प्रज्ञोपनिषद -4

अध्याय -5

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मरणोत्तर- जीवन

पंचमस्यदिनस्यास्मिञ्ज्ञानसत्रे स्थितेष्वलम्।
औत्सुक्यं द्रष्टुमायातं विधाया: साधकेष्वथ॥ १॥
उत्सुकास्तेऽधिकं ज्ञातुं कथं सा देवसंस्कृति:।
अवतारयितुं शक्ता जाता स्वर्गं क्षिताविह॥ २॥
देवोपमान् मनुष्यांश्च कृतवत्यपि कानि तु।
अभूवन् कारणान्येवमाधारा: के च ते मता:॥ ३॥
यानाश्रित्य मनुष्याश्च तत्रासंख्या: स्वगौरवम्।
    अवधार्य कृता पारं मनोरथतरिर्नृणाम् ॥ ४॥
जिज्ञासूनां परं श्रेष्ठं भृगुं मुनिवरं तथा।
कात्यायनो जगादैवं सर्वान्सञ्ज्ञानसाधकान्॥ ५॥

टीका—पाँचवें दिन के ज्ञान सत्र में उपस्थित विद्या- साधकों में और भी उत्सुकता पाई गई। वे अधिक जानने के उत्सुक थे। देव संस्कृति ने किस आधार पर धरती पर स्वर्ग उतारा और मनुष्यो को देवोपम बनाया। उसके वे कारण और आधार क्या थे, जिन्हें अपनाकर असंख्यों ने अपनी गरिमा बढ़ाई और असंख्यों की नाव पार लगाई। कात्यायन ने जिज्ञासुओं में श्रेष्ठ मुनिवर भृगु सहित सभी सद्ज्ञान साधकों को संबोधित करते हुए कहा॥ १- ५॥

पाययन्त्यमरत्वं वै भृशं तद्देवसंस्कृतौ।
आस्थावत: समस्तांश्च बोधयन्त्यपि ते समे॥ ६॥
अमरत्वसुविश्वासा स्यु: सज्जा जीवितुं तथा।
अनन्तं ते विजानीयुर्मृत्युं नान्त: तु विश्रमम्॥ ७॥
जीवितानां मृतानां च मन्यन्ते जन्मवासरा:।
परम्परेयं मृत्योश्च दिनस्यावसरेऽपि तु॥ ८॥
अस्तित्वं पूर्वजानां तद् विचार्यैव विधीयते।
श्रद्धाञ्जलिस्तत: श्राद्धकर्म चापि समैरिह॥ ९॥
कस्यचिन्मृतकस्यापि नान्तमत्र तु मन्यते।
श्रद्धीयतेऽशरीरास्ते स शरीरा इव स्वकाम्॥ १०॥
सत्तां विधाय विद्यंतेऽसंख्यास्ते जीवनस्य च।
उपक्रमं प्रकारेषु विशेषस्तरमाश्रिता: ॥ ११॥
जीवनस्य स्तरस्त्वेको मन्यतेऽत्राशरीरिणाम्।
शरीरिणां च वस्त्रस्यापरिधानस्य तस्य च॥ १२॥
परिधानस्य मध्यस्थास्थितिरेषा तु विद्यते।
अमरत्वस्य चाभासो विश्वासश्चाप्यतोऽत्र तु॥ १३॥
बोध्यते मृत्युमेवान्तं मते या समुदेति सा।
निराशाऽथापि नास्तिक्यं वृणयातां न कश्चन॥ १४॥

टीका—कात्यायन बोले, देवसंस्कृति में अमरत्व का पान कराया जाता है। हर आस्थावान को समझाया जाता है कि वह अमरत्व पर विश्वास करे। अनंत जीवन जीने की तैयारी करे। मृत्यु को विराम विश्राम समझे, अंत नहीं। जीवित या मृतकों के जन्मदिन मनाए जाते हैं। यही परंपरा है। मृत्यु दिन के अवसर पर भी पूर्वजों का अस्तित्व बने रहने की बात सोचकर उन्हें श्रद्धांजलि चढ़ाई जाती है। श्राद्ध- तर्पण सभी के द्वारा किया जाता है। अंत किसी मृतक का भी नहीं माना जाता। समझा जाता है कि वे अशरीरी होते हुए भी शरीरधारियों की तरह सत्ता बनाए हुए हैं और जीवन के असंख्य प्रकारों में से एक विशेष स्तर का उपक्रम बनाए हुए हैं। शरीरधारी और अशरीरी जीवन का स्तर एक- सा ही माना गया है, जैसा वस्त्र पहनने और न पहनने के बीच होता है। अमरता का आभास- विश्वास इसलिए कराया जाता है कि मृत्यु के साथ अंत मानने पर पनपने वाली निराशा और नास्तिकता किसी के सिर न चढ़े॥ ६- १४॥

देवसंस्कृति की ही यह एक अद्भुत विशेषता है कि यहाँ व्यक्ति को सतत् आत्मा के अविनाशी होने, जीवन के गतिशील रहने एवं मरणोत्तर जीवन के अस्तित्व का बोध कराया जाता है। यह आस्तिकतावादी दर्शन का केंद्र बिंदु है।

