प्रज्ञोपनिषद -3

अध्याय -1

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॥ अथ प्रथमोऽध्यायः॥
परिवार- व्यवस्था प्रकरण
एकदा तु हरिद्वारे कुंभपर्वणि पुण्यदे।
पर्वस्नानस्य सञ्जातः समारोहोऽत्र धार्मिकः॥ १॥
देशांतरादसंख्यास्ते सद्गृहस्थाश्च संगताः।
अवसरे च शुभे सर्वे पुण्यलाभाप्तिकाम्यया॥ २॥
सद्भिर्महात्मभिश्चापि संगत्यात्र परस्परम्।
संदर्भेसमयोत्पन्नस्थितीनां विधयः शुभाः॥ ३॥
मृग्यास्तथा स्वसंपकर्क्षेत्रजानां नृणामपि।
समस्यास्ताः समाधातुं सत्प्रवृत्तेर्विवर्धने॥ ४॥
मार्गदर्शनमिष्टं च राष्ट्रकल्याणकारकम्।
भागीरथीतटे तस्मात्सम्मर्दः सुमहानभूत्॥ ५॥
पुण्यारण्येषु गत्वा च सर्वे देवालयेष्वपि।
प्रेरणाः प्राप्नुवन्त्युच्चा धार्मिकास्ते जनाः समे॥ ६॥

टीका-एक बार पुण्यदायी कुंभपर्व पर हरिद्वार क्षेत्र में विशाल पर्व स्नान का धर्म समारोह हुआ। देश- देशांतरों से अगणित सद्गृहस्थ उस अवसर पर पुण्य- लाभ पाने के लिए एकत्रित हुए। साधु- संतों को भी परस्पर मिल- जुलकर सामयिक परिस्थितियों के संदर्भ में उपाय खोजने थे, साथ ही अपने संपर्क क्षेत्र के लोगों की समस्याएँ सुलझाने एवं सत्प्रवृत्तियाँ बढ़ाने के संदर्भ में राष्ट्र कल्याणकारी मार्गदर्शन भी करना था। भागीरथी के तट पर अपार भीड़ थी, तीर्थ आरण्यकों और देवालयों में पहुँचकर धर्म- प्रेमी उच्चस्तरीय प्रेरणाएँ प्राप्त कर रहे थे॥ १- ६॥

व्याख्या—कुंभ आदि पर्वों पर तीर्थस्थानों पर भारी संख्या में संतों और गृहस्थों के संगम होते रहने के प्रमाण स्थान- स्थान पर मिलते रहते हैं। मोटी मान्यता यह है कि समय विशेष पर स्नान आदि का विशेष पुण्य प्राप्त करने के लिए ही लोग पहुँचते हैं। वह भी एक पुण्य हो सकता है, किंतु प्रस्तुत संदर्भ में अनेक महत्त्वपूर्ण उद्देश्यों की चर्चा की गई है।

अनादिकाल से ऋषियों का संतों का एक देशव्यापी तंत्र कार्य करता रहा है। अपनी- अपनी साधनाओं से उपलब्ध महत्त्वपूर्ण सूत्रों का एकीकरण, बदलती परिस्थितियों के अनुरूप धर्मतंत्र के क्रियात्मक सूत्रों का निर्धारण, सामाजिक राष्ट्रीय समस्याओं के संदर्भ में सर्वसम्मत हल तथा तदनुरूप मार्गदर्शन की व्यवस्था जैसे महत्त्वपूर्ण पुण्यदायी कार्य ऐसे अवसरों पर किए जाते थे। इनका लाभ जनसामान्य भी उठाते थे और जन- जन तक पहुँचाने का क्रम भी चलता रहता था।

अस्मिन् पर्वणि धौम्यश्च महर्षिः स व्यधाच्छुभम्।
सत्रं तत्र गृहस्थानां मार्गदर्शनहेतवे॥ ७॥
तस्या आयोजनस्येयं सूचना विहिताऽत्र च।
शंखनादेन घण्टानां निनादेनापि सर्वतः ॥ ८॥

टीका-इस पर्व आयोजन के बीच महर्षि धौम्य ने सद्गृहस्थों के मार्गदर्शन हेतु एक विशेष सत्र का आयोजन किया। इस आयोजन की सूचना शंख बजाते हुए सभी को दे दी गई॥ ७- ८॥

व्याख्या—प्राचीनकाल के ऋषियों ने अपने समय की समस्याओं पर उसी समय की परिस्थितियों का ध्यान रखते हुए प्रकाश डाला था। आज की स्थिति उस समय से भिन्न है। आज वे समस्याएँ नहीं रहीं, जो प्राचीन काल में थीं। तब परिवार सीमित और सुसंस्कारी होते थे, साधन भी पर्याप्त थे। परंतु अब नई समस्याएँ सामने हैं, उनके समाधान आज के हिसाब से ही ढूँढ़ने होंगे। यह काम युगद्रष्टाओं और कालपुरुषों का है। वे ही समय- समय पर युगानुरूप समस्याओं के समाधान प्रस्तुत करते रहे हैं। यहाँ महर्षि ने बदलती परिस्थितियों में समयानुकूल समाधान प्रस्तुत करने के लिए सद्गृहस्थों सामान्यजनों को आमंत्रित किया है।

