नवयुग का मत्स्यावतार

उसी धारा में प्रस्तुत एक उदाहरण

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ऐसा ही एक उदाहरण इन दिनों भी प्रकट है और अपने आश्चर्यजनक विस्तार से हर किसी को चकित कर रहा है। यह है- अपने समय का मत्स्यावतार’’ अथवा इसे युग परिवर्तन का सुनियोजन भी कह सकते हैं। इसमें टूटे खण्डहरों की सफाई और उसके स्थान पर भव्य भवनों का निर्माण एक साथ होना है।

    सामान्यतया अपने लिए अपना अच्छा घर बना लेने जैसा छोटा सा मनोरथ पूरा करने में भी इच्छुक और उत्सुक रहते हुए भी असंख्य लोग सफल नहीं हो पाते, फिर मनुष्य समुदाय का उस छाए अनौचित्य का परिशोधन कितना बड़ा काम हो सकता है, उसकी कल्पना करने भर से सिर चकराता है। इसी में एक कड़ी और भी जुड़ती है कि अनौचित्य के परिशोधन के साथ- साथ देव- संस्कृति के अनुरूप, अभिनव भावना क्षेत्र में अभिनव संरचना भी की जानी है। उस दुहरे क्रिया- कलाप का दायित्व उठाने के लिए किसी व्यक्ति या छोटे संगठन द्वारा साहस किए जाने की बात गले ही नहीं उतरती। उसे दिवास्वप्न कहकर उसका उपहास भी उड़ाया जा सकता है। किसी पगले की सनक भी कहा जा सकता है, पर यदि वस्तुस्थिति पर नए सिरे से विचार किया जाए और अनुमान लगाया जाए कि यदि इस योजना के पीछे दैवी शक्ति काम कर रही होगी, तो योजना असफल होकर क्यों रहेगी? आकाश में सूर्य, चन्द्र और तारे टाँग देने वाली सत्ता- अग्नि जल, पवन, जैसे तत्त्वों से इस निर्जीव धरातल को हलचलों से भरा पूरा बना देने वाला सृजेता अपनी अत्यधिक बड़ी और कठिन दीखने वाली योजनाओं को क्यों सम्भव नहीं बना सकता ?? जिसकी संरचना जल, थल, और आकाश के स्तर को अद्भुत बनाए हुए है, उसके क्रिया- कौशल द्वारा क्या कुछ सम्भव नहीं हो सकता ??

    युग परिवर्तन जैसे अत्यन्त दुरूह और व्यापक स्तर के निर्धारण में मनुष्य की सीमित शक्ति असमर्थ और असफल भी रह सकती है, पर यदि वही क्रिया- कलाप स्रष्टा के तत्त्वावधान में चल रहे हों, तो फिर उसमें असफल रह जाने की आशंका करने में कोई तुक नहीं। अवतार शृंखला में अनेकानेक अवसरों पर ऐसी ही उलट- पुलट होती रही है, जिन्हें सामान्य नहीं असामान्य ही कहा जाएगा। मत्स्यावतार का ऊपर उल्लेख हो चुका है। कच्छपावतार ने अपनी पीठ पर समुद्र- मंथन की भारी- भरकम योजना लादी थी, उस प्रयोग के द्वारा उन चौदह रत्नों को समुद्र से ऊपर उभारकर दिखाया था। जिन पर आज तो विश्वास कर सकना नहीं बन पड़ता। परशुराम ने संसार भर का ब्रेन वाशिंग किया था। मस्तिष्क पर छाई हुई अवांछनीयताओं को पूरी तरह- व्यौंत करके रख दिया था। परशुराम के विचार- क्रान्ति के उस कुल्हाड़े ने महाबली सहस्रबाहु तक के अवरोधों को धूलि चटा दी थी।

