ऋषि युग्म की झलक-झाँकी

यह तो गूँगे का गुड़ है -2

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        इसी प्रकार जब डॉ. प्रणव जी का एक्सीडेंट हुआ था। उस समय भी गुरुजी ने मिशन के पैसे को उनके इलाज के लिये उधार रूप में भी ग्रहण नहीं किया। जब सतीश भाई साहब मथुरा से पैसे लेकर आये तब उन्हें दिल्ली ले जाया गया। श्री वीरेश्वर उपाध्याय जी उन्हें दिल्ली लेकर गये थे।    ०००

        श्री सतीश भाई साहब (गुरुदेव के सुपुत्र) की शादी के समय का एक प्रसंग जिसकी वीरेश्वर भाई साहब अक्सर चर्चा करते हैं, वह भी बताती हूँ-
सतीश भाई साहब की शादी का उत्सव प्रारंभ हो चुका था। सब मेहमान घीयामण्डी, मथुरा पहुँच चुके थे। फिर भी पूज्यवर के सभी कार्यक्रम पहले की तरह ही नियमित रूप से चल रहे थे। कहीं कोई सजावट या परिवर्तन नहीं था।

        शिविरार्थी तो पूज्यवर के आदर्श पर निढाल थे, किन्तु रिश्तेदारों को सजावट के कुछ भी चिह्न दिखाई न देने से खल रहा था। पर गुरुदेव से कहे कौन? गुरुजी से कहने की किसी की हिम्मत नहीं पड़ रही थी? सभी आपस में कानाफूसी कर रहे थे।

        आखिर में श्री सत्यप्रकाश जी, सतीश भाई साहब की मौसी के लड़के, जिन्हें घर में सब ‘‘सत्तो’’ कहकर पुकारते थे। उन्होंने जाकर गुरुजी से अपनी ब्रज भाषा में कह ही दिया। ‘‘क्या मौसा जी? कुछ अच्छों ना लागत है। लड़कों को ब्याह है, कुछ झालर- वालर तो होना ही चाहिए।’’गुरुदेव ने उनकी बात सुनी व कहा- ‘‘अच्छा देखता हूँ।’’मैं वहीं खड़ा था। मुझे इशारे से बुलाया व कहा- ‘‘देख वीरेश्वर! सत्तो क्या कह रहा है? जा एकाध झालर लगवा दे।’’
    
        मैंने सत्यप्रकाश जी से चर्चा की व दुकान में आर्डर दे आया। उनके स्तर के अनुरूप कम से कम पचास रुपये का झालर तो लगना ही चाहिए, ऐसा सोचकर, आर्डर दे आया। दूसरे दिन प्रातः पूज्यवर ने पूछा, ‘‘वीरेश्वर, झालर के लिये कहा क्या?’’         

‘‘हाँ, गुरुजी।’’  

‘‘कितने का?’’     

‘‘जी, पचास रुपये का’’सुनकर गुरुजी बोले, ‘‘जा, जा! मनाकर दे। मुझे नहीं लगाना पचास रुपये का झालर।’’

        मैं चौंक कर गुरुदेव का मुँह ताकने लगा सोचा, कल आर्डर दिया, आज कैसे मना करूँ? क्या सचमुच मना करना पड़ेगा? अभी सोच ही रहा था कि इतने में उन्होंने फिर कहा- ‘‘जा, जल्दी मना कर दे, नहीं तो वह लगा जायगा।’’

        अब तो कोई चारा नहीं था। साइकिल उठाकर मना करने हेतु चल पड़ा। दुकानदार नौकर को झालर देकर रवाना ही कर रहा था। नौकर वहीं कुछ आवश्यक सामान निकाल रहा था। मैंने जाते ही कहा- ‘‘आचार्य जी ने कल का आर्डर कैन्सिल कर दिया है, अतः न भिजवायें।’’ दुकानदार ने पहले तो एक टक देखा, फिर नौकर से कहा- ‘‘बस रहने दो, वहाँ का आर्डर कैन्सिल है।’’

        ‘‘आज तो बच गये।’’ सोचते हुए व इससे पहले कि दुकानदार कुछ भला- बुरा कहे, मैं दुकान से खिसक लिया। उन्हें फिजूलखर्ची तो बिल्कुल भी पसंद नहीं थी। उन्हें पुत्र के विवाह पर जरा सी रोशनी करना भी अनावश्यक सजावट लगता था।

        ऐसे निस्पृह महापुरुष ही अपने लिये कठोरता अपनाकर किसी बृहद् मिशन का निर्माण करने में सक्षम हो पाते हैं।         
०००