सत्रसप्ताहमारब्धं विषयेष्वपि च सप्तसु।
प्रथमे दिवसे चाभूदौत्सुक्यमधिकं नृणाम्॥ ९॥
जिज्ञासवो गृहस्थाश्च बहवस्तत्र संगताः।
गृहिण्योऽपि विवेकिन्यो बह्व्यस्तत्र समागताः॥ १०॥
उपस्थितान् गृहस्थाँश्च संबोध्योवाच तत्र सः।
ऋषिर्धौम्यो गृहस्थस्य गरिम्णो विषयेऽद्भुतम्॥ ११॥
पुण्यदं घोषितं तच्च गृहेऽपि वसतां नृणाम्।
वातावृतेस्तपोभूमेः समानाया विनिर्मितेः ॥ १२॥
गुरुकुलस्य विशालस्य संचालनविधेरिव।
ओजस्विन्यां गभीरायां वाचि वक्त व्यमाह च॥ १३॥

टीका—सत्र प्रारंभ हुआ। इसे सात दिन चलना था और सात विषयों पर प्रकाश डाला जाना था। प्रथम दिन उत्सुकता अधिक थी। बहुत से जिज्ञासु गृहस्थ उपस्थित हुए। विचारशील महिलाएँ भी उसमें बड़ी संख्या में उपस्थित थीं। उपस्थित सद्गृहस्थों को संबोधित करते हुए, महर्षि धौम्य ने गृहस्थ धर्म की अद्भुत गरिमा बताई। उसे घर में रहते हुए तपोवन का वातावरण बनाने और गुरुकुल चलाने के समान पुण्य फलदायक बताया। गंभीर ओजस्वी वाणी में अपना प्रतिपादन प्रस्तुत करते हुए वे बोले॥ ९- १३॥

व्याख्या—गृहस्थ धर्म जीवन का एक पुनीत, आवश्यक एवं उपयोगी अनुष्ठान है। आत्मोन्नति करने के लिए यह एक प्राकृतिक, स्वाभाविक और सर्वसुलभ योग है। गृहस्थ धर्म के परिपालन से ही आत्मभाव की सीमा बढ़ती है, एक से अनेक तक आत्मीयता फैलती विकसित होती है। इसमें मनुष्य अपनी दिन- दिन की खुदगर्जी के ऊपर अंकुश लगाता जाता है, आत्मसंयम सीखता और स्त्री, पुत्र, संबंधी, परिजन आदि में अपनी आत्मीयता बढ़ाता जाता है। यही उन्नति धीरे- धीरे आगे बढ़ती जाती है और मनुष्य संपूर्ण चर- अचर में जड़- चेतन में, आत्मसत्ता को ही समाया देखता है। उसे परमात्मा की दिव्य ज्योति जगमगाती दीखती है।

गृहस्थाश्रम ऐसा आश्रम कहा है, जिसकी परिधि में आज के विश्व की बहुसंख्य जनसंख्या समा जाती है। इस दृष्टि से इस आश्रम की मर्यादाओं में किसी भी भले- बुरे परिवर्तन का प्रभाव सर्वाधिक लोगों को प्रभावित करता है, जो कि समाज की एक इकाई है। समाज का एक स्वरूप ही मनुष्य का अपना परिवार है। परिवार संस्था को लौकिक तथा आध्यात्मिक उत्कर्ष के लिए अतीव उपयोगी माना गया है। परिवार जीवन की परिभाषा करते हुए ऋषि- मनीषियों ने कहा है परिवार परमात्मा की ओर से स्थापित एक ऐसा साधन है, जिसके द्वारा हम अपना आत्मविकास सहज ही में कर सकते हैं और आत्मा में सतोगुण को परिपुष्ट कर सुखी, समृद्ध जीवन प्राप्त कर सकते हैं। मानव जीवन की सर्वांगीण सुव्यवस्था के लिए पारिवारिक जीवन प्रथम सोपान है। मनुष्य केवल सेवा, कर्म और साधना में ही पूर्ण शांति प्राप्त कर सकता है।

जिस प्रकार परमात्मा और आत्मा में सिवाय छोटे बड़े स्वरूप के और कोई अंतर नहीं है, उसी प्रकार समाज और परिवार में कोई अंतर नहीं है। परिवार को समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाना समाज के उत्थान करने की एक छोटी- सी प्रक्रिया है। उसको क्रियात्मक रूप देने की प्रयोगशाला परिवार है। समाज सेवा का परिपूर्ण अवसर अपने परिवार के छोटे से क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति को प्राप्त है और उतने का सुधार कर सकना सरल एवं साध्य भी है। यदि हम सब अपने कौशल, ज्ञान और क्षमता का पूरा- पूरा लाभ देकर परिवार के माध्कयम से समाज सेवा का उत्तरदायित्व निभाते चलें, तो जल्दी ही वे परिस्थितियाँ आ सकती हैं, वह सुकाल आ सकता है, जो कभी प्राचीन युग में रही हैं। शास्त्र का वचन है|


तथा तथैव कार्योऽत्र न कालस्य विधीयते।
अभिन्नेव प्रयुञ्जानो ह्यभिन्नेव प्रलीयते॥

अर्थात् इस संसार के साथ हमारा संयोग है, इसी संसार में हमारा लय हो जाएगा, तब हमें जिस समय जो कर्त्तव्य हो, वही करना अनिवार्य है। व्यक्ति गत सुविधा अथवा असुविधा को लेकर कर्त्तव्य के पुण्य पथ पर चलते रहना चाहिए। इसीलिए धर्म ने गृहस्थाश्रम को तपोभूमि कहकर उसकी महत्ता स्वीकार की है।
गृहस्थ एव इज्यते गृहस्थस्तप्यते तपः।
चुतुर्णामाश्रमाणां तु गृहस्थस्तु विशिष्यते॥