यदि वर्तमान जीवन व काया रूपी चोले को ही सब कुछ मान लिया गया, तो जीवन के प्रति दृष्टि भोग प्रधान होगी। व्यक्ति दूसरों को कष्ट देकर भी स्वयं सब कुछ पाने व जितना संभव हो सुखोपभोग हेतु बटोरने का प्रयास करेगा। इसीलिए व्यक्ति को हर दिन नया जन्म, हर रात नयी मौत के रूप में नित्य अपने जीवनोद्देश्य के प्रति सोचने को बाध्य किया जाता है। मृत्यु से जीवन का अंत नहीं होता, यह विश्वास व्यक्ति को इसलिए दिलाना जरूरी है कि आशावादी दृष्टिकोण बना रहे व व्यक्ति स्वयं को वर्तमान स्थिति से भी श्रेष्ठ स्थिति में पहुँचा सके, आत्मिक प्रगति के पुरुषार्थ हेतु सक्रिय रहे।


वासांसि जीर्णानि यथा विहानवानि।
            गृह्णाति नरोऽपराणि ॥
तथा शरीराणि विहायजीर्णान्यन्यानि।
                संयाति नवानि देही ॥
                       -गीता २। २२

जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र को त्याग करके नया वस्त्र धारण करता है, इससे वस्त्र बदलता है, मनुष्य नहीं बदलता, इसी प्रकार देहधारी आत्मा पुराने शरीर को छोड़कर दूसरा नया शरीर धारण करता है।

इसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण आगे कहते हैं—‘‘आत्मा अच्छेद्य है, अदाह्य है, अक्लेद्य और अशोष्य है तथा यह आत्मा निस्संदेह नित्य, सर्वव्यापक, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है।’’

गर्भोपनिषद् में बताया गया है कि गर्भावस्था में जीव के अंत:करण में पूर्वजन्मों की स्मृतियाँ जागृत होती हैं और वह कहता है।

हजारों बार मेरा जन्म हो चुका है, विविध प्रकार के आहार मैं खा चुका हूँ, हजारों माताओं का दूध पी चुका हूँ, बार- बार पैदा हुआ हूँ और बार- बार मरा हूँ। आत्मीयों के लिए शुभ और अशुभ कर्म किए हैं, पर वे तो आज साथ हैं नहीं। साथ हैं मेरे कर्म ही, उनका ही फल मुझे मिल रहा है।


विश्वासोऽयं स्थिरस्तिष्ठेज्जीविष्यामो वयं ध्रुवम्।
अनन्तं संगता: कर्मफलश्रृंखलया वयम्॥ १५॥
पराङ्मुखैर्न भाव्यं तु प्रगते: पथि गन्तृभि:।
नाविश्वस्तो भवेत्कर्मफलसंभावनं प्रति॥ १६॥
मान्यते द्वे यदि स्यातां स्थिरेऽन्त:करणे तत:।
प्रतिक्रियाऽनयो: श्रेयोदायिनी सुखदा भवेत्॥ १७॥
यत्तु कर्मफलं तत्र विद्यतेऽद्यतनं न तत्।
प्राप्यतेऽद्य ततो लोका: सन्देहं कुर्वते भृशम्॥ १८॥
विधौ दु:खफलप्राप्तौ सर्वे वै पापकर्मणाम्।
अनंतजीवनस्यास्यां मान्यतायां तथा तु न॥ १९॥
प्रत्येकस्याशुभस्याथ शुभस्यापि च कर्मण: ।।
भविष्यद्दिवसेष्वेवं फलाप्तौ विश्वसन्त्यमी॥ २०॥

टीका—यह विश्वास बना रहे कि अनंतकाल तक जीवित रहना है और कर्मफल शृंखला के साथ अविच्छिन्न संबंध जुड़ा रहना है। इसलिए न तो प्रगति पथ पर चलते रहने से मुख मोड़ा जाए और न कर्मफल की संभावना के प्रति अविश्वास किया जाए। यह दो मान्यताएँ अंत:करण में सुस्थिर रहें, तो फिर उसकी प्रतिक्रिया बहुत ही सुखद और श्रेयस्कर होती है। आज का कर्मफल आज न मिलने के कारण लोग पापकर्मों का दु:खदायी फल मिलने की विधि- व्यवस्था तक में संदेह करने लगते हैं। अनंत जीवन की मान्यता सुदृढ़ होने पर वैसा नहीं होता और हर बुरे- भले कर्म का प्रतिफल अगले दिनों मिलने की बात पर विश्वास करते हैं॥ १५- २०॥
 
कष्टदानस्य दंडश्चेत्तत्कालं नोपलभ्यते।
तत्र तेषां नृणामेव विश्वासो जायते श्लथ:॥ २१॥
न विश्वसंति ये मर्त्या जीवने मरणोत्तरे।
स्रष्टुर्विधौ क्रियायास्तु विद्यते वै प्रतिक्रिया॥ २२॥
पापस्य निश्चितो दंड: प्राप्यतेऽनेकरूपत:।
रूपे विविधदु:खानामत्र नास्त्येव संशय:॥ २३॥
नो चेत्तत्कालमेव स्यान्मरणोत्तरजीवने।
नरकादिषु रूपेषु प्राप्तिस्तस्य तु निश्चिता॥ २४॥
कृतस्य फलमाप्तव्यं भवत्येवेति मान्यताम्।
स्वीकर्तुमनिवार्यं च मरणोत्तरजीवनम्॥ २५॥
यतन्ते भृशमेवैते त्वनुगा देवसंस्कृते:।
आत्मप्रगतिमुद्दिश्य यावदामरणं सदा॥ २६॥

