गायत्र्युपासना मुक्त्वा नित्यावश्यक कर्मसु ।।
उक्तस्तत्र द्विजातीनां नानध्यायो विचक्षणैः ॥
(गायत्र्युपासनां) गायत्री की उपासना को (नित्यावश्यककर्मसु) नित्य आवश्यक कर्मों में (उक्त्वा) बतलाकर (विचक्षणैः) विद्वानों ने (द्विजातीना) द्विजों के लिए (तत्र) उसमें (अनध्यायः) अनध्याय (न उक्त) नहीं कहा ।।
आराधयन्ति गायत्रीं न नित्यं ये द्विजन्मनः ।।
जायन्ते हि स्वकर्मेभ्यस्ते च्युता नात्र संशयः ॥
(ये द्विजन्मनः) जो द्विज (गायत्रीं) गायत्री की (नित्यं) नित्य प्रति (न आराधयन्ति) आराधना नहीं करते (ते) वे (स्वकर्मेभ्यः) अपने कर्मों से (च्युता जायन्ते) भ्रष्ट हो जाते हैं (अत्र) इसमें (न संशय) कोई संदेह नहीं है ।।
नित्य कर्म कौन से हैं? इसका निर्णय दो आधारों पर किया जाता है- (१) आवश्यक शक्ति की प्राप्ति (२) मलों का निवारण। भोजन व्यायाम, धन उपार्जन, निद्रा, मनोरंजन, शिक्षा, सहयोग आदि कार्य आवश्यक शक्ति प्राप्त के लिए किये जाते हैं। शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक शक्तियों के व्यय से हमारा दैनिक कार्यक्रम चलता है यह शक्तियाँ अपने में जितनी ही न्यून होती हैं उतना ही जीवन क्रम का संचालन कठिन एवं कष्टसाध्य हो जाता है। जिन वस्तुओं का नित्य खर्च होता है उनको नित्य कमाना भी आवश्यक है ।। चूंकि शक्तियों को खर्च किये बिना, जीवन नहीं चल सकता, इसलिए उनका उपार्जन करना आवश्यक ठहराया गया है। हम में से सभी का दैनिक कार्यक्रम अधिक अंश में शक्ति उपार्जन के लिए निहित होता है। इसलिए हमारे नित्य कर्मों में उपरोक्त प्रकार के उपार्जन सम्बन्धी कार्य सम्मिलित होते हैं। दूसरे प्रकार के नित्य कर्म वे होते हैं जिनमें मलों का निवारण होता है। मल मूत्र का त्याग, कुल्ला दातौन, स्नान, वस्त्र धोना, हजामत, मकान, बर्तन तथा आवश्यक वस्तुओं की सफाई के लिए नित्य कुछ न कुछ समय देना पड़ता है। क्योंकि मलों की उत्पत्ति नित्य होती है। हर चीज हर घड़ी मैली होती है, उस पर अनावश्यक द्रव्यों के परत जमी हैं, इन्हें न छुड़ाया जाय, न हटाया जाय तो थोड़े समय में जीवन की समस्त दिशायें मैली, गंदी कुरूप विषाक्त हो जाय और उन मलों से उत्पन्न भयंकर परिणामों का सामना करना पड़े। नाक, कान, आंख, मुख, शिश्न आदि छिद्रों में हर घड़ी थोड़ा- थोड़ा गंदा श्लेष्म स्रवित होता रहता है, उसे बारबार साफ न किया जाय तो गंदगी की एक घृणास्पद एवं हानिकारक मात्रा जमा हो जाती है। मल मूत्र को भीतर भरे रहें सांस को त्यागने में आलस्य किया जाय तब तो स्वास्थ्य का नाश ही समझिए। इन दुर्घटनाओं से बचने के लिए मलों की सफाई में सम्मिलित की गई है।
जिस प्रकार शरीर में तथा सांसारिक पदार्थों में मैल जमता है तथा शक्ति का व्यय होता है, वैसे ही आत्मिक जगत में भी होता है। दैनिक संघर्षों के आघातों से ,, कटुअनुभवों से, वातावरण के प्रभावों से, लगाता सोचने से, आत्मिक शक्तियों का व्यय होता है और आत्मा को थकान आ जाती है। इस क्षति पूर्ति के लिए नित्य शक्ति संचय की आवश्यकता होती है। जैसे शरीर को भोजन, व्यायाम, निद्रा आदि की जरूरत पड़ती है वैसे ही आत्मा को नई शक्ति प्राप्त करने के लिए कुछ न कुछ करना आवश्यक होता है। इसी ‘‘कुछ न कुछ’’ को साधना, पूजा, भजन, स्वाध्याय, आत्म चिन्तन, आदि नामों से पुकारते हैं। इन उपायों से आत्मबल प्राप्त होता है, आत्मिक थकान मिटती है, प्रकाश, स्फूर्ति और ताजगी मिलती है। जैसे पूरी निद्रा लेकर, पौष्टिक आहार प्राप्त करके प्रसन्न चित्त हुआ मनुष्य जिस कार्य में जुटता है उसे उत्साह चतुरता और शीघ्रता से पूरा कर लेता है उसी प्रकार साधना के द्वारा आत्मबल प्राप्त करने पर मनुष्य की आन्तरिक स्थिति काफी मजबूत और प्रफुल्लित हो जाती है, उसके द्वारा दैनिक जीवन की गतिविधि का संचालन बड़ी ही आशापूर्ण उत्तमता के साथ होता है।