अर्थात् गृहस्थ ही वास्तव में यज्ञ करते हैं। गृहस्थ ही वास्तविक तपस्वी हैं। इसलिए चारों आश्रमों में गृहस्थाश्रम ही सबका सिरमौर है। गृहस्थ जीवन एक तप है, एक साधना है। इसका समुचित प्रयोग करके ही वास्तविक जीवन लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।

यहाँ ऋषि श्रेष्ठ ने गृहस्थाश्रम को तपोवन बताते हुए उसकी गरिमा बताने एवं इस आश्रम को एक समग्र गुरुकुल व्यवस्था के रूप में चलाने, विकसित करने की महत्ता दर्शाने का प्रयास आरंभ किया है। उन्होंने अपने उद्बोधन का शुभारंभ ही गृहस्थाश्रम के माहात्म्य से किया है। जो स्पष्टतः इस प्रकरण की गंभीरता जताता है।

धौम्य उवाच
गृहस्थाश्रमधर्मस्य परिपालनमप्यहो ।।
योगाभ्यास इवास्तीह संयमादात्मनः सदा॥ १४॥
यथाकालं तु ये चैनं धर्मं संपादयन्त्यलम्।
परलोकेऽथ लोकेऽपि सुखं संतोषमेव च॥ १५॥
यशः श्रेयश्च विन्दंति मोदन्ते सर्वदा तथा।
स्वप्रयासानुरूपं च लभन्ते पुण्यमुत्तमम् ॥ १६॥
सद्गतेरधिकारित्त्वं प्राप्यते यान्ति निश्चितम्।
जीवनस्य परं लक्ष्यं पदं च योगिनो यथा॥ १७॥

टीका-महर्षि धौम्य ने कहा गृहस्थ धर्म का परिपालन भी एक प्रकार का योगाभ्यास है। चूँकि इसमें सदा आत्मसंयम का पालन करना पड़ता है। जो इसे यथा समय सही रूप में संपन्न करते हैं, वे लोक और परलोक में सुख, संतोष यश एवं श्रेय को प्राप्त करते हैं तथा प्रसन्न रहते हैं। अपने प्रयास के अनुरूप वे पुण्यफल पाते और सद्गति के अधिकारी बनकर योगियों की तरह ही जीवन लक्ष्य तक पहुँचते और परमपद पाते हैं॥ १४- १७॥

व्याख्या-गृहस्थ धर्म का पालन करना एक प्रकार से योग की साधना करना है। अनेक प्रकार के योगों में एक गृहस्थ योग भी है। इसमें परमार्थ, सेवा, प्रेम, सहायता, त्याग, उदारता और बदला पाने की इच्छा से विमुखता यही दृष्टिकोण प्रधान है। यह योग महत्त्वपूर्ण, सर्वसुलभ तथा स्वल्प श्रम- साध्य है। योग के नाना रूपों का एक ही प्रयोजन है आत्मभाव को विस्तृत करना, तुच्छता को महानता के साथ बाँध देना। भगवान मनु का कथन है कि गृहस्थाश्रम में पुरुष उसकी पत्नी और संतान मिलकर ही एक पूर्ण मनुष्य बनता है, उनकी आत्मीयता का दायरा क्रमशः बढ़ता ही जाता है। अकेले से पति- पत्नी दो में, फिर बालक के साथ तीन में, संबंधियों में, पड़ोसियों में, गाँव, प्रांत, प्रदेश, राष्ट्र और विश्व में यह आत्मीयता क्रमशः बढ़ती है। अंततः समस्त जड़ चेतन में आत्मभाव फैल जाता है और अंत में जीव पूर्णतया आत्मसंयमी हो जाता है। गृहस्थ योग की छोटी- सी सर्वसुलभ साधना जब अपनी विकसित अवस्था तक पहुँचती है तो आत्मा परमात्मा बन जाता है और पूर्णता की प्राप्ति होती है।  ऋषि श्रेष्ठ यहाँ यह समझा रहे हैं कि परिवार निर्माण एक विशिष्ट स्तर की साधना है, उसमें योगी जैसी प्रज्ञा और तपस्वी जैसी प्रखर प्रतिभा का परिचय देना पड़ता है। कलाकार अपने आपको साधता है, किंतु परिवार निर्माता को एक समूचे समुदाय के विभिन्न प्रकृति और स्थिति के लोगों का निर्माण करना पड़ता है। यह कार्य सघन आत्मीयता, समग्र दूरदर्शिता एवं समर्थ तत्परता से ही संभव हो सकता है। इसके लिए धरती जैसी सहनशीलता, पर्वत जैसा धैर्य धारण और सूर्य जैसी प्रखरता का समन्वय सँजोना पड़ता है। इन सद्गुणों के अभाव में सुसंस्कृत- सुसंस्कारी परिवार के निर्माण का संयोग संभव नहीं।


लघुराष्ट्रं समाजोऽल्पः परिवारस्तु वर्तते।
सीमिताश्च जनास्तत्र परिवारे भवंत्यपि ॥ १८॥
अतएव विधातुं च गृहस्थं सुव्यवस्थितम्।
विकासोपेतमप्यत्र सुविधा अधिका मताः ॥ १९॥
वसतां परिवारे च सञ्चालनकृतामपि ।।
दायित्वमुभयोरेतत्समुदायमिमं सदा ॥ २०॥
समाजं राष्ट्रमेवापि सादर्शं निर्मितुं समान्।
सद्भावान् बुद्धिमत्तां च क्रियाकौशलमाश्रयेत्॥ २१॥