टीका—तत्काल दु:ख दंड न मिलने भर से विश्वास उन्हीं का डगमगाता है, जो मरणोत्तर जीवन पर विश्वास नहीं करते। स्रष्टा की सुनिश्चित विधि- व्यवस्था में क्रिया की प्रतिक्रिया अनिवार्य है। पाप का दंड अनेकानेक दु:खों के रूप में मिलना निश्चित है। यह तत्काल न सही, मरणोत्तर जीवन में स्वर्ग- नरक के रूप में मिलता है। जो किया है, उसका फल मिलेगा ही। इस मान्यता के लिए मरण के उपरांत भी जीवन बना रहने की मान्यता आवश्यक है। देवसंस्कृति के अनुयायी मरणकाल तक आत्मिक प्रगति का प्रयास करते हैं॥ २१- २६॥

कर्मफल व्यवस्था पर अनास्था ही नास्तिकता का प्रतीक है। आस्तिकवादी तत्वदर्शन में विश्वास रखने वाला व्यक्ति क्रिया की प्रतिक्रिया में, कर्म के प्रतिफल में भी विश्वास रखता है। इस नाते उसकी हर क्रिया स्रष्टा के विधान के अंतर्गत चलती व सुव्यवस्थित होती हैं। कर्मफल वस्तुत: एक ऐसी सचाई है, जिसे इच्छा या अनिच्छा से स्वीकार करना ही होगा। भूतकाल के आधार पर वर्तमान बनता है एवं वर्तमान यदि वर्तमान जीवन व काया रूपी चोले को ही सब कुछ मान लिया गया, तो जीवन के प्रति दृष्टि भोग प्रधान होगी। व्यक्ति दूसरों को कष्ट देकर भी स्वयं सब कुछ पाने व जितना संभव हो सुखोपभोग हेतु बटोरने का प्रयास करेगा। इसीलिए व्यक्ति को हर दिन नया जन्म, हर रात नयी मौत के रूप में नित्य अपने जीवनोद्देश्य के प्रति सोचने को बाध्य किया जाता है। मृत्यु से जीवन का अंत नहीं होता, यह विश्वास व्यक्ति को इसलिए दिलाना जरूरी है कि आशावादी दृष्टिकोण बना रहे व व्यक्ति स्वयं को वर्तमान स्थिति से भी श्रेष्ठ स्थिति में पहुँचा सके, आत्मिक प्रगति के पुरुषार्थ हेतु सक्रिय रहे।

वासांसि जीर्णानि यथा विहानवानि।
            गृह्णाति नरोऽपराणि ॥
तथा शरीराणि विहायजीर्णान्यन्यानि।
                संयाति नवानि देही ॥
                          -गीता २। २२

जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र को त्याग करके नया वस्त्र धारण करता है, इससे वस्त्र बदलता है, मनुष्य नहीं बदलता, इसी प्रकार देहधारी आत्मा पुराने शरीर को छोड़कर दूसरा नया शरीर धारण करता है।

इसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण आगे कहते हैं—‘‘आत्मा अच्छेद्य है, अदाह्य है, अक्लेद्य और अशोष्य है तथा यह आत्मा निस्संदेह नित्य, सर्वव्यापक, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है।’’

गर्भोपनिषद् में बताया गया है कि गर्भावस्था में जीव के अंत:करण में पूर्वजन्मों की स्मृतियाँ जागृत होती हैं और वह कहता है।

हजारों बार मेरा जन्म हो चुका है, विविध प्रकार के आहार मैं खा चुका हूँ, हजारों माताओं का दूध पी चुका हूँ, बार- बार पैदा हुआ हूँ और बार- बार मरा हूँ। आत्मीयों के लिए शुभ और अशुभ कर्म किए हैं, पर वे तो आज साथ हैं नहीं। साथ हैं मेरे कर्म ही, उनका ही फल मुझे मिल रहा है।

विश्वासोऽयं स्थिरस्तिष्ठेज्जीविष्यामो वयं ध्रुवम्।
अनन्तं संगता: कर्मफलश्रृंखलया वयम्॥ १५॥
पराङ्मुखैर्न भाव्यं तु प्रगते: पथि गन्तृभि:।
नाविश्वस्तो भवेत्कर्मफलसंभावनं प्रति॥ १६॥
मान्यते द्वे यदि स्यातां स्थिरेऽन्त:करणे तत:।
प्रतिक्रियाऽनयो: श्रेयोदायिनी सुखदा भवेत्॥ १७॥
यत्तु कर्मफलं तत्र विद्यतेऽद्यतनं न तत्।
प्राप्यतेऽद्य ततो लोका: सन्देहं कुर्वते भृशम्॥ १८॥
विधौ दु:खफलप्राप्तौ सर्वे वै पापकर्मणाम्।
अनंतजीवनस्यास्यां मान्यतायां तथा तु न॥ १९॥
प्रत्येकस्याशुभस्याथ शुभस्यापि च कर्मण: ।।
भविष्यद्दिवसेष्वेवं फलाप्तौ विश्वसन्त्यमी॥ २०॥

टीका—यह विश्वास बना रहे कि अनंतकाल तक जीवित रहना है और कर्मफल शृंखला के साथ अविच्छिन्न संबंध जुड़ा रहना है। इसलिए न तो प्रगति पथ पर चलते रहने से मुख मोड़ा जाए और न कर्मफल की संभावना के प्रति अविश्वास किया जाए। यह दो मान्यताएँ अंत:करण में सुस्थिर रहें, तो फिर उसकी प्रतिक्रिया बहुत ही सुखद और श्रेयस्कर होती है। आज का कर्मफल आज न मिलने के कारण लोग पापकर्मों का दु:खदायी फल मिलने की विधि- व्यवस्था तक में संदेह करने लगते हैं। अनंत जीवन की मान्यता सुदृढ़ होने पर वैसा नहीं होता और हर बुरे- भले कर्म का प्रतिफल अगले दिनों मिलने की बात पर विश्वास करते हैं॥ १५- २०॥

