अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य -3

पंगुं लङ्घयते गिरिं

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अमरेली जिले के बगसरायक मोटा मान्दोड़ा गाँव के प्रज्ञापीठ में मैं अपनी माँ के साथ ६ वर्षों तक रहा। उस इलाके में पानी की बहुत दिक्कत थी। तब पूरे गाँव में एक ही टेप नल था, जो सुबह- शाम दो घण्टे तक ही खुलता था। मेरे कमरे से नल तक पहुँचने के लिए जो रास्ता जाता था, उसी रास्ते पर एक मकान बन रहा था, जिसकी नींव हेतु आठ फीट गहरा गड्ढा खुदा हुआ था। कच्चे रास्ते के बीचो- बीच खोदे गये इस गड्ढे पर लोगों के आने जाने हेतु लकड़ी का पटरा डाल दिया गया था। वैसे तो मैं हर रोज सुबह- सुबह ही नल पर जाकर पीने का पानी भर लिया करता था, पर उस दिन मुझे पुंसवन संस्कार कराने अमरेली जाना था, इसी कारण पानी नहीं भर सका। मेरी माँ नब्बे साल की थीं, इसलिए मैंने उन्हें पानी भरने से मना किया और कहा कि शाम को आकर पानी भर लूँगा।

        मेरे सामने तो उन्होंने हाँ कर दी, किन्तु मेरे जाने के बाद ममता की मारी वे सोचने लगीं कि बेटा थक हार कर शाम को आएगा, फिर उसे पानी लाने जाना पड़ेगा। इससे तो अच्छा है कि मैं ही धीरे- धीरे पानी ले आती हूँ। यह सोचकर वे पानी लेने चल पड़ीं और विधाता को जो मंजूर था, वही हुआ।

        जब वह लकड़ी के पटरे पर पैर रखकर नींव के गड्ढे के ऊपर से गुजर रही थीं, लकड़ी डगमग हुई, पैर फिसला और वे सीधे आठ फीट गहरे गड्ढे में जा गिरीं।
उनके गिरते ही आस- पास हल्ला मच गया। पास के स्कूल में ४०- ५० बच्चे पढ़ रहे थे, शोर सुनकर वे सभी दौड़ पड़े। गड्ढे के अन्दर टेबल डालकर उन बच्चों ने मिलकर उन्हें निकाला और कमरे पर पहुँचा दिया तथा शरीर में लगे चोट पर हल्दी लगा दी।

        शाम को मैं वापस लौटा, तो बस से उतरते ही लोगों ने मुझे बताना शुरू किया कि सुबह पानी भरते हुए आपकी माँ गड्ढे में गिर पड़ी हैं और उन्हें काफी चोट आई है।
इतना सुनते ही मैं तेजी से घर की ओर चल पड़ा। मेरा मन माँ पर झल्ला उठा था। जब मैं पानी लाने के लिए मना कर चुका था, तो उन्हें जाने की जरूरत ही क्या थी? मुझे तो पहले ही शक था कि पानी लाने जाएँगी, तो गड्ढे में गिरेगी जरूर। आखिर हुआ भी वही। अब अगर इस बुढ़ापे में कोई हड्डी टूट गई हो, तो क्या होगा?

        तरह- तरह की चिन्ताओं से घिरा जब मैं घर पहुँचा, तो देखा कि वह बिस्तर पर लेटी हुई जोर- जोर से कराह रही थीं। उनका पूरा शरीर गहरी चोट से काला पड़ गया था। वह मुझे देखते ही बिलख- बिलख कर रोने लगीं।

        उनका यह हाल मुझसे देखा नहीं जा रहा था। मैंने गुरुदेव से प्रार्थना की- गुरुदेव, इस मुसीबत से उबरना हमारे बस की बात नहीं है। इस उम्र में अगर मेरी माँ चलने- फिरने के काबिल नहीं रहीं, तो मैं क्या करूँगा? अब तो आप ही हमें इस मुसीबत से उबार सकते हैं।

        चिन्ताओं में डूबा हुआ मैं बाहर निकला और गाँव के वैद्य को साथ लेकर वापस आया। माँ की हालत देखकर वे सशंकित भाव से सिर हिलाने लगे। उस समय माँ की स्थिति इतनी नाजुक थी कि वह अपने हाथ- पैर की उँगलियाँ भी नहीं चला पाती थीं। उन्होंने कुछ दवाइयाँ दीं और जाते हुए कहा- पूज्य गुरुदेव पर भरोसा रखिए। उन्होंने चाहा, तो सब ठीक हो जाएगा।

        गुरुजी का ध्यान करके मैं सो गया। प्रातः उठा तो देखता हूँ कि माँ के कमरे की बत्ती जली हुई है। सोचा, माँ तो उठ नहीं सकती, फिर लाइट किसने जलाई? जिज्ञासावश माँ के कमरे में गया तो देखा कि माँ का बिस्तर खाली है। मैं चक्कर में पड़ गया। वह तो हाथ- पैर भी नहीं हिला सकती थी, फिर आखिर गई तो कहाँ गई? मैं तेजी से पलटकर कमरे से बाहर निकला, तो देखा कि माँ स्नान करके वापस आ रही थीं। मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। रात भर में ऐसा क्या जादू हो गया कि माँ आराम से चलने- फिरने लगी है।

        मुझे आश्चर्यचकित देखकर माँ ने मुस्कुराते हुए कहा- बेटा, रात को गुरुदेव आए थे। वे बोले- उठ, खड़ी हो जा। तुझे कुछ भी नहीं हुआ है। उनकी बातों में न जाने कैसा जादू था कि मैं एक ही झटके में उठकर खड़ी हो गई। जैसे ही मैं उनके चरण छूने के लिए आगे बढ़ी, वे अचानक गायब हो गए। उनकी कृपा से अब मैं बिल्कुल ठीक हूँ। गुरुसत्ता की इस अनुकम्पा को याद करके आज भी मेरी आँखें भर आती हैं।

प्रस्तुतिः विट्ठल भाई
    जामनगर, गुजरात (उत्तराखण्ड)

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