टीका—परिवार एक छोटा राष्ट्र या समाज है। उसमें सीमित लोग रहते हैं। अस्तु उसे सँभालने, विकसित करने का अभ्यास करते रहने की सुविधा भी अधिक है। जो परिवार में रहें या उसे चलाएँ, उन दोनों ही वर्गों का उत्तरदायित्व है कि इस समुदाय को एक आदर्श समाज, आदर्श राष्ट्र बनाने में अपनी समस्त सद्भावना, बुद्धिमत्ता एवं क्रिया- कौशल नियोजित करें॥ १८- २१॥

व्याख्या—महर्षि ने बड़ा महत्त्वपूर्ण सूत्र यहाँ दिया है। जो व्यक्ति की, समाज की, राष्ट्र की महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ सँभालना चाहते हैं, वे उसके अनुकूल अनुभव किसी परिवार को आदर्श ढंग से संचालित करके प्राप्त कर सकते हैं। अभ्यास का यह मार्ग सबके लिए खुला है।
समाज को आदर्श बनाने के लिए कोई कुछ कर सके या न कर सके, पर उसकी एक इकाई अपने परिवार को उस आधार पर विकसित किया जा सकता है। पारिवारिक प्रवृत्तियाँ ही संयुक्त होकर सामाजिक स्तर पर प्रकट होती हैं। परिवार में रहने वाला हर छोटा- बड़ा व्यक्ति इस जिम्मेदारी को समझे और निबाहे तो परिवार भी आदर्श बने और समाज भी।

यह एक जाना- माना सिद्धांत है कि जैसा साँचा होगा वैसी ही मूर्तिकार की रचना ढलेगी। समाज एक ऐसी मूर्ति है, जिसका साँचा परिवार है। समाज निर्माण, समाज सुधार, सत्प्रवृत्ति विस्तार सबसे पहले परिवार संस्था से आरंभ होता है। आदर्श परिवार ही किसी सशक्त समाज की आधारशिला बनाते हैं। इसी कारण महामानवों का ध्यान परिवार पर सर्वाधिक रहा है।

वस्तुतः परिवारस्तु संयुक्तो कथितो बुधैः।
पुण्यं संघटनं यस्य सुव्यवस्था मता तु सा॥ २२॥
सद्भावस्य बाहुल्यात्सहकारस्य संततम्।
कर्त्तव्यपालने बुद्धिः कर्त्तव्या परिवारगैः॥ २३॥
अधिकारोपलब्धेश्च यावत्यः सुविधाश्च ताः।
भवेयुः कर्म कर्तुं च यत्र यत्नो विधीयताम्॥ २४॥
स्वापेक्षया परेषां हि सुविधासु भवेद् यदि।
ध्यानं तदैव कस्मिंश्चित्समुदाये तु मित्रता ॥ २५॥
आत्मीयता तथा नूनं सहकारस्य भावना।
विकसिता दृश्यते यैश्च बिना शून्यं हि जीवनम्॥ २६॥

टीका—परिवार वस्तुतः एक पवित्र संयुक्त संगठन है। उसकी सुव्यवस्था पारस्परिक सद्भाव- सहकार की बहुलता से ही बन पड़ती है। सभी सदस्य कर्त्तव्यपालन पर अधिक ध्यान दें और अधिकार उपलब्ध करने की जितनी सुविधा मिले, उसी में से किसी प्रकार काम चलाने का प्रयत्न करें। अपनी अपेक्षा दूसरों की सुविधा का ध्यान अधिक रखने पर ही किसी समुदाय में मैत्री, आत्मीयता एवं सहकार के सद्भाव विकसित होते हैं, जिनके बिना जीवन शून्य प्रतीत होता है॥ २२- २६॥

व्याख्या—परिवार क्या है? इसका बड़ा सुंदर विवेचन यहाँ किया गया है। सामान्य रूप से एक कुटुंब के व्यक्ति परिवार में माने जाते हैं। परंतु ऋषि कहते हैं यह सद्भावना और सहकार के आधार की पृष्ठभूमि पर विनिर्मित पावन संगठन है। इस आधार पर यदि एक कुटुंब के व्यक्ति भी स्वार्थ भरी आपाधापी के बीच रहते हैं, सद्भाव सहकार उनमें नहीं है तो वह भी परिवार नहीं, मजबूरी में एक बाड़े में बंद जानवर जैसे लोग हैं।

दूसरी ओर कोई भी व्यक्ति यदि परस्पर उच्च उद्देश्यों को लक्ष्य करके सद्भाव- सहकारपूर्वक साथ- साथ रहते हैं, तो वह एक परिवार है। ऐसा परिवार सभी के लिए आवश्यक होता है। ऋषि- संत आदि आश्रमों में इसी आधार पर परिवार भाव बनाकर रहते हैं। जहाँ परिवार भाव है, वहाँ कोई भी समूह परिवार कहलाता है। इसीलिए पारिवारिकता को आदर्श सामाजिक व्यवस्था माना जाता है।

व्यक्ति एकाकी रह तो सकता है, पर वह बड़ी कष्टकारी साधना है। भ्रूणावस्था से लेकर बड़े होकर स्वावलंबी बनने तक मानव के विकास में समाज का हर घटक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। कोई चाहे कि वह बिना किसी के सहयोग के अपनी यात्रा चलाता रहे, तो ऐसे व्यक्ति को इक्कड़, संकीर्ण, स्वार्थी ही कहा जाएगा।