कष्टदानस्य दंडश्चेत्तत्कालं नोपलभ्यते।
तत्र तेषां नृणामेव विश्वासो जायते श्लथ:॥ २१॥
न विश्वसंति ये मर्त्या जीवने मरणोत्तरे।
स्रष्टुर्विधौ क्रियायास्तु विद्यते वै प्रतिक्रिया॥ २२॥
पापस्य निश्चितो दंड: प्राप्यतेऽनेकरूपत:।
रूपे विविधदु:खानामत्र नास्त्येव संशय:॥ २३॥
नो चेत्तत्कालमेव स्यान्मरणोत्तरजीवने।
नरकादिषु रूपेषु प्राप्तिस्तस्य तु निश्चिता॥ २४॥
कृतस्य फलमाप्तव्यं भवत्येवेति मान्यताम्।
स्वीकर्तुमनिवार्यं च मरणोत्तरजीवनम्॥ २५॥
यतन्ते भृशमेवैते त्वनुगा देवसंस्कृते:।
आत्मप्रगतिमुद्दिश्य यावदामरणं सदा॥ २६॥

टीका—तत्काल दु:ख दंड न मिलने भर से विश्वास उन्हीं का डगमगाता है, जो मरणोत्तर जीवन पर विश्वास नहीं करते। स्रष्टा की सुनिश्चित विधि- व्यवस्था में क्रिया की प्रतिक्रिया अनिवार्य है। पाप का दंड अनेकानेक दु:खों के रूप में मिलना निश्चित है। यह तत्काल न सही, मरणोत्तर जीवन में स्वर्ग- नरक के रूप में मिलता है। जो किया है, उसका फल मिलेगा ही। इस मान्यता के लिए मरण के उपरांत भी जीवन बना रहने की मान्यता आवश्यक है। देवसंस्कृति के अनुयायी मरणकाल तक आत्मिक प्रगति का प्रयास करते हैं॥ २१- २६॥

कर्मफल व्यवस्था पर अनास्था ही नास्तिकता का प्रतीक है। आस्तिकवादी तत्वदर्शन में विश्वास रखने वाला व्यक्ति क्रिया की प्रतिक्रिया में, कर्म के प्रतिफल में भी विश्वास रखता है। इस नाते उसकी हर क्रिया स्रष्टा के विधान के अंतर्गत चलती व सुव्यवस्थित होती हैं। कर्मफल वस्तुत: एक ऐसी सचाई है, जिसे इच्छा या अनिच्छा से स्वीकार करना ही होगा। भूतकाल के आधार पर वर्तमान बनता है एवं वर्तमान के अनुरूप भविष्य। किशोरावस्था में कमाई हुई विद्या एवं स्वास्थ्य संपदा, जवानी में संपन्नता एवं बलिष्ठता के रूप में सामने आती है। कर्म का परिपाक भी वस्तुत: इसी प्रकार देर- सवेर मिलता अवश्य है। जो जीवन को अनंत- अविरल प्रवाह मानते हैं, वे जानते हैं, कि जो शुभ- अशुभ कर्म किए गए या किए जा रहे हैं, उनके परिणाम कालांतर में अवश्य प्राप्त होंगे।

मरणोतर जीवन की मान्यता की दृढ़ता मन में बिठाए रखना इसीलिए अनिवार्य माना गया है कि इस जीवन के कर्म ही स्वर्ग- नरक जैसी परिस्थितियों के, तदनुरूप पुन: जन्म मिलने या मरणोत्तर योनि में सुख- दु:ख के कारण बनते हैं।

भारतीय दर्शन में कर्मफल की सुनिश्चितता पर बहुत जोर दिया गया है। पर कई बार देखने में ऐसा भी आता है कि दुष्ट कर्म करने वाले दंड से बचे रहते हैं और पुण्यात्माओं को कष्ट सहने पड़ते हैं। इन उदाहरणों से नास्तिक भावना पनपती और मनुष्य उच्छृंखल बनता है। इस असमंजस का निवारण स्वर्ग- नरक की मान्यता एवं पुनर्जन्म के सिद्धांतों से ही होता है।

अस्तु कर्मफल की अनिवार्यता का सिद्धांत मनुष्य के चारित्रिक नियंत्रण की दृष्टि से आवश्यक समझा गया है। उसकी पुष्टि मरणोतर जीवन में, स्वर्ग- नरक एवं पुनर्जन्म में सद्गति- दुर्गति की मान्यताएँ अपनाने से ही बात बनती है।


मृत्यो: पश्चादुभौ स्वर्गनरकावत उत्तरम्।
पुनर्जन्मेति ते व्यक्ता  पूरके मान्यते त्वुभे॥ २७॥
सुखं दु:खमुभे स्वर्गे विशेषे स्त: स्वतस्तु ते।
परलोके स्थिति: सूक्ष्मास्थूला लोकेऽत्र चैव सा॥ २८॥
उभयथैव फले पुण्यपापयोर्मनुजैरिह ।।
प्राप्येते चलतीयं च दीर्घकालं प्रतिक्रिया॥ २९॥
चतुरशीतिकलक्षोक्तयोनिष्वेव नरास्तु ते।
भ्रमंति संति ये त्वत्र कुमार्गाभिरता: सदा॥ ३०॥
त्रासांस्तदनुरूपांश्च सहंतेऽभावमप्यलम् ।।
विपरीततया चास्मात्पुण्यात्मान: परे सदा॥ ३१॥
लाके स्वर्गस्य  मुक्तेश्च जायंते ह्यधिकारिण:।
पुनर्जन्मनि देवात्मावतारेषु महर्षिषु ॥ ३२॥
महामानवरूपेषु जायंते दिव्यतेजस: ।।
दर्शयंति शुभं मार्गं सर्वेषामेव ते तत: ॥ ३३॥