        गुरुजी- माताजी चाहते थे कि हम कार्यकर्ताओं के जीवन में भी सादगी दिखाई देनी चाहिये।

        एक बार सर्दियों में, मैं अपने घर, आगरा गई हुई थी। कड़ाके की ठण्ड थी। लौटते समय रास्ते में ठण्ड न लगे इसलिये मैंने कोट पहन लिया। कोट जरा कीमती था। रात में 8:30- 9:00 बजे के लगभग मैं शान्तिकुञ्ज पहुँची। पहुँचते ही गुरुजी के पास प्रणाम करने के लिये गई। जैसे ही गुरुजी को प्रणाम किया उन्होंने बड़े ध्यान से देखा और बोले, ‘‘अच्छा! कोट पहन कर आई है। कोट कहाँ से माँग लाई?’’ मैंने कहा, ‘‘गुरुजी, मेरा ही कोट है। किसी से, कहाँ से माँगती?’’ इस पर गुरुजी बोले, ‘‘अच्छा बेटा, माँगना नहीं किसी से। अब पहन आई है तो कोई बात नहीं, पर बेटा, यहाँ हम सबको ब्राह्मण जीवन जीने की बात कहते हैं। सादगी से रहने की बात कहते हैं। तू इसका ध्यान रखना।’’ उस दिन के बाद से मैं गुरुजी के सामने वह कोट पहन कर नहीं गई।
        एक बार करवाचौथ के त्यौहार के दिन मैंने और शैल जीजी ने बढ़िया से गहने आदि पहने और गुरुजी- माताजी को प्रणाम करने व उनका पूजन करने गए। पिताजी (गुरुजी) ने हमें बड़े गौर से देखा। फिर माताजी से बोले, ‘‘माताजी, ये तो हमारी बेटियाँ नहीं लगतीं।’’

        उनकी दृष्टि में कुछ ऐसे भाव थे कि हम लोग उनसे नज़र नहीं मिला पाये, पर हम उनका भाव समझ गये थे। हम दोनों ने एक दूसरे की ओर देखा, जैसे- तैसे फटाफट पूजा की और दौड़ कर नीचे आ गये। दोनों ने परस्पर कोई चर्चा नहीं की, अपने- अपने कमरे में गये और सब गहने आदि उतार कर रख दिये। फिर कभी दुबारा हम लोगों ने उस दिन जैसे गहने नहीं पहने। गुरुजी को बहनों का जरूरत से ज्यादा सजना- धजना पसंद नहीं था। वे कहते थे, ‘‘बेटा, सादगी में ही असली सौंदर्य है।’’     

        ब्राह्मणोचित जीवन (सादगी भरा जीवन) जीने की प्रेरणा देते हुए वे अक्सर समझाते, ‘‘बेटा, ये हमारी ओढ़ी हुई गरीबी है। लोकसेवी को कम से कम सुविधा साधन बटोरने चाहिये।’’

        वे छोटी- छोटी बातों द्वारा ही महत्त्वपूर्ण शिक्षण दे दिया करते थे। एक दिन गुरुजी के पास एक सज्जन आये। एक बालक उनके लिये पानी लेकर आया। गुरुजी ने उन सज्जन के जाने के बाद उस बालक को व अन्य जो लोग बैठे थे सबको समझाया, ‘‘जब भी किसी को पानी दो, तो गिलास को ढँकना चाहिये और नीचे भी एक तश्तरी रखनी चाहिये। यदि एक हाथ से गिलास पकड़ा है, तो दूसरा हाथ नीचे लगाओ। थोड़ा झुक कर और दोनों हाथ से पानी देना चाहिये। गिलास के नीचे तश्तरी रखना विनम्रता का प्रतीक है, और गिलास को ढँकना निरहंकारिता का।’’

        प्रारंभ के दिनों में बिजली नहीं थी। हम लोग भी लालटेन जला कर काम करते थे। एक दिन गुरुजी ने समझाया, ‘‘लालटेन की बत्ती ठीक कर लेनी चाहिये। बत्ती को ऊपर से छोटी कैंची से काट लेना चाहिये। इससे रोशनी तेज हो जाती है और तेल भी कम खर्च होता है।’’
करुणा के सागर -- सामर्थ्य के पुंज
        दूसरों के कष्ट से उन्हें ऐसी पीड़ा अनुभव होती थी जैसे वे स्वयं ही कष्ट भोग रहे हों। हमने उन्हें दूसरों के कष्ट में रोते भी देखा। तब एक पल को तो हम स्तब्ध रह गये, इतनी करुणा! वे श्रीरामकृष्ण परमहंस की ही भाँति शिष्यों के कष्टों को अपने ऊपर ले लेते थे और उन्हें कष्ट से मुक्ति दिलाते थे।