परिवार की सार्वभौम नूतन परिभाषा में मैत्री के आधार पर बना वह संगठन भी आता है, जिसके हर सदस्य परस्पर अन्योन्याश्रित होते हैं, एक दूसरे के सद्भाव का अवलंबन लेकर आगे बढ़ते हैं। कोई जरूरी नहीं कि व्यक्ति विवाह करके, परिवार बसाकर ही गृहस्थ धर्म निभाएँ। यदि वह एक परिवार विशेष को पारिवारिकता का पोषण देता है, तो प्रकारांतर से परिवार धर्म की साधना ही करता है। महत्ता संगठन की सरंचना की नहीं उस भावना की, निष्ठा की है, जो ऐसी प्रक्रिया अपनाने पर अंत में विकसित होती है।


कामकौतुकहेतोर्वा भोजनस्य कृते पुनेः॥ २७॥
वस्तुसंग्रहरक्षार्थं नित्यकर्मव्यवस्थितेः ।।
इयन्मात्राय दायित्वं बृहत्कश्चित्कथं वहेत् ॥ २८॥
एतास्तु सुविधा द्रव्यात्पण्यशालासु चाञ्जसा।
प्राप्तुं शक्या व्ययश्चापि न्यूनस्तत्र भवेत्तथा॥ २९॥
दायित्वेभ्योऽपरेभ्यश्च मुक्त स्तिष्ठति मानवः।
इयत्यपि नरो बद्धा कुटुंबस्यानुशासने ॥ ३०॥

टीका—परिवार संस्था का गठन काम- कौतुक, भोजन व्यवस्था, सामान की सुरक्षा एवं नित्यकर्मों की व्यवस्था मात्र के लिए नहीं होता। इतने भर के लिए कोई क्यों तैयार होगा? ये सुविधाएँ तो सराय में पैसा चुकाते रहने पर और भी सरलतापूर्वक मिल सकती हैं। उनमें खरच भी कम पड़ेगा और जिम्मेदारियों से भी मुक्त रहा जा सकेगा। इतने पर भी हर बुद्धिमान व्यक्ति परिवारगत अनुशासन में ही बँधना चाहता है॥ २७- ३०॥

व्याख्या—परिवार परंपरा को प्रोत्साहित करने में ऋषियों का मंतव्य केवल इतना ही नहीं रहा कि व्यक्ति एक से बहुत होकर रहें। दुःख तकलीफ पड़ने पर उसका हाथ बँटाने वाला साथ हो। व्यक्ति व्यवस्थित रूप में स्थाई होकर रहे और परिजनों के साथ अधिक उल्लासपूर्ण जीवनयापन करे। इस असाधारण मनुष्य आत्म- कल्याण की ओर भी अग्रसर हो। उसमें सामाजिकता, नागरिकता और सबसे बड़ी बात विश्व मानवता का कल्याणकारी भाव जागे। वह अपने जैसे अन्य मनुष्यों के लिए त्याग, सहानुभूति, सौहार्द एवं आत्मीयता का अभ्यास कर सके। पारिवारिक जीवन में ही आध्यात्मिक गुणों को विकसित करने का पूरा- पूरा अवसर मिलता है।

यहाँ एक ऐसा भ्रम दूर करने का प्रयास किया गया है, जिसमें अधिकांश लोग उलझकर रह जाते हैं। परिवार की आवश्यकता जीवन की सामान्य सुविधाओं के लिए होती है। यह आम मान्यता बन गई है। यदि यही सच होता, कामवासना की तुष्टि, भोजन व्यवस्था, सामान की सुरक्षा, नित्यकर्म की सुविधाएँ आदि के लिए तो धर्मशाला जैसी व्यवस्था ही काफी होती।

परंतु ऐसा है नहीं। मनुष्य की एक बड़ी आवश्यकता है, सघन आत्मीयता की अनुभूति, अपनत्व का विस्तार, अंतरंग स्नेह का रसास्वादन। पाश्चात्य परंपरा में परिवार को स्थूल व्यवस्था के लिए बनाया गया, एक ठेका मानकर प्रयोग किया गया। पहले तो कुछ समय यह व्यवस्था अच्छी लगी, पर फिर क्षोभ, असंतोष उभरने लगा। वहाँ साधन खूब हैं, एक दूसरे की स्वतंत्रता में कोई बाधक नहीं बनता, बल्कि पति- पत्नी, बच्चों और माँ- बाप के बीच यह सघन स्नेह नदारद हो गया, जिसे मानवीय अंतःकरण की खुराक माना जाता रहा है।

अनेक सर्वेक्षणों के आधार पर यह पाया गया है कि अमेरिका जैसे संपन्न राष्ट्र में ८० प्रतिशत व्यक्ति यों को सोने के लिए नींद की गोली लेनी पड़ती है। उनमें से आधे से अधिक के मानसिक तनाव का कारण उनके पारिवारिक जीवन में स्नेह सद्भाव, आत्मीयता का पूर्ण अभाव पाया जाना है।


स्थातुमिच्छन्ति तत्रास्ति योग आत्मपरिष्कृतेः।
समाजाय सुयोग्यानां नागराणां समर्पितेः॥ ३१॥
वातावृतौ सुयोग्यायां व्यक्ति स्तिष्ठति सर्वदा।
संतुष्टा च प्रसन्ना च निश्चिंता च कुटुंबके॥ ३२॥
अतएव चिरादेष मनुष्यो वसति स्वयम्।
कृत्वा परिवारनिर्माणं वैशिष्ट्यं मौलिकं त्विदम्॥ ३३॥
पारिवारिकताऽऽधारं समाश्रित्यैव जीवनम्।
अभूद् विकसितं तस्य जीवनं पशुतां गतम्॥ ३४॥
सामूहिकस्य योगोऽभूदुत्कर्षस्यैवमेष तु ।।
सृष्टेर्मुकुटरत्नं यन्मनुष्यः कथ्यतेऽधुना ॥ ३५॥