टीका—मरण के उपरांत स्वर्ग- नरक में अपने ढंग के सुख- दु:ख हैं और पुनर्जन्म में अपने ढंग के। परलोक में सूक्ष्म स्थिति है और इहलोक में स्थूल। पुण्य- पाप के प्रतिफल दोनों ही प्रकार के भुगतने पड़ते हैं। यह प्रतिक्रिया लंबी चलती है। कुमार्गगामियों को चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करना पड़ता है और तदनुरूप अभाव एवं त्रास सहने पड़ते हैं। इसके विपरीत पुण्यात्मा परलोक में स्वर्ग और मुक्ति के अधिकारी बनते हैं। पुनर्जन्म होने पर दिव्यतेज संपन्न महामानव, ऋषि, देवात्मा, अवतार के रूप में प्रकट होते हैं और सभी को कल्याणप्रद मार्ग प्रदर्शित करते हैं॥ २७- ३३॥

देवसंस्कृति की जीवन व मरण संबंधी मान्यताएँ शास्त्र सम्मत भी हैं एवं विज्ञान सम्मत भी। मरणोतर जीवन एवं पुनर्जन्म संबंधी अनेकों ऐसे प्रसंग हैं, जो दैनंदिन जीवन में घटते। व इस दर्शन का सत्यापन करते हैं। भले- बुरे कर्मों का प्रतिफल ही स्वर्ग और नरक के रूप में परिणत होता व सुख- दु:ख की अनुभूति कराता है। चाहे वह इस लोक में हो, अथवा मरण के बाद परलोक में। मरण के बाद सूक्ष्म शरीर होने के कारण स्थूल शरीर जैसी पीड़ा- प्रताड़ना या कष्ट तो नहीं होता, किंतु मानसिक प्रसन्नता व खिन्नता की अनुभूतियाँ उससे भी अधिक मात्रा में अंतश्चेतना को प्रभावित करती हैं। स्वर्ग और नरक की भली- बुरी अनुभूतियाँ मानसिक एवं भावनात्मक होती हैं, क्योंकि सूक्ष्म शरीर रहने पर उसी स्तर की अनुभूति संभव है।

नए शरीर में आने के पश्चात अपने पूर्व अनुभवों का विवरण लिखते हुए एक जाग्रत आत्मा की अनुभूति का वर्णन वेद में इस प्रकार आता है।

पुनर्मन: पुनरायुर्म आगन्पुन: प्राण: पुनरात्मा।
म आगन् पुनरचक्षु: पुन: श्रोत्रं म आगन्।
वैश्वानरोऽदब्धस्तनूपा अग्निर्न: पातु: दुरितादवधात्॥
-यजुर्वेद ४ ।। १५

अर्थात—‘‘शरीर में जो प्राण शक्ति (आग्नेय परमाणुओं के रूप में) काम कर रही थी, मैंने जाना नहीं कि मेरे संस्कार उसमें किस प्रकार अंकित होते रहे। मृत्यु के समय मेरी पूर्व जन्म की इच्छाएँ, सोने के समय मन आदि सब इंद्रियों के विलीन हो जाने की तरह मेरे प्राण में विलीन हो गई थीं, वह मेरे प्राणों का (इस दूसरे शरीर में) पुनर्जागरण होने पर ऐसे जाग्रत हो गए हैं, जैसे सोने के बाद जागने पर। मनुष्य सोने के पहले के संकल्प- विकल्प के आधार पर काम प्रारंभ कर देता है। अब मैं पुन: आँख, कान आदि इंद्रियों को प्राप्त कर जागृत हुआ हूँ और अपने पूर्वकृत कर्मों का फल भुगतने को बाध्य हुआ हूँ।’’

विचार और कर्म के संयोग से जो स्वभाव- अभ्यास बनता है, वस्तुत: उसी को संस्कार कहते हैं। यह संस्कार देर से जगते हैं और देर से कटते हैं। मरने के उपरांत इंद्रिय समुच्चय और मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, अंत:करण तो स्थूल शरीर के साथ छूट जाते हैं, किंतु सूक्ष्म शरीर संस्कारों से जकड़ा रहता है। वे ही स्वर्ग- नरक की अनुभूति करते हैं और नए जन्म का आधार बनाते हैं। कुकर्मी गिरते और चौरासी लाख हेय योनियों में भ्रमण करते हैं। चेतना को नए सिरे से विकसित करने के लिए उन्हें वृक्ष जैसी जड़ समझी जाने वाली योनियों में जाना पड़ता है। नए सिरे से प्रगति क्रम आरंभ करने और उपहार- अनुदानों से वंचित करने वाली यह दंड व्यवस्था स्रष्टा ने कर्मफल की सुनिश्चितता को ध्यान में रखकर ही बनाई है। हर जन्म में कर्मों का तुरंत फल नहीं मिल पाता, वे अवसर की प्रतीक्षा में पड़े रहते हैं। परलोक में स्वर्ग- नरक तथा पुनर्जन्म की परिस्थितियों में इन कृत्यों की भरपाई होती रहती है। जिनके कुसंस्कार अधिक भारी और भयानक नहीं हैं, वे प्राय: फिर मनुष्य जन्म प्राप्त कर लेते हैं। उसमें भी कर्मफल भोगने का पर्याप्त अवसर रहता है। कितने ही मनुष्य जन्मजात भली- बुरी उपलब्धियाँ साथ लाते हैं। इसे संचित कृत्यों का प्रतिफल ही कहा जा सकता है।