        तुलसीपुर, के गोयल जी बड़े ही समर्पित कार्यकर्ता एवं शान्तिकुञ्ज के ट्रस्टी रहे हैं। उनकी बेटी, विजय गोयल का बहुत जबरदस्त एक्सीडेंट हुआ था। हालत बहुत गंभीर थी। पूरा जबड़ा इस तरह से टूट गया था कि चेहरा पहचानना भी मुश्किल हो रहा था। गोयल जी ने तुरंत शान्तिकुञ्ज गुरुजी के पास टेलीग्राम किया। बेटी की हालत गंभीर होती गई। डॉक्टरों ने जवाब दे दिया तो गोयल जी तुरंत रात में 8:00 बजे ही पत्नी सहित शान्तिकुञ्ज के लिये चल दिये। सुबह जब वे गुरुजी से मिलने पहुंचे तब गुरुजी हम कुछ कार्यकर्ताओं से बातचीत कर रहे थे और टैलीग्राम देखकर बोले कि गोयल जी की बेटी में अब कुछ रहा नहीं है।

        इतने में दोनों पति- पत्नी गुरुजी के पास पहुँचे और बिलख- बिलख कर रोने लगे, ‘‘गुरुजी, कैसे भी हो, हमारी बेटी को बचा लीजिये।’’ दोनों की हालत देख कर गुरुजी के नयन भी भर आये। उनकी आँखों से अश्रु बहने लगे। फिर बोले, ‘‘अच्छा बेटा! मैं प्रार्थना करूँगा, तू लौट जा।’’ अगले दिन जब हम प्रणाम करने पहुँचे तो देखा गुरुजी का चेहरा बिलकुल नीला दिखाई दे रहा है, जैसे बहुत गहरी कोई चोट आई हो। मैंने पूछा, तो बोले, ‘‘कुछ नहीं, कुछ नहीं, तुझे ऐसे ही दिख रहा है, कोई भ्रम हो रहा है।’’ अगले दिन उनका चेहरा सामान्य हो गया। उधर गोयल जी की बेटी की हालत में आश्चर्यजनक सुधार हो गया था। गुरुजी ने अपने शिष्य का कष्ट स्वयं पर लेकर उसे संरक्षण दिया था।

        एक और घटना है। उन दिनों हम पूर्ण रूप से शान्तिकुञ्ज नहीं आये थे। भिलाई में ही रहते थे। हमारे साथ भिलाई की एक कार्यकर्ता कामिनी बहन हमारे साथ आई थीं। उनके विवाह को कई वर्ष हो गए थे, पर संतान नहीं थी। इस कारण परिवार के लोग उन्हें परेशान करते थे। यहाँ तक कि पति भी अब दूसरा विवाह कर लेने की बात कहने लगे थे। मिशन का काम करने पर भी पति उन्हें ताने देते और कहते कि हम तुम्हें छोड़ देंगे। तब तुम आराम से अपने गुरू का काम करना।

        गुरुजी के पास जाकर उन्होंने अपनी व्यथा सुनाई और फूट- फूट कर रोने लगीं। उनकी व्यथा सुनकर गुरुजी की आँखों से भी अश्रुधारा बहने लगी। जितना वह रो रही थीं, उतना ही गुरुजी भी रो रहे थे। हम सब देखकर हतप्रभ थे। गुरुजी की हालत देखकर हम कामिनी बहन से धीरज रखने को कहकर उन्हें शांत हो जाने के लिये कहने लगे। फिर थोड़ी देर में गुरुजी बोले, ‘‘जा बेटी, अब तुझे कोई तंग नहीं करेगा। तू बस मेरा काम करती रहना।’’

