वास्तविक सुख- शान्ति पाने के लिए विचारों की साधना करनी होगी। सामान्य लोगों की अपेक्षा दार्शनिक, विचारक, विद्वान्, सन्त और कलाकार लोग अधिक निर्धन और अभावग्रस्त होते हैं तथापि उनकी अपेक्षा कहीं अधिक सन्तुष्ट, सुखी और शान्त देखे जाते हैं। इसका एक मात्र कारण यही है कि सामान्य जन सुख- शान्ति के लिए अधिकारी होते थे। सुख- शान्ति के अन्य निषेध उपायों को न करते हुए भारतीय ऋषि- मुनि अपने समाज को धर्म का अवलम्बन लेने के लिए विशेष निर्देशन किया करते थे। जनता की इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए उन्होंने जिन वेदों, पुराणों, शास्त्रों, उपनिषदों आदि धर्म- ग्रन्थों का प्रणयन किया है, उनमें मन्त्रों, तर्कों, सूत्रों व सूक्तियों द्वारा विचार साधना का ही पथ प्रशस्त किया है।
मन्त्रों का निरन्तर जाप करने से साधक के पुराने कुसंस्कार नष्ट होते और उनका स्थान नये कल्याणकारी संस्कार लेने लगते हैं। संस्कारों के आधार पर अन्तःकरण का निर्माण होता है। अन्तःकरण के उच्चस्थिति में आते ही सुख- शान्ति के सारे के सारे कोष खुल जाते हैं। जीवन में उनका प्रत्यक्ष अनुभव होने लगता है। मन्त्र वास्तव में अन्तःकरण को उच्चस्थिति में लाने के गुप्त मनोवैज्ञानिक प्रयोग हैं। जैसा कि पूर्व प्रकरण में कहा जा चुका है कि न तो सुख- शान्ति का निवास किसी वस्तु अथवा व्यक्ति में है और न स्वयं ही उनकी कोई स्थिति है। वह वास्तव में मनुष्य के अपने विचारों की ही एक स्थिति है। सुख- शान्ति, उन्नति- अवनति का आधार मनुष्य की शुभ अथवा अशुभ मनःस्थिति ही है। जिसकी रचना तदनुरूप विचार साधना से ही होती है।
शुभ और दृढ़ विचार मन में धारण करने से, उनका चिंतन और मनन करते रहने से मनोदेश में सात्विक भाव की वृद्धि होती है। मनुष्य का आचरण उदात्त तथा उन्नत होता है। मानसिक शक्ति का विकास होता है, गुणों की प्राप्ति होती है। जिसका मन दृढ़ और बलिष्ठ है, जिसमें गुणों का भण्डार भरा है, उसको सुख- शान्ति के अधिकार से संसार में कौन वंचित कर सकता है। भारतीय मन्त्रों का अभिमत दाता होने का रहस्य यही है कि बार- बार जपने से उनमें निवास करने वाला दिव्य विचारों का सार मनुष्य के अन्तःकरण में भर जाता है, जो बीज की तरह वृद्धि पाकर मनोवाँछित फल उत्पन्न कर देते हैं।
प्राचीन भारतीयों की आयु औसतन सौ वर्ष की होती थी। जो व्यक्ति संयोगवश सामान्य जीवन में सौ वर्ष से कम जीता था, उसे अल्प आयु का दोषी माना जाता था, उसकी मृत्यु को अकाल मृत्यु कहा जाता था। इस शतायुष्य का रहस्य जहाँ उनका सात्विक तथा सौम्य रहन- सहन, आचार- विचार और आहार- विहार होता था, वहाँ सबसे बड़ा रहस्य उनकी तत्सम्बन्धी विचार साधना रहा है। वे वेदों में दिए— ‘प्रब्रवाम शरदः शतम्। अदीनः स्याम शरद शतम्।’ जेसे अनेक मन्त्रों का जाप किया करते थे। यह मन्त्र जाप आयु संबंधी विचार साधना के सिवाय और क्या होता था?
