण करके साधना क्रम आगे बढ़ावें ।।
मातृतः पितृतः शुद्धः भावो जितेन्द्रियः ।।
सर्वागमानां मर्मज्ञः सर्वशास्त्रार्थ तत्व वित् ॥
परोपकार निरतो जप पूजादि तत्परः ।।
अमोघ वचनः शान्तो वेद वेदार्थ पारगः ॥
योग मार्गानुसन्धयी देवताहृदयंगमः।
इत्यादि गुण सम्पन्नो गुरूरागम सम्यतः ॥
-शारदा तिलक २।१४२- १४४
जो कुल परम्पराओं से शुद्ध हो, शुद्ध भावनाओं वाला ,, जितेन्द्रिय ,, जो शास्त्रों को जानता हो, तत्वज्ञ हो, परोपकार में संलग्न, जप पूजा में परायण, जिसके वचन अमोघ हों, शान्त स्वभाव का, वेद और वेदार्थ का ज्ञाता, योग मार्ग का अनुसंधानकर्ता जिसके देवता हृदमयंमय हो, ऐसे अनेक गुण जिसमें हों वही शास्त्र सम्मत गुरू कहा जा सकता है।