        जल्दी ही हम लोग स्थाई रूप से शान्तिकुञ्ज आ गये। कामिनी बहन    को शान्तिकुञ्ज से लौटने के नौ माह बाद ही एक सुंदर बालक की प्राप्ति हुई। कुछ वर्षों बाद वे बालक को गुरुजी का आशीर्वाद दिलाने के लिये शान्तिकुञ्ज लेकर आईं। जब हमने बालक के विषय में पूछा तो अश्रुपूरित नेत्रों से कहने लगीं, ‘‘आप भूल गए, जब मैं रोते हुए गुरुजी के पास आई थी? उन्होंने ही मेरी झोली खुशियों से भर दी है।’’
श्री केसरी कपिल जी एवं श्रीमती देवकुमारी श्रीवास्तव
(श्री केसरी कपिलजी 1969 में टाटानगर में पूज्य गुरुदेव के सम्पर्क में आये। उसके बाद लगातार संपर्क में रहे, क्षेत्र से ही समयदान करते रहे, गुरुदेव के साथ भी टोलियों में जाने का सौभाग्य मिला। जून 1977 में पूज्य गुरुदेव के बुलाने पर सपरिवार स्थाई रूप से शान्तिकुञ्ज आ गये।)

काल को भी मुट्ठी में रखने वाले महाकाल हमारे गुरुदेव
        सन् 1969 में पूज्य गुरुदेव हमारे यहाँ टाटानगर आये थे। उनका कार्यक्रम था। उसी कार्यक्रम में 10 अप्रैल को हमने गुरुदीक्षा ली। उन दिनों गुरुदेव पुष्पाञ्जलि अपने हाथ में लिया करते थे। जब दीक्षा की पुष्पाञ्जलि देने गुरुदेव के पास गई तो उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, परिवार और सामान न बढ़ाना।’’ मैंने कहा, ‘‘गुरुदेव, कल ही तो आपने पुंसवन संस्कार कराया है’’ तो बोले, ‘‘बेटा यह संतान तुम्हारा भविष्य बदलने आ रही है। तुम्हारी यह संतान बहुत सौभाग्यशाली होगी, पर आगे परिवार और सामान मत बढ़ाना।’’ मैं सोचने लगी परिवार की बात तो समझ में आई, पर सामान की बात समझ में नहीं आई। बात आई गई हो गई।

        कहते हैं कि समर्थ गुरु शिष्य को कुछ देने से पहले कठिन परीक्षा लेता है सो हमारी भी परीक्षा शुरू हुई। 26 अप्रैल को मेरा छोटा पुत्र शशि शेखर जो उस समय तीन वर्ष का था, सख्त बीमार हो गया। एक माह होने को आया पर उसके स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं हो रहा था, बल्कि स्थिति और भी नाज़ुक होती जा रही थी। पूरी पारिवारिक व्यवस्था अस्त- व्यस्त हो गई थी। विचित्र स्थिति थी। बालक हर समय बेहोश रहता था। डाक्टर, हमारे पतिदेव के आगमन की प्रतीक्षा करते रहते थे। क्योंकि वे बालक के सिर पर हाथ रखकर जब गायत्री मंत्र बोलते तो वह आँखें खोल देता। जिसे देखकर डाक्टर दवा लिखते थे।

        25 मई को उसकी स्थिति ज्यादा खराब हो गई। जब उसका कष्ट असह्य हो गया तो पतिदेव (श्री कपिल जी) ने मेरे आग्रह पर गुरुदेव को पत्र लिखा कि बालक का कष्ट देखा नहीं जाता। यदि बचा सकें तो ठीक, नहीं तो उसे दुनिया से उठा भी लें तो दुःख नहीं। उसे कष्ट से तो मुक्ति मिले।

        गुरुदेव तक पत्र पहुँचने में कम से कम 5 दिन तो लगते ही थे। पर आश्चर्य! 29 मई को ही गुरुदेव का जवाबी पत्र पहुँच गया। पत्र 25 मई को लिखा गया था। ऐसा लगा जैसे यहाँ हम पत्र लिख रहे थे और वहाँ वह जवाब लिख रहे थे। लिखा था- ‘‘तुमने भले न बताया हो पर तुम्हारे बालक की अस्वस्थता की जानकारी हमें है। घबराना नहीं, बालक शीघ्र घर जाएगा और पूर्ण रूप से स्वस्थ होगा।’’ पत्र मिलने के चौथे दिन ही 2 जून को बालक को अस्पताल से छुट्टी मिल गई और उसके स्वास्थ्य में क्रमशः सुधार भी होता गया।                   