मनुष्य के उपरांत देव योनियाँ हैं। उनमें न अभाव है, न असंतोष। कामना, वासना में ग्रसित व्यक्ति जिस प्रकार जलते- जलाते रहते हैं, वे उद्विग्नताएँ भी उन योनियों में नहीं हैं। आत्मगौरव को समझने और उपलब्ध संपदाओं का सदुपयोग करने की ऋतंभरा प्रज्ञा इन्हीं दिव्य योनियों में पहुँचने वालों को मिलती है। आदर्शवादी, महामानव, आत्मसंयमी ब्राह्मण परोपकारी, संत, मनस्वी, सुधारक, समर्पित शहीद, अनुकरणीय आदर्श उपस्थित करने वाले अग्रदूत अवांछनीयता के प्रवाह को उलट देने में समर्थ अवतार अपने- अपने स्तर के देवात्मा माने गए हैं। वे काया से तो मनुष्य जैसे ही होते हैं, खाते- सोते भी उसी तरह हैं, किंतु उनकी दूरदर्शिता, उदारता एवं साहसिक सामान्य मनुष्यों की तुलना में उतनी ही ऊँची होती है, जितनी कि धरातल और स्वर्गलोक की।

देवता स्वावलंबी होते हैं। वे सामान्य लोगों से प्रभावित नहीं होते, वरन उनका मार्गदर्शन करते हैं। एकाकी चलते हैं, उन्हें उत्कृष्टता, आत्मप्रेरणा और ईश्वर की अनुकंपा के अतिरिक्त और किसी का सहयोग पाने की न तो इच्छा होती है, न आवश्यकता प्रतीत होती है। वे अंतरात्मा का अनुकरण करते हुए प्रचंड साहस के बल पर एकाकी चलते और पूर्ण चंद्र का उदाहरण बनते हैं। ऐसे लोगों का उदार दृष्टिकोण उन्हें हर घड़ी स्वर्गलोक की अनुभूतियाँ कराता है। उनके आदर्श चरित्र का चुबंकत्व चारों ओर एक देव मंडली समेटे रहता है और शालीनता का वातावरण उनके साथ- साथ चलता है। संकीर्ण स्वार्थपरता के दल- दल से निकलकर वसुधैव कुटुंबकम् की महानता अपनाने वाले भव- बंधनों से स्वयमेव विमुक्त हो जाते हैं।


आस्तिकत्वे चेश्वरस्तु न्यायकर्ता तथैव च।
समदृष्टियुत: सर्वव्यापकश्च मत: समै:॥ ३४॥
क्रियाकृत्यानि प्रेमास्य रोषश्चाश्रयतस्तत:।
अस्या: पुष्टिर्मान्यताया विश्वासेन भवेदिह॥ ३५॥
अनंतजीवनस्यैव सोऽन्यथा मानवो भवेत्।
उद्दंडो नास्तिक: कर्मफलाप्राप्तौ निरंतरम्॥ ३६॥
सर्वनाशश्च स्वस्यैव दृष्टिकोणेन संततम्।
जायतेऽनेन चानीतिजन्यदु:खानि तान्यथ॥ ३७॥
दारिद्र्यं च समस्तेऽपि संसारे यांति विस्तरम्।
अमरा: संति देवास्ते देवसंस्कृतिगा अपि॥ ३८॥
नरा आत्माऽमरत्वं च निश्चितं मन्यते सदा।
मरणस्य भयं दु:खं मन्यन्ते न ततश्च ते॥ ३९॥

टीका—आस्तिकता में ईश्वर को न्यायकारी, समदर्शी, सर्वव्यापी माना जाता है। उसका दुलार और रोष क्रिया- कृत्यों पर ही निर्भर रहता है। इस मान्यता की पुष्टि, अनंतजीवन के विश्वास से ही होती है। अन्यथा कर्मफल में देर लगने पर मनुष्य निरंतर कृपण, उद्दंड एवं नास्तिक होने लगता है, इस दृष्टिकोण के अपनाने से अपना सर्वनाश होता है और समस्त संसार में अनीतिजन्य दु:ख- दारिद्रय का विस्तार होता है। देवता अमर होते हैं। देवसंस्कृति पर विश्वास करने वाले, मनुष्य की आत्मिक अमरता को सुनिश्चित मानते हैं। फलत: मरण का भय और दु:ख भी नहीं मानते॥ ३४- ३९॥

वस्तुत: इस विश्व का निर्माणकर्त्ता बहुत ही दूरदर्शी और व्यवहार कुशल है। उसने इतना बड़ा सृजन किया है। जड़ में हलचल और चेतन में चिंतन की इतनी अद्भुत क्षमता का समावेश किया है कि किसी सूक्ष्मदर्शी को आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। निर्माण व्यवस्था और परिवर्तन की जो रीति- नीति विनिर्मित की है, उसके तारतम्य को देखते हुए मनीषियों ने कला की कल्पना की और विज्ञान की धारणा को मूर्त्त रूप दिया। ऐसे सर्वसंपन्न स्रष्टा से कर्म व्यवस्था के संबंध में चूक होना यह सोचना अपनी ही बाल बुद्धि का खोखलापन दर्शाना है। जिसकी दुनिया में दिन और रात की, ग्रह- नक्षत्रों के उदय, अस्त की, पदार्थ की प्रकृति और प्राणियों की परंपरा की विधि- व्यवस्था में कहीं राई- रत्ती अंतर नहीं पड़ता वह कर्मफल को संदेहास्पद बनाकर अराजकता का और आत्मघात का विग्रह खड़ा नहीं कर सकता।