    असुरों का केन्द्र बनी लंका का पराभव और उन्हीं दिनों राम- राज्य के रूप में सतयुग की वापसी का नियोजन, क्या दो राजकुमार और मुट्ठी भर रीछ वानर सम्पन्न कर सकते थे? इसको व्यवहार की रीति- नीति के आधार पर नहीं समझाया जा सकता। पाँच पाण्डवों द्वारा कौरवों की अक्षौहिणी सेना को निरस्त किया जाना क्या मनुष्य कृत रीति- नीति के आधार पर सम्भव माना जा सकता है? वासुदेव का व्यक्तित्व और असाधारण योजना नीति महाभारत जैसी विशाल योजना पूरी करके दिखा दे, इस पर सामान्य बुद्धि तो अविश्वास ही करती रहेगी? समाधान उन्हीं का हो सकेगा, जो दैवी शक्ति की महान् महत्ता पर विश्वास कर सकें। बुद्ध जैसे गृहत्यागी, वनवासी, तपस्वी विश्वव्यापी धर्मचक्र प्रवर्तन के लिए आवश्यक जनशक्ति और साधन- शक्ति कैसे जुटा सकते थे? जो उनसे बन पड़ा, उसका मानवी पुरुषार्थ द्वारा बन पड़ना सम्भव नहीं हो सकता। तक्षशिला और नालन्दा विश्वविद्यालय जैसी महान् संस्थापना और संचालन सिद्धार्थ नाम का एक व्यक्ति ही कर सकता था? यदि हाँ तो वैसा उदाहरण प्रस्तुत करके दिखा देने के लिए और कोई आगे क्यों नहीं आता?

    एक बन्दर द्वारा समुद्र छलाँग जाना, लंका जैसे सुदृढ़ दुर्ग को धराशाई बनाना, पर्वत समेत संजीवनी बूटी को अपने कन्धे पर लाद लाना, क्या सामान्य शरीरधारियों के बलबूते की बात है? गाँधी, शंकराचार्य, विनोबा, विवेकानन्द जैसों के कर्तृत्व भी ऐसे ही मानने पड़ते हैं। जिन्हें अलौकिक मानकर ही अविश्वास को विश्वास स्तर पर लौटा लाना सम्भव हो सकता है। जिनके राज्य में कभी सूर्य अस्त नहीं होता था, उस ब्रिटिश साम्राज्य को अपना बिस्तर गोल करने के लिए विवश कर देना मुट्ठी भर सत्याग्रहियों के लिए कैसे सम्भव हो सका? जबकि नादिरशाह, तैमूरलंग, चंगेज खाँ जैसे सामान्य से आक्रान्ता अपने सीमित साधनों में भारत जैसे विशाल देश पर मुद्दतों, लूट- पाट करते आए और दिल दहलाने वाला शासन करते रहे। यदि पुरुषार्थ ही सब कुछ रहा होता, तो शताब्दियों तक भारत को इतने निविड़ पराधीनता पास में न बँधा रहना पड़ता। बहादुर बलिदानी और देश भक्त, तो उस समय भी थे, पर गाँधी के असहयोग आन्दोलन से घबराकर असामान्य शक्तिशाली और साधन सम्पन्न साम्राज्य का उल्टे पैरों वापस लौट जाना एक आश्चर्य की बात है। उसमें मानवी पुरुषार्थ कितना ही क्यों न लगा हो, पर दिव्य सत्ता द्वारा प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदल दिए जाने वाली बात से भी एकदम इंकार नहीं किया जा सकता।

    सतयुग कालीन, साधन रहित ऋषि- मनीषियों द्वारा अजस्र अनुदान प्रदान करके, इस सुविस्तृत संसार में समृद्धि और सुसंस्कारिता का वातावरण बना देना, किस नियम के आधार पर सम्भव हो सका, यह तर्क बुद्धि के आधार पर समझना और समझाना सम्भव हो सकता। इक्कीसवीं सदी के उज्ज्वल भविष्य वाले गंगावतरण की परिकल्पना और सम्भावना इसी आधार पर गले उतरती है कि उसके पीछे कोई अदृश्य सत्ता काम कर रही है, अन्यथा इस समय के असुरत्व को देवत्व में बदल देने और विश्वव्यापी कायाकल्प पर कैसे विश्वास किया जा सकेगा? जब नदी का प्रवाह उलट देना एक प्रकार से असम्भव माना जाता है, तो परम्पराओं के रूप में जड़ जमाए बैठी अवांछनीयता के अन्धड़ को उलट कर विपरीत दिशा में लौट पड़ने के लिए बाधित किया जाना, निश्चय ही मानवी प्रयत्नों के आधार पर न तो स्वयं समझा जा सकता है और न दूसरों को समझाने- सहमत करने में ही सफलता मिल सकती है। इन प्रयोगों में समर्थ सत्ता का हस्तक्षेप होने की मान्यता अपनानी ही पड़ती है, अन्यथा प्रतिपादन को लोक मान्यता मिल सकना प्राय: असम्भव ही रहेगा। व्यक्ति विशेष अथवा छोटे संगठन तो अपनी पहुँच के अन्तर्गत छोटा- मोटा सुधार परिष्कार ही कर सकते हैं।
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