        जून 1969 में मथुरा में नौ दिवसीय गायत्री अनुष्ठान सत्र पूज्य गुरुदेव के सान्निध्य में चल रहे थे। मेरे पतिदेव को भी जाना था। मेरे प्रसव का समय नज़दीक था। तीनों बच्चे भी छोटे ही थे। पतिदेव की अनुपस्थिति में सब व्यवस्था कैसे होगी? मुझे यह चिंता सताये जा रही थी। एक रात हम दोनों ने स्वप्न में देखा कि एक श्वेताम्बर महिला हमारे आँगन का चक्कर काटकर मेरे कमरे में आकर कहने लगी, तू क्यों चिंता करती है? मैं तो तेरे पास आ गई हूँ। तुम्हारी देख−भाल मैं करूँगी। उसी दिन शाम को मेरी ननद हमारे घर आ गई और मेरे पतिदेव मेरी जिम्मेदारी उन्हें सौंपकर मथुरा के लिये तैयार हो गये। पतिदेव से, जाते समय मैंने निवेदन किया कि आपकी उपस्थिति में ही प्रसव होता तो मैं निश्चिंत रहती। कृपया पूज्य गुरुदेव को मेरा यह संदेश दे दीजियेगा।

        श्री कपिल जी ने तपोभूमि मथुरा में पहुँच कर जब गुरुजी से सब बात बताई तो गुरुजी ने कहा कि घर की चिंता अब तुम्हारी नहीं। वहाँ की देख- रेख हम कर लेंगे। तुम यहाँ अनुष्ठान करो और यदि तुम्हारी पत्नी की इच्छा है कि प्रसव तुम्हारी उपस्थिति में ही हो तो मैं उसका प्रसव काल एक महीने आगे बढ़ा देता हूँ।

        इधर हमारे आश्चर्य और प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था। 12 दिन मेरे पतिदेव हमसे दूर रहे किन्तु प्रत्येक दिन गुरुदेव और वंदनीया माताजी मुझे हर पल अपनी उपस्थिति का आभास कराते रहे। कभी- कभी तो गुरुजी का कुर्ता स्पष्ट दिखाई देता। गुरुजी के पूरे दर्शन तो नहीं हुए पर उनका बराबर अहसास होता रहा। माताजी तो घर में घूमते हुए व बच्चों के बिस्तर पर लेटी हुई अक्सर ही दिखाई देतीं। उन्हें बच्चों के बिस्तर पर देखकर मुझे लगता कि बच्चे बिस्तर गंदा कर देते हैं, कभी- कभी गीला भी कर देते हैं। फिर भी माताजी उस पर आनंद से लेट जाती हैं।
इस प्रकार कैसे इनके शिविर के दिन पूरे हो गये पता ही नहीं चला। यह मथुरा से लौट आये। हमारी छोटी बेटी करुणा का जन्म भी दसवें महीने में इनके लौटने पर ही हुआ और सच में यहीं से मेरे भाग्य का बदलाव भी प्रारंभ हो गया।

इन्हें, मैंने तेरी अमानत मानकर रखा था।
    गुरुदेव साधना हेतु हिमालय जाने वाले थे। 16 से 20 जून 1971 की तिथियों में मथुरा में विदाई समारोह होने वाला था। टाटानगर के गायत्री परिजन उन दिनों गीत गाते थे -
          कुछ चंद महीनों का, समय बाकी बचा है,
          गुरुदेव चले जायेंगे, यह शोर मचा है।

    अखण्ड ज्योति पत्रिका में अपनों से अपनी बात शीर्षक के अंतर्गत गुरुदेव इसी आशय के लेख भी लिख रहे थे। पूज्य गुरुदेव के अंतिम दर्शन करने की इच्छा हर किसी को झकझोर रही थी। कोई भी पीछे नहीं रहना चाहता था। सन् 1971 के विदाई समारोह में हम भी सपरिवार आये थे। हम दोनों यज्ञनगर एवं यज्ञशाला की जवाबदारी सँभाल रहे थे। इस समारोह में गुरुदेव के प्रवचन, यज्ञ के बाद ही होते थे। तीसरे दिन के प्रवचन में गुरुदेव का बड़ा मार्मिक उद्बोधन था। उन्होंने अपनी अनुपस्थिति में परिजनों को अपना समय, श्रम, साधन लगाकर मिशन को सम्भालने और बढ़ाने का भावभरा आवाहन किया। शायद ही कोई ऐसा होगा, जिसका हृदय विगलित न हुआ हो। बहुत लोगों ने अपने आभूषण उतार कर दान किये। मुझे आभूषण पहनना बहुत प्रिय था। 7-8 तोले के आभूषण मैंने उस समय भी पहन रखे थे। मुझे भी उत्साह आया और हम दोनों ने परामर्शपूर्वक सब आभूषण एक रुमाल में बाँधकर गुरुजी व माताजी के चरणों में रखकर प्रणाम कर लिया।