टीका—इसके साथ आत्म परिष्कार और समाज को सुयोग्य नागरिक प्रदान करने का परमार्थ भी जुड़ा हुआ है। उपयुक्त वातावरण में रहकर व्यक्ति प्रसन्न, संतुष्ट और निश्चिंत रहता है। इसलिए मनुष्य चिरकाल से परिवार बनाकर रहता आ रहा है। यह उसकी मौलिक विशेषता है। पारिवारिकता के आधार पर ही उसका पशुतुल्य निजी जीवन विकसित हुआ है और सामूहिक उत्कर्ष का ऐसा सुयोग बन सका है, जिसमें मनुष्य को सृष्टि का मुकुटमणि कहा जाता है॥ ३१- ३५॥

व्याख्या—मानव सभ्यता का जितना विकास वर्तमान समय में दिखलाई पड़ता है, उसका अधिकांश श्रेय परिवार प्रथा को ही दिया जा सकता है। जिस युग में मनुष्य बिना परिवार के एकाकी रहता था तब उसमें और अन्य पशुओं में बहुत थोड़ा ही अंतर था। परिवार बनाकर रहने के पश्चात् उस पर स्त्री और बच्चों की सुरक्षा तथा पालन का जो उत्तरदायित्व आया, उसी से उसमें सामूहिकता तथा सहयोग की वृत्तियाँ उत्पन्न हुईं। इसी के द्वारा उसे स्वार्थ, त्याग और समाज सेवा का पाठ पढ़ने को मिला, जिससे क्रमशः लोगों को संगठन और सहयोगपूर्वक काम करने का अभ्यास बढ़ता गया और मानव समाज अन्य प्राणियों से सशक्त स्थिति में पहुँच सका तथा स्रष्टा की उत्कृष्टतम कृति कहलाने का सौभाग्य प्राप्त कर सका।

अध्यात्म क्षेत्र में सामान्यतया यह मान्यता बन गई है कि गृहस्थ एक बंधन है, उससे जान छुड़ाने का प्रयास किया जाए। इस मान्यता ने गृहस्थाश्रम की पवित्रता और उसकी व्यवस्था को छिन्न- भिन्न कर दिया है। यह बात ठीक है कि कुछ महापुरुष गृहस्थ बसाए बिना भी अपना कार्य करते रहे हैं, परंतु इससे गृहस्थाश्रम की श्रेष्ठता संदिग्ध नहीं हो जाती।

प्राचीनकाल के इतिहास पर दृष्टि डालने से प्रतीत होता है कि कुछ थोड़े से अपवादों को छोड़कर प्रायः सभी गृहस्थ थे। योग- साधना एवं वनवास के समय भी उनकी पत्नियाँ साथ रहती थीं। सभी गृहस्थ मुनि सपत्नीक रहते थे। महर्षियों में प्रधान सप्त ऋषियों की भी पत्नियाँ थीं, उनके बच्चे भी थे। देवताओं में सभी गृहस्थ हैं। ईश्वर के अवतारों में भी अधिकांश ने अपना गृहस्थ बनाया है। भगवान राम और कृष्ण जिनका नाम लेकर हम भवसागर से पार होते हैं, गृहस्थ ही तो थे। दांपत्य जीवन की आवश्यकता एवं उपयोगिता को स्वीकार करते हुए उन्होंने मर्यादापालन के लिए एक सद्गृहस्थ के रूप में ही अपना चरित्र प्रस्तुत किया है। जीवन की सुविधा तो गृहस्थ जीवन में बढ़ती है, साथ ही कितने जीवन लक्ष्यों की पूर्ति में भारी सहायता मिलती है।

चर्चामिमां महर्षिः स धौम्योऽग्रे वर्धयन्पुनः।
उवाच भद्राः शृणुत परिवारस्तु वर्तते ॥ ३६॥
दिव्या प्रयोगशालेव सद्गुणोन्मेषकारिणी।
तस्य सञ्चालनं सम्यक् निर्धारणमथाऽपि च॥ ३७॥
यदि स्यान्निश्चितं तत्र सुयोग्याः शिक्षितास्तथा।
नागराः संभविष्यंति महापुरुषसंज्ञकाः ॥ ३८॥
गुणं कर्म स्वभावं च कर्तुमुच्चैस्तरं तथा।
व्यक्ति त्वं प्रखरं कर्तुं पाठशालेव च स्मृतः॥ ३९॥
अस्ति व्यायामशालेव परिवारस्तुनिश्चितम्।
जीवनस्योपयुक्त ानि वैशिष्ट्यानि समभ्यसन्॥ ४०॥
समर्थो जायते यत्र नरः सर्वत एव च।
आत्मनः परिवारस्य हितं राष्ट्रस्य सिद्ध्यति॥ ४१॥

टीका—ऋषि प्रवर धौम्य अपनी चर्चा आगे बढ़ाते हुए पुनः बोले, हे भद्रजनो परिवार तो सद्गुणों को विकसित करने की एक प्रयोगशाला है। उसका सही निर्धारण एवं सुसंचालन किया जा सके, तो निश्चय ही उस परिकर में से सुयोग्य- शिक्षित नागरिक एवं महामानव निकलेंगे। गुण- कर्म को उच्चस्तरीय बनाने एवं व्यक्ति त्व को गौरवशाली बनाने का पाठ इसी पाठशाला में पढ़ा जाता है। यही वह व्यायामशाला है जिसमें जीवन भर काम आने वाली विशिष्टताओं का अभ्यास करते हुए हर दृष्टि से समर्थ बना जा सकता है, जिससे अपने परिवार का, राष्ट्र का हित सिद्ध होता है॥ ३६- ४१॥