आत्मिकी के सिद्धांत व्यक्ति गत जीवन को अधिकाधिक सुसंस्कृत एवं पवित्र बनाने की भूमिका संपादित करते हैं। यही सिद्धांत है, जिनके माध्यम से सामाजिक सुव्यवस्था की आधारशिला रखी है। (१) शरीर की नश्वरता, (२) आत्मा की अमरता, (३) कर्मफल का सुनिश्चित होना, तथा (४) परलोक पुनर्जन्म की संभावना यह चार सिद्धांत ऐसे हैं, जो किसी न किसी रूप में प्राय: अध्यात्म की सभी शाखाओं में प्रतिपादित किए गए हैं।

आत्मा की पुकार है, मृत्योर्माऽमृतंगमय हे परमेश्वर, मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चल। मरण कितना अवांछनीय और जीवन कितना अभीष्ट है, इसका आभास इस पुकार में मिलता है। अंतरात्मा की प्रबल कामना है, जिजीविषा। वह जीना चाहता है। शरीर नष्ट हो जाए, तो क्या? आत्म सतत् जीवित बने रहने की आकांक्षा रखती है। जब यह भाव है, तो मृत्यु से डर किस बात का एवं फिर इस जन्म में दुष्कर्म बन भी कैसे पड़े ?


जिसने जन्म लिया है, उसका मरण सुनिश्चित है। सृष्टि क्रम ही जन्म- मरण की धुरी पर घूम रहा है। जो जन्मा है, सो मरेगा ही। जीवनेच्छा कितनी प्रबल क्यों न हो, मरण से बचा नहीं जा सकता। मृत्यु की चलती चक्की में अन्न के दानों की तरह हमें आज नहीं, तो कल पिसकर ही रहना है। इस तथ्य को न तो झुठलाया जा सकता है और न उसका सामना करने से बचा जा सकता है। मरण तो एक ध्रुव सत्य ही मानकर चलना चाहिए। अनिच्छा, भय, भीरुता अथवा कृपणता, कातरता कुछ भी मन में क्यों न हो? प्रकृति का सुनिश्चित क्रम रुकेगा नहीं, हमारा परम प्रिय लगने वाला आज का सुनिश्चित अस्तित्व कल महान शून्य में विलीन होकर रहेगा। आज की यथार्थता कल विस्तृत के गर्त में गिरकर सदा के लिए अविज्ञता के अंतरिक्ष में बिखर जाएगी।

मरण से भयभीत होकर आतुर लोग ऐसा सोचते हैं कि इन्हीं क्षणों जितना अधिक आनंद उठा लिया जाए, उतना ही उत्तम है। वे इंद्रियलिप्सा एवं मनोविनोद के लिए अधिकाधिक साधन जुटाते हैं और उसके लिए जो भी उचित- अनुचित करना पड़े उसे करने में भी नहीं चूकते। यह उपभोग की आतुरता कई बार तो इतनी बढ़ी- चढ़ी और इतनी अदूरदर्शी होती है, कि उपभोग का आरंभ होते- होते विपत्ति का वज्र सिर पर टूट पड़ता है। अपराधियों और कुकर्मियों की दुर्गति आए दिन देखी जाती है। कइयों को तुरंत ही प्रतिरोध का, प्रतिशोध का सामना नहीं करना पड़ता। सामयिक सफलता भी मिल जाती है, पर ईश्वरीय कानून तो उलटे नहीं जा सकते।

पितृणां संततीनां च मध्ये संबंध एष तु ।।
विद्यते स्वजनैरत्र संपर्कोऽपि भवत्यलम्॥ ४०॥
संबंधिनो दिवं यातान्प्रति द्वारमपावृतम्।
विद्यते स्नेहसद्भावसहयोगं प्रदर्शितुम्॥ ४१॥
कृतानामुपकाराणां प्रतिकर्तुमवाप्यते ।।
समयो मान्यतामेतामाश्रित्यैव नरैरिह॥ ४२॥
दिवंगतान् समुद्दिश्य श्रद्धा सद्भावना च या।
व्यज्यते तच्छुभं कर्म श्राद्धतर्पणमुच्यते॥ ४३॥
मन्यते चैनमाश्रित्य त्वाधारं स्वर्गिणामपि।
स्वजनानां साहाय्यं श्राद्धिकं कर्तुमिष्यते॥ ४४॥
मान्यतेयं कृतज्ञत्वपोषिका वर्तते दृढम्।
प्रतिकर्तुं ददात्येषा सर्वेभ्योऽवसरं सदा॥ ४५॥
आधारमिममाश्रित्य सद्भावो जाग्रतस्तु य:।
लोकमंगलकार्येषु चोपयुक्तुं स शक्यते॥ ४६॥
श्राद्धे तत्राऽन्नपिण्डं तु तर्पणे चामृतं तथा।
दीयतेऽन्नं साधनानां श्रमदानस्य चामृतम्॥ ४७॥
प्रतीकत्वमिहायातं श्राद्धे यद्दीयते च तत्।
तस्यापि माध्यमं नूनं तदेवात्र तु विद्यते॥ ४८॥
दानकृत्येभ्य एवात्र निश्चितं यत्तु पूर्वत:।
यज्ञार्थाय तथा तस्मै विपद्वारणहेतवे॥ ४९॥