    20 जून को गुरुजी-माताजी अखण्ड दीपक लेकर शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार आ गये। सब जानते हैं कि वे मथुरा से कुछ भी साथ नहीं लाये थे। उसके बाद सन् 76 तक मैं अनेकों बार शान्तिकुञ्ज आई। सन् 77 के जून माह में गुरुपूर्णिमा पर्व पर, शिविर में भाग लेने के लिये मैं बच्चों सहित आई थी। गुरुदेव ने हम दोनों को दोपहर में  मिलने के लिये बुलाया और बोले, ‘‘अब यहाँ ही रहना।’’ इन्होंने कहा, ‘‘गुरुजी, 6 महीने तो देता ही हूँ, 2 माह और बढ़ा दूँगा।’’ गुरुजी बोले, ‘‘मुझे 365 दिन चाहिये।’’ हमने कहा, ‘‘गुरुदेव, बच्चे छोटे हैं, उनकी पढ़ाई लिखाई की जिम्मेदारी है। बड़ा परिवार है। छोटा बेटा बीमार रहता है।’’ गुरुदेव बोले, ‘‘बेटा, तू मेरे पास आ जाएगी तो मैं सब देख लूँगा।’’ हम लोग यहीं रुक गये। 
  
    11 जुलाई को माताजी ने दोपहर में बुलाया और एक छोटी सी पोटली मुझे दी। मैंने खोल कर देखा 6 साल पहले समर्पित किये मेरे आभूषण थे। मैंने कहा, ‘‘माताजी यह तो मैंने दान कर दिये थे। इन्हें मैं नहीं लूँगी।’’ माताजी ने कहा, ‘‘बेटा, मैं जानती थी कि भविष्य में तुझे मेरे पास आना है। इसलिये मैंने इन्हें तेरी अमानत मानकर रखा था।’’ फिर बोलीं, ‘‘तेरी गृहस्थी कच्ची है। अभी ये तेरे काम की है, इसे रख ले। बच्चों के समय काम आयेंगे।’’ मेरे लाख मना करने पर भी माताजी ने वह आभूषण मुझे थमा दिये। मैंने उन्हें सँभाल कर तो रख लिया पर, कभी पहना नहीं। जब बच्चों का विवाह हुआ तब वही माताजी से प्राप्त आशीर्वाद की पोटली मेरे काम आई। मेरे दोनों बेटों और दोनों बेटियों का विवाह मैंने उन्हीं आभूषणों से किया। पर मेरे लिये आज भी यह रहस्य और आश्चर्य ही बना है कि माताजी ने हजारों की भीड़ और हजारों आभूषणों में से भी मेरे आभूषण कैसे पहचाने और कहाँ सँभाल कर रखे थे? जितने आभूषण दिये थे उतने ही थे, न एक कम न ज़्यादा। सच में हमारे पूज्य गुरुदेव और वंदनीया माताजी त्रिकालदर्शी और सर्वज्ञ थे।

    श्री कपिल जी भाई साहब बताते हैं, ‘‘मुझे गुरुदेव के साथ क्षेत्रों में जाने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनके साथ बिताई ढेरों स्मृतियाँ हैं। पंडित लीलापत शर्मा जी भी अक्सर साथ में रहते थे। उन्होंने इस पर ‘पूज्य गुरुदेव के मार्मिक संस्मरण’ नामक पुस्तक भी  लिखी है। बहुत से प्रसंग उसमें छप चुके हैं, और भी ढेरों प्रसंग हैं।’’

आपका सुतीक्ष्ण आपकी प्रतीक्षा में है

        मई, सन् 1977 में मैं, पंचकुण्डीय गायत्री महायज्ञ आयोजन सम्पन्न कराने हेतु गुजरात दौरे पर था। मेरे साथ आँकला, जिला खेड़ा के डॉ. गोविन्द भाई पटेल भी थे। नर्मदा नदी पार बड़ौदा जिले के एक गाँव में पंचकुण्डीय यज्ञ के संयोजक, एक संत थे। बड़ी श्रद्धा से उन्होंने तीनों दिन के कार्यक्रम सम्पन्न कराये। यज्ञ की पूर्णता के पश्चात् जब हम लोग चलने लगे, तब उन्होंने मुझसे कहा- ‘‘कृपया आप गुरुदेव से कहें कि आपका सुतीक्ष्ण, आपकी प्रतीक्षा में है। अब मुझे इस धरती से उठा लेना व अपने पास बुला लेना।’’ हमने शान्तिकुञ्ज आकर गुरुदेव से कह दिया। बात आई- गई हो गई। पुनः जब गुरुदेव सन् 1980 में गायत्री शक्तिपीठों की प्राण प्रतिष्ठा के प्रथम दौरे पर गुजरात गये, तब शामलाजी से छिपड़ी होते हुए बड़ौदा पहुँचे। हमने गुरुजी को याद दिलाया कि यहीं पर निकट में एक संत आपकी प्रतीक्षा में थे। गुरुदेव ने उनके लिए एक कार्यकर्ता के हाथ, कुछ फूल भेज दिये।