व्याख्या—परिवार को यहाँ एक प्रयोगशाला, पाठशाला एवं व्यायामशाला की उपमा देते हुए एक ऐसी टकसाल बताया गया है, जहाँ समर्थ राष्ट्र के लिए अभीष्ट महामानवों की ढलाई होती है।

मनुष्य का सारा जीवन भली- भाँति की परीक्षाओं से निपटते हुए कटता है। परिवार रूपी प्रयोगशाला में गुण, कर्म, स्वभाव की अच्छी खासी परीक्षा हो जाती है। जहाँ पारिवारिक वातावरण श्रेष्ठ कोटि का होगा, वहाँ के प्रयोग निष्कर्ष भी अनुपम होंगे। महामानवों के जीवन ऐसे ही प्रयोगों की कड़ी कसौटी पर खरे उतरकर श्रेष्ठ बन सकने मं् समर्थ हुए हैं।

पाठशाला सुसंस्कारिता संवर्द्धन के साथ- साथ व्यक्ति के कर्तृत्व को लक्ष्य के साथ जोड़ देने हेतु विनिर्मित एक परिकर है। मात्र स्कूली पढ़ाई पर्याप्त नहीं। जब तक जीवन के विभिन्न पहलुओं का व्यावहारिक अध्ययन- अध्यापन यहाँ नहीं होगा, यह पठन- पाठन व्यर्थ है। व्यक्ति त्व को श्रेष्ठ बनाने का काम पारिवारिक पाठशाला करती है।

व्यायामशाला में शरीर को बलिष्ठ बनाने, अपनी सामर्थ्य को विकसित करने का प्रयास किया जाता है। भाँति- भाँति के संयम- अनुशासन पालने पड़ते हैं। व्यक्ति जब तक पूरी वर्जिस नहीं कर लेता, उसका एक बार किया हुआ व्यायाम पर्याप्त नहीं माना जाता। जागरूकता, कर्मठता के विकास हेतु जरूरी है कि परिवार को एक व्यायामशाला मानते हुए अपने विकारों पर नियंत्रण की एवं समर्थता- विशिष्टता बढ़ाने की साधना भली प्रकार की जाए, ताकि परिवार की समाज की राष्ट्र की एक सर्वांगीण इकाई के रूप में मनुष्य विकसित हो सके।

अधिसंख्य महापुरुषों का जीवन इस तथ्य का साक्षी है कि उन्होंने पारिवारिक वातावरण में ही महानता का पाठ सीखा।

दूरदर्शित्वभावस्य तथैव सुव्यवस्थिते ।।
श्रेष्ठोऽभ्यासो गृहे कर्तुं शक्यो मर्त्येन चाञ्जसा॥ ४२॥
न तथा शक्यते प्राप्तुमन्यत्राऽनुभवो न च।
प्रशिक्षणं लभेतापि व्यवहारानुकूलगम् ॥ ४३॥
आदिकालात्समाश्रित्याधारं तं पारिवारिकम्।
चलतीह तु विश्वस्य व्यवस्था स्वर्गसौख्यदा॥ ४४॥
दिनेषु तेषु चाभूत् सा वातावृतिरतः शुभाः।
सत्यस्यात्र युगस्येव मर्त्यकल्याणकारिका ॥ ४५॥
परंपराऽवहेलैव कारणं प्रमुखं तु तत्।
नरो येन महान् स्वार्थी क्षुद्रो जातो निरंतरम्॥ ४६॥
समस्याभिरनेकाभिस्तथाऽक्ते च विपत्तिभिः।
वृतः परं भविष्यंतु वर्तते प्रोज्ज्वलं ध्रुवम्॥ ४७॥

टीका—सुव्यवस्था और दूरदर्शिता का जितनी अच्छी तरह अभ्यास घर- परिवार के बीच किया जा सकता है, उतना व्यावहारिक प्रशिक्षण एवं अनुभव अर्जित कर सकना अन्यत्र कहीं भी संभव नहीं हो सकता। स्वर्ग के समान सुखदायी विश्व- व्यवस्था आदिकाल से पारिवारिकता के आधार पर चलती रही है। सतयुगी वातावरण उन दिनों इसी कारण बना भी रहा, जो मनुष्य मात्र के कल्याण का कारण था। उस महान परंपरा की अवहेलना ही मुख्य कारण है, जिससे मनुष्य स्वार्थी व क्षुद्र बनता चला गया और अंत में अनेकानेक समस्याओं एवं विपत्तियों से घिर गया, लेकिन उसका भविष्य निश्चित ही उज्ज्वल है॥ ४२- ४७॥