टीका—पितरों और संतति के बीच संबंध बना रहता है। स्वजनों के प्रति संपर्क भी रहता है। अस्तु उन दिवंगत संबंधियों के प्रति स्नेह, सद्भाव, सहयोग प्रदर्शित करने का द्वार खुला रहता है। उनके किए हुए उपकारों का बदला चुकाने का भी इस मान्यता के आधार पर अवसर मिलता रहता है। दिवंगतो के प्रति श्रद्धा, सद्भावना व्यक्त करने का उपचार श्राद्ध- तर्पण है। माना गया है कि इस आधार पर स्वर्गीय स्वजनों की श्रद्धा युक्त सहायता की जा सकती है। यह मान्यता- कृतज्ञता की दृढ़ पोषक है। प्रत्युत्तर के लिए अवसर प्रदान करती है, साथ ही इस आधार पर जाग्रत हुई सद्भावना का उपयोग लोकमंगल के सत्प्रयोजनों में बन पड़ता है। श्राद्ध में जो दिया गया है, उसका माध्यम भी वही है, जो प्रत्येक दानकृत्यों के लिए निर्धारित है यज्ञार्थाय और विपद्वारणाय॥ ४०- ४९॥

भारतीय संस्कृति ने यह तथ्य घोषित किया है कि मृत्यु के साथ जीवन समाप्त नहीं होता। अनंत जीवन शृंखला की एक कड़ी मृत्यु भी है। इसीलिए संस्कारों के क्रम में जीव की उस स्थिति को भी बाँधा गया है, जब वह एक जन्म पूरा करके अगले जीवन की ओर उन्मुख होता है। कामना की जाती है कि संबंधित जीवात्मा का अगला जीवन पिछले की अपेक्षा अधिक सुसंस्कारवान बने। इस निमित्त जो कर्मकांड किए जाते हैं, उनका लाभ जीवात्मा को क्रियाकर्म करने वालों की श्रद्धा के माध्यम से ही मिलते हैं। इसीलिए मरणोत्तर संस्कार को श्राद्धकर्म भी कहा जाता है।

इस दृश्य संसार में स्थूल शरीर वालों को जिस इंद्रिय भोग, वासना, तृष्णा एवं अहंकार की पूर्ति में सुख मिलता है, उसी प्रकार पितरों का सूक्ष्म शरीर शुभ कर्मों से उत्पन्न सुगंध का रसास्वादन करते हुए तृप्ति अनुभव करता है। उसकी प्रसन्नता तथा आकांक्षा का केंद्र बिंदु श्रद्धा है। श्रद्धा भरे वातावरण के सान्निध्य में पितर अपनी अशांति खोकर आनंद का अनुभव करते हैं। श्रद्धा ही उनकी भूख है, इसी से उन्हें तृप्ति होती है। इसलिए पितरों की प्रसन्नता के लिए श्राद्ध एवं तर्पण किए जाते हैं। पितर वे हैं, जो पिछला शरीर त्याग चुके हैं, किंतु अगला शरीर अभी प्राप्त नहीं कर सके इस मध्यवर्ती स्थिति में रहते हुए वे अपना स्तर मनुष्यों जैसा ही अनुभव करते हैं।

मुक्त आत्माओं और पितरों के प्रति मनुष्यों को वैसा ही श्रद्धाभाव दृढ़ रखना चाहिए, जैसा देवों- प्रजापतियों तथा परमात्म सत्ता के प्रति।मुक्तो , देवों, प्रजापतियों एवं ब्रह्म को तो मनुष्यों की किसी सहायता की आवश्यकता नहीं होती। किंतु पितरों को ऐसी आवश्यकता होती है। उन्हें ऐसी सहायता दी जा सके, इसीलिए मनीषी पूर्वजों ने पितरपूजन, श्राद्ध कर्म की परंपराएँ प्रचलित की थी। उनकी सही विधि और उनमें सन्निहित प्रेरणा को जानकर पितरों को सच्ची भाव- श्रद्धांजलि अर्पित करने पर वे प्रसन्न पितर बदले में प्रकाश, प्रेरणा शक्ति और सहयोग देते हैं। पितरों को स्थूल सहायता की नहीं, सूक्ष्म भावनात्मक सहायता की ही आवश्यकता होती है। क्योंकि वे सूक्ष्म शरीर में ही अवस्थित होते हैं। इस दृष्टि से मृत्यु के पश्चात पितृपक्ष में, मृत्यु की तिथि के दिन अथवा पर्व- समारोहों पर श्राद्ध कर्म करने का विधान देवसंस्कृति में है।

श्राद्ध किस तत्व पर टिका है? शरीर के नष्ट हो जाने पर भी जीव का अस्तित्व नहीं मिटता। वह सूक्ष्म रूप से हमारे चारों ओर वातावरण में घूमते रहते हैं। जीव का फिर भी अपने परिवार के प्रति कुछ- न महत्व रह जाता है। सूक्ष्म आत्माएँ आसानी से सब लोकों में आकर हमारे चारों ओर चक्कर लगाया करती हैं। हमारे विचार और भावनाएँ इस सूक्ष्म वातावरण में फैलते हैं। इन्हें हम जिस तेजी से बाहर �
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