        सुबह जब हम लोग बड़ौदा से निकल रहे थे, उसी समय सूचना मिली कि उक्त संत ने शरीर त्याग दिया है। तब पूज्य गुरुदेव ने पुनः उनके लिये अंतिम पुष्पाञ्जलि स्वरूप पुष्प दिये व एक कार्यकर्ता को भेजा। इस प्रकार उन्होंने अपने सुतीक्ष्ण का सम्मान किया।

प्रेत योनि से मुक्ति दिलाई

        4 नवंबर 1981 की बात है। पूज्य गुरुदेव शक्तिपीठों के दौरे पर थे। हम गुरुदेव के साथ थे। महुआ, जिला भावनगर, गुजरात में हम लोग श्री छबील भाई मेहता के घर ठहरे थे। उस घर में भूतों का कब्जा था। शायद इसीलिये छबीलभाई स्वयं उस घर में नहीं रहते थे। हमें यह बात मालूम नहीं थी। रात में सब काम समाप्त करते- करते मुझे 1ः00 बज गया। 1ः10 पर जब मैं सोया तो प्रेत परेशान करने लगे। कुछ देर तक तो मैं उनसे जूझता रहा पर फिर मुझे लगा कि पूज्य गुरुदेव से कहना चाहिये। गुरुजी तब तक सो चुके थे। मैं उनके कमरे मे गया, धीरे से गुरुदेव के पैर  का अँगूठा पकड़ा। गुरुजी, तुरंत उठ बैठे, जैसे वह मेरा इंतजार ही कर रहे हों। बोले, ‘‘क्या है बेटा?’’ मैंने कहा, ‘‘पिताजी, प्रेत परेशान कर रहे हैं।’’ गुरुदेव बोले, ‘‘अच्छा बेटा, चल! मैं देखता हूँ।’’ गुरुदेव हॉल में आये। मेरे बिस्तर पर लगभग 5 मिनट बैठे, ध्यान किया, फिर बोले, ‘‘अब सो जा बेटा, उनकी मुक्ति हो गई।’’ मुझे लेटते ही नींद आ गई। फिर किसी ने मुझे परेशान नहीं किया।

गुरुजी सदा प्रोत्साहन देकर परिजनों का उत्साह बढ़ाते रहते थे।   
  
        लोहरदगा बिहार के एक सौ आठ कुण्डीय यज्ञ की बात है। इस प्रसंग को इंदिरा बहन भी सुनाती हैं। गुरुदेव के आने से पूर्व तक कार्यक्रम श्री शिव प्रसाद मिश्रा जी ही सँभालते थे। उस दिन पूज्य गुरुदेव को जरा देर से यज्ञ स्थल आना था। अतः श्री मिश्रा जी कर्मकाण्ड सम्पन्न कराते हुए बार- बार, मुड़- मुड़कर देख रहे थे। पूज्यवर नियत समय पर पहुँच गये और मिश्रा जी के पीछे जाकर खड़े हो गये। उन्होंने सबको इशारा कर दिया कि वे न बतायें अन्यथा उन्हें डिस्टर्ब होगा। किसी ने नहीं बताया कि गुरुजी आ गये हैं। पर मिश्रा जी का मन नहीं मान रहा था। इतना लेट गुरुजी हो नहीं सकते, अभी तक मुझे सूचना कैसे नहीं मिली, एकाएक, वे पूरा पीछे घूम गये। देखा, तो गुरुदेव पीछे खड़े, मंद- मंद मुस्कुरा रहे थे। अब तो वे खुशी से उछल पड़े। ‘‘पूज्य गुरुदेव की जय’’ गगन भेदी नारों से पूरा पंडाल जय घोष करने लगा।

‘‘देखा, मैंने कहा था न, डिस्टर्ब होगा।’’ कहते हुए पूज्यवर ने मंच संभाल लिया। अपने शिष्यों को आगे बढ़ाने हेतु वे भरपूर अवसर देते थे। देर से जाते व चुप बैठ जाते ताकि उनके मन में गुरुदेव के आने से संकोच न हो।

    शान्तिकुञ्ज में भी गुरुजी ने देवकन्या सत्र, महिला सत्र, प्राणप्रत्यावर्तन सत्र, कल्प साधना सत्र, चांद्रायण व्रत इत्यादि बहुत सारे सत्र, साधनाएँ व प्रशिक्षण सत्र कराये। उन सबके माध्यम से हम सब लोगों को तैयार किया और फिर स्वयं तो उन्होंने क्षेत्रों में जाना ही छोड़ दिया। हमीं लोगों को प्रचार-प्रसार के लिये यहाँ तक कि बड़े-बड़े कार्यक्रमों में भेजने लगे थे। शक्ति वे देते रहे काम हम लोग करते रहे। उनकी शक्ति का अहसास आज भी हम लोगों को बराबर होता है।

घास-फूस का प्रज्ञापीठ
    शक्तिपीठों की प्राणप्रतिष्ठा के समय का एक प्रसंग है, महासमुन्द के वरिष्ठ कार्यकर्ता पं. ज्वालाप्रसाद दुबे ने एक घास-फूस की झोंपड़ी बना ली। उसमें गायत्री माता का चित्र रख दिया तथा कुछ पुस्तकें प्रचार हेतु रख दीं व मन में सोच लिया कि इसका गुरुदेव द्वारा उद्घाटन कराऊँगा।
    चूंकि स्थान रास्ते में ही पड़ता था अतः एक कार्यकर्ता को गुरुदेव की गाड़ी रोकने हेतु खड़ा कर दिया व स्वयं कुछ तैयारी करने चले गये। कार्यकर्ता का ध्यान थोड़ा चूक गया और इतने में पूज्य गुरुदेव की गाड़ी आगे निकल गई। किन्तु तब तक ज्वाला प्रसाद जी ने आकर साथ जा रही दूसरी गाड़ी को रोक लिया। उन्हें  वह स्थान दिखाया व समझाया कि गरीब जनता कहाँ से शक्तिपीठ हेतु खर्च कर पायेगी। अतः गाँव-गाँव में साहित्य प्रचार हेतु मैंने प्रज्ञापीठ बनाया है। गुरुजी को जरूर बताना। अवश्य बतायेंगे कहकर, दूसरी गाड़ी बिदा हुई। ज्वाला प्रसाद जी थोड़ा निराश हो गये। अब शायद ही गुरुदेव आ पायें। मन को जैसे-तैसे समझा लिया।

    बात गुरुदेव के कानों तक पहुँची। गुरुदेव हँसे और बोले, ‘‘ये ज्वाला भी कुछ न कुछ करता ही रहता है। अच्छा, उसे जरूर देखेंगे। लौटते में गाड़ी रोकना।’’

    निर्देश भला अमान्य कैसे होता? लौटते में वहाँ गाड़ी रोकी गई। गुरुदेव ने उसे देखा। खूब हँसे और कहा, ‘‘ज्वाला, इसका भी उद्घाटन करूँ?’’
    ज्वाला प्रसाद जी ने चुपचाप सिर हिला दिया। दीपक जल उठे। गरीबों की भावना ने भगवान का दिल छू लिया था और उन्होंने भी उन्हें हृदय से अपना मान लिया। आज भी छत्तीसगढ़ प्रांत गुरुदेव का हृदय माना जाता है।   

तूने तो मुझे बुक सेलर बना दिया
    एक दिन एक परिजन गुरुजी के पास आये व बड़ी बहादुरी प्रदर्शित करते हुए बोले, ‘‘गुरुजी मैंने 35-40 अखण्ड ज्योति पत्रिका के ग्राहक बना दिये हैं।’’
    उसकी बात सुनकर गुरुजी थोड़ा गंभीर हुए व कहा, ‘‘बेटा, तूने तो मुझे बुक सेलर बना दिया। कभी देखा कि जिन्हें तूने ग्राहक बनाया है, वह पढ़ता है कि नहीं? उसके  पास बैठ, उससे चर्चा कर, पता चल जायगा कि पढ़ता भी है कि नहीं।’’
    कार्यकर्ता ने जाना कि अभी तक साहित्य प्रचार की बात ही समझ में आई थी। पढ़ाने की नहीं। उसे लगा कि शायद पूरे पृष्ठ तो मैं ही नहीं पढ़ पाता, फिर दूसरे से क्या पूछूँ? और उसी क्षण उन्होंने पढ़ने व पढ़ाने की प्रतिज्ञा ली।
    