गायत्री मन्त्र की साधना का भी यही रहस्य है। इस मन्त्र का जाप करने वालों को बहुधा ही तेजस्वी, समृद्धिवान तथा ज्ञानवान् क्यों देखा जाता है? इसीलिए कि इस मन्त्र के माध्यम से सविता देवता की उपासना के साथ, सुख- समृद्धि तथा ज्ञानपरक विचारों की साधना की जाती है। मनुष्य जीवन में जो कुछ पाता या खोता है, उसका हेतु मान भले ही किन्हीं और कारणों को लिया जाए, किन्तु उसका वास्तविक कारण मनुष्य के अपने विचार ही होते हैं, जिन्हें धारण कर वह जान अथवा अनजान दशा में प्रत्यक्ष से लेकर गुप्त मन तक चिन्तन तथा मनन करता रहता है।
विचार साधना मानव- जीवन की सर्वश्रेष्ठ साधना है। इसके समान सरल तथा सद्यः फलदायिनी साधना दूसरी नहीं है। मनुष्य जो कुछ पाना चाहता है, उसके अनुरूप विचार धारण कर उनकी साधना करते रहने से वह अपने मन्तव्य में निश्चय ही सफल हो जाता है। यदि किसी में स्वावलम्बन की कमी है और वह स्वावलम्बी बनकर आत्मनिर्भरता की सुखद स्थिति पाना चाहता है तो उसे चाहिए कि वह तदनुरूप विचारों की साधना करने के लिए इस प्रकार का चिन्तन तथा मनन करे, ‘‘मुझे परमात्मा ने अनन्त शक्ति दी है। मुझे किसी दूसरे पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं है। परमुखापेक्षी रहना मानवीय व्यक्तित्व के अनुरूप नहीं। परावलम्बी होना कोई विवशता नहीं है। वह तो मनुष्य की दुर्बल वृत्ति ही है। मैं अपनी इस दुर्बल वृत्ति का त्याग कर दूँगा और स्वयं अपने परिश्रम तथा उद्योग द्वारा अपने मनोरथ सफल करूँगा। परावलम्बी व्यक्ति पराधीन रहता है और पराधीन व्यक्ति संसार में कभी भी सुख और शान्ति नहीं पा सकता। मैं साधना द्वारा अपनी आन्तरिक शक्तियों का उद्घाटन करूँगा, शारीरिक शक्ति का उपयोग और इस प्रकार स्वावलम्बी बनकर अपने लिए सुख- शान्ति की स्थिति स्वयं अर्जित करूँगा।’’ निश्चय ही इस प्रकार के अनुकूल विचारों की साधना से मनुष्य की परावलम्बन की दुर्बलता दूर होने लगेगी और उसके स्थान पर स्वावलम्बन का सुखदायी भाव बढ़ने और दृढ़ होने लगेगा।
सुख- शान्ति का अपना कोई अस्तित्व नहीं। यह मनुष्य के विचारों की ही एक स्थिति होती है। यदि अपने अन्तःकरण में उल्लास, उत्साह, प्रसन्नता एवं आनन्द अनुभव करने की वृत्ति जगा ली जाय और दुःख, कष्ट और अभाव की अनुभूति की हठात् उपेक्षा दूर की जाय तो कोई कारण नहीं कि मनुष्य सुख- शान्ति के लिए लालायित बना रहे। मैं आनन्द रूप परमात्मा का अंश हूँ, मेरा सच्चा स्वरूप आनन्दमय ही है, मेरी आत्मा में आनन्द के कोष भरे हैं, मुझे संसार की किसी वस्तु का आनन्द अपेक्षित नहीं है। जो आनन्दरूप, आनन्दमय और आनन्द का उद्गम आत्मा है, उससे दुःख, शोक अथवा ताप- संताप का क्या सम्बन्ध? किन्तु यह सम्भव तभी है, जब तदनुरूप विचारों की साधना में निरत रहा जाय, उनकी सृजनात्मक शक्ति को सही दिशा में नियोजित रखा जाय।