छोटे और थोड़े काम तो मनुष्य अपने हाथ-पैरों के सहारे ही कर लेता है, पर जब बड़े काम करने की आवश्यकता पड़ती है, तो बिजली, भाप आदि के माध्यम से ऊर्जा उत्पन्न करनी पड़ती है। चेतना क्षेत्र की इसी ऊर्जा को भगवान् कहते हैं। समुद्र पार करने के लिए जलयान और आकाश में सैर करने के लिए वायुयान की जरूरत पड़ती है। मात्र शरीर सत्ता उसकी बड़ी महत्वाकाँक्षाएँ पूरी कर सकने में असमर्थ ही रहती हैं।
आत्मा और परमात्मा के मिलन पर, साधारण परिस्थितियों वाले व्यक्ति भी देवमानवों की भूमिका निभाने लगते हैं। शरीरधारी तो एक और एक मिलकर दो ही होते हैं, पर जीव और ब्रह्म की दो इकाइयाँ समता अपना लेती हैं, तब उनकी स्थिति ११ जैसी होने में देर नहीं लगती। युग परिवर्तन में देवोपम भूमिका निभाने के लिए व्यक्ति को समर्थ सत्ता का आश्रय लेना ही चाहिए। सुदामा, नरसी, विभीषण, जामवन्त आदि की निजी क्षमताएँ स्वल्प थीं, पर वे किसी बड़े का सहयोग प्राप्त कर लेने पर अतुलित बलधारी बन सकने में समर्थ हो गए।
बच्चे, हाथी-घोड़े गाय आदि की कल्पना मानस में जमाने के लिए, उनके खिलौने तथा चित्र देखने भर से काम चला लेते हैं। खिलौने प्राप्त करने में कुछ बड़ा खर्च भी नहीं करना पड़ता और उनके भरण-पोषण का दायित्व भी नहीं, किन्तु इन्हीं प्राणियों को यदि असली रूप में पाना-पालना हो, तो भारी-भरकम कीमत चुकाना और नित्य प्रति घास, पानी छाया आदि का प्रबन्ध भी करना पड़ता है। जीवन्त और वास्तविक भगवान् को पाने के लिए भी कुछ बड़ा साहस अपनाना और उपयुक्त जुटाना पड़ता है। प्रतिभाओं के सम्मुख उपहार रखने और गुणगान करने से उस सत्ता की स्मृति तो उभरती है, पर उसके अनुदान-वरदान प्राप्त कर सकना सम्भव नहीं होता। बच्चों के खिलौने वाली गाय न तो दूध देती है, न ही बछड़ा।
पूजा-उपासना की परिचर्या अति सरल है। उसे सामान्य क्रिया-कलापों से कहीं अधिक सरलतापूर्वक सम्पन्न किया जा सकता है, किन्तु असली भगवान् का मिलन तो तत्काल भारी हलचल और उठक-पटक आरम्भ कर देता है। पति की सम्पदा और सत्ता पर अधिकार करने के लिए पत्नी को गृह छोड़ना और ससुराल में समर्पित भाव से रहना पड़ता है। भगवान् मिलन को यदि अत्यन्त सशक्त बनाने की आवश्यकता पड़े, तो साथ ही इसी सिलसिले में यह भी गिरह बाँध लेनी चाहिए कि पैसा और वासना के लिए खपती रहने वाली जीवनचर्या से ऊँचा उठकर, अपने को ऐसा कुछ बनाना पड़ेगा, जिससे उत्कृष्टता और उदारता के दोनों तत्त्व प्रत्यक्ष परिलक्षित होते, उभरते, उफनते दृष्टिगोचर होने लगें।
युगसृजन के इंजीनियरों को सामान्य जनों की तुलना में अधिक योग्यता अर्जित करनी पड़ती है और बड़ी जिम्मेदारी भी उठानी पड़ती है। पर्वतारोहियों को उच्च शिखर तक चढ़ने का श्रेय पाने के लिए, दुस्साहस कर सकने जैसा मानस बनाना पड़ता है। अपंग और आलसी तो मात्र ऐसी कल्पना ही करते रहते हैं।