व्याख्या—परिवार एक पूरा समाज, एक पूरा राष्ट्र है। भले ही उसका आकार छोटा हो, पर समस्याएँ वे सभी मौजूद हैं जो किसी राष्ट्र या समाज के सामने प्रस्तुत रहती हैं। प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति को जो बात अपने देश को समुन्नत बनाने के लिए सोचनी- करनी चाहिए, वही सब कुछ व्यवस्था एवं दूरदर्शिता किसी सद्गृहस्थ को परिवार निर्माण के लिए अपनानी पड़ती है। परिवार को एक सहयोग- समिति, एक गुरुकुल के रूप में विकसित करना पड़ता है, जिससे परिवार का वातावरण अच्छा बने, परिजनों को सुसंस्कृत स्तर तक पहुँचाया जा सके। भारत में या विश्व में कहीं भी जब कभी भी आदर्श सामाजिक व्यवस्था स्वर्गीय परिस्थितियाँ बनी हैं, उसका आधार पारिवारिकता की भावना ही रही है। उस भावना के उदय से परिस्थितियाँ सुधरीं और उसके विलय से बिगड़ीं। देश- विदेश के अगणित उदाहरण इसके साक्षी हैं।

प्रस्तोतव्यः स आदर्शः पुरुषैरग्रजैः सदा।
अनुकुर्वन्तु तं सर्वं तथैवाऽऽनुजन्मनः ॥ ४८॥
कुतोऽप्येताः समायान्ति दुष्प्रवृत्तय उद्धताः।
परं प्रभावितान् कर्तुं सदस्यान् परिवारगान्॥ ४९॥
सत्प्रवृत्तिभिराभिश्चेदिष्टं तत्पुरुषैर्वरैः ।।
सदाचारैर्निजैरेवादर्शाः स्थाप्याः स्वयं शुभाः॥ ५०॥
शिक्षा वास्तविकी चैवं दीयते नोपदेशजः।
प्रभावः प्रभवत्यत्र यथाऽऽचारसमुद्भवः॥ ५१॥

टीका—परिवार के बड़े लोग छोटों के सामने अपना आदर्श रखें, ताकि वे उनका अनुकरण कर सकें। दुष्प्रवृत्तियाँ तो कहीं से भी दौड़ती हैं। पर सत्प्रवृत्तियों से पारिवारिक सदस्यों को प्रभावित करना हो, तो उसके लिए बड़ों को ही अपना उदाहरण प्रस्तुत करना होगा। वास्तविक शिक्षा इसी प्रकार दी जाती है। प्रभाव उपदेशों का नहीं, सामने प्रस्तुत होते रहने वाले आचरण का पड़ता है॥ ४८- ५१॥

व्याख्या—पतन सरल है, उत्थान कठिन। पानी का प्रवाह नीचे की ओर ही बहता है। उसे ऊँचा उठाना हो, तो काफी पुरुषार्थ करना पड़ता है। मनुष्य का स्वभाव कुछ इस प्रकार का है कि उसे पतन- पराभव के गर्त में जाते तनिक भी देर नहीं लगती। चिंतन को ऊर्ध्वगामी बनाने हेतु सत्प्रवृत्तियों के उदाहरण ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। दुष्प्रवृत्तियों के लिए किसी को आमंत्रित नहीं करना पड़ता। वे जहाँ कमजोरी देखती हैं आ धमकती हैं।

ऊँचा उठने की प्रवृत्ति तभी अंदर से उमड़ती है, जब वैसा ही आचरण बड़े भी करें। पारिवारिक जन अनुकरण हेतु अपने से बड़ों को ही देखते हैं। यदि घर के सभी वरिष्ठजन स्वयं निष्ठापूर्वक उस दिशा में प्रवृत्त हुए हों, तो सहज ही सबको वह मार्ग अपनाने की प्रेरणा मिलती है। वरिष्ठों से तात्पर्य है, वे जिन्हें अग्रणी- आदर्शपुंज माना जाता है। चाहे परिवार छोटा हो अथवा बड़ा, समाज हो अथवा संस्था, राज्य हो अथवा राष्ट्र सभी पर यह एक ही तथ्य समान रूप से लागू होता है। शिक्षा देने की व्यावहारिक एवं आदर्श विधि यही है कि स्वयं भी वैसा ही आचरण किया जाए। कथनी व करनी में अंतर न हो। वाणी से भले ही कितना ही आदर्श शिक्षण क्यों न दिया जा रहा हो, स्वयं आचरण में न उतारा गया, तो वह थोथा ही सिद्ध होता है।

शिष्टाचारं तथा सर्वे सदस्याः परिवारगाः।
व्यवहरंतु ससम्मानं मधुरं प्रवदंतु च॥ ५२॥
वार्तालापं कटुं नैव नाऽपमानयुतं तथा।
प्रकुर्वन्तु प्रणामस्य स्वीकुर्वन्तु परंपराम्॥ ५३॥
अपशब्दोपयोगोऽथ भूत्वा क्रोधवशस्तथा।
केशाकेशि न कर्त्तव्यं बाहूबाहवि वा पुनः॥ ५४॥

टीका—परिवार का हर सदस्य एक दूसरे के साथ शिष्टाचार बरते। सम्मान करे। मधुर शब्द बोले। कटु और अपमानसूचक वार्तालाप कोई न करे। परस्पर अभिवादन की परंपरा का निर्वाह होता रहे। अपशब्द कह बैठना, आवेश में आकर मारपीट करना सभ्यजनों को शोभा नहीं देता॥ ५२- ५४॥

व्याख्या—परिवार का संतुलन बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि परिजनों में सभी शिष्टाचार का पालन करते और एक- दूसरे के सम्मान का ध्यान रखते हैं अथवा नहीं। किसी के प्रति सम्मान प्रकट करने या प्रणाम करने से मनुष्य छोटा नहीं हो जाता, वरन इससे श्रेष्ठत्व की प्रतिष्ठा ही होती है और उस उच्च भावना का लाभ भी बिना मिले रहता नहीं। शुद्ध अंतःकरण से किया ह
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