जैसे शरीर वस्त्र एवं वस्तुओं पर प्रतिक्षण मल जमता है, वैसे ही संसार व्यापी तमोगुणी तत्त्वों, आसुरी प्रवृत्तियों की छाया निश्चित रूप से मन पर पड़ती है। अतः आत्म निरीक्षण करके, अपनी नित्य समालोचना करना, दोषों को ढूंढ़ना और निवारण करना, आत्मिक मल शोधन ही है। साधना से जहाँ शक्ति प्राप्त होती है वहाँ मानसिक मलों का शोधन भी होता है। इसलिए शास्त्रकारों ने आध्यात्मिक साधना को नित्य कर्म कहा है। उसमें आलस्य, अनध्याय, विराम, छुट्टी की गुंजायश नहीं रखी गई है । हम कुल्ला दातौन, मलमूत्र, त्याग, तथा जल वायु सेवन की कभी छुट्टी नहीं करते उसी प्रकार आत्मिक साधनाओं की भी कभी छुट्टी नहीं होती। रोगी, अशुद्ध, असमर्थ तथा विपन्न परिस्थितियों में पड़े होने का अवसर आवे तो अविधि पूजा की जा सकती है उस समय नियमित कर्मकाण्ड की छूट मिल सकती है। किसी भी विधि से सही पर उसका करना आवश्यक है क्योंकि वह नित्य कर्म है। नित्य कर्म में अनध्याय नहीं होता। ऐसे अनध्याय का परिणाम हानिकारक होता है। अनेकों मनुष्य आत्मिक साधन करने में प्रायः आलस्य और उपेक्षा बरतते हैं, फलस्वरूप उनका आन्तरिक जीवन, नाना प्रकार के विषय विकारों से भरा रहता है, आत्म शान्ति के दर्शन उनके लिए दुर्लभ हो जाते हैं, वे जीवन के महान लक्ष्य से वंचित रहकर, भोगैश्वर्य की तुच्छ कीचड़ में बुजबुजाते हुए अमूल्य मानव जन्म को निरर्थक बना देते हैं।
शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि- ‘‘जिस दिन स्वाध्याय नहीं किया जाता उस दिन व्यक्ति अपने स्वाभाविक पद से च्युत हो जाता है।’’ कारण स्पष्ट है जिस दिन मनुष्य शौच न जायगा, मल मूत्र त्याग न करेगा, मुँह हाथ न धोवेगा , उस दिन उसकी वह दशा न रहेगी जो स्वभावतः साधारण मनुष्य की रहती है। जिस दिन भोजन न किया जाय, जल न पिया जाय, सोया न जाय उस दिन कोई भी मनुष्य अपनी स्वाभाविकता से च्युत अवश्य होगा। इसी प्रकार आत्मिक भोजन प्राप्त किये बिना, आत्मशोधन किये बिना, भी अन्तःकरण स्वस्थ नहीं रह सकता उसकी स्थिति, स्थान भ्रष्ट जैसी ही हो जावेगी। शतपथ कार का यही अभिप्राय है। इस अभिप्राय का दृढ़ फलितार्थ यह है कि हमारे लिए नित्यप्रति साधन करना उचित एवं आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है। श्रुति कहती है- ‘‘स्वाध्यायान्मा प्रमदतव्यं ।’’ स्वाध्याय में प्रमाद मता करो ।। इस महत्वपूर्ण कार्य में हममें से किसी को प्रमाद नहीं करना चाहिए।
द्विजातीयों के लिए- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के लिए, तो साधना अत्यन्त आवश्यक है। शूद्र उसे कहते हैं जो मनुष्य शरीर तो धारण किये हुए हैं, पर मनुष्य आत्मा जिसके अन्दर नहीं है। ऐसे मानव प्राणियों की कमी नहीं जो नैतिक और आत्मिक दृष्टि से पशुओं से भी गये बीते हैं। ऐसे लोग न तो आत्मा को ही पहचानते हैं और ना आत्मा के उत्तरदायित्व को समझते हैं, उनके लिए न तो साधना का महत्त्व है और न आत्म प्राप्ति का। ऐसे लोगों की प्रवृत्ति ही इस मार्ग में नहीं होती, शास्त्रों के आदेश और सत्पुरूषों के उपदेशों की ओर उनका मन आकर्षित नहीं होता ।। ऐसी मनोभूमि के लोगों को शास्त्रकारों ने छोड़कर ठीक ही किया है, वे स्वयं ही इधर आंख उठाकर नहीं देखते, उरकी रूचि इधर मुड़ती ही नहीं, ऐसे लोगों पर क्या उत्तरदायित्व लादा जाय। राज के कानून करके शास्त्रकारों ने उस श्रेणी के लोगों का अलग रहना स्वीकार कर लिया है, पर उन चैतन्य लोगों पर, द्विजों पर, इस बात के लिए अत्यधिक जोर दिया है कि वे साधना में अनध्याय न करें, अन्यथा उनकी भी गणना शूद्रों में होगी, उन्हें भी उसी श्रेणी का समझा जायगा।
साधना कौन सी करनी चाहिए। इस प्रश्न के सम्बन्ध में क्या कहा जाय। अन्य साधनाओं के विषय में मतभेद हो सकता है, पर शिखा सूत्र धारी किसी हिन्दू को गायत्री की महानता में सन्देह नहीं हो सकता। क्योंकि वह ‘वेदमाता’ है, उसकी महत्ता को सम्पूर्ण शास्त्रों, सम्प्रदायों और ऋषियों ने एक स्वर से स्वीकार किया है। जिसने भी इस महासाधन का अनुभव किया है, उसने उसकी सर्वोत्कृष्टता को माना है। हम भी गायत्री उपासना को अपना नित्य नियम- सत्कर्म बतावें तो उन्हीं लाभों को प्राप्त कर सकते हैं, जिन्हें असंख्यों ने अब तक प्राप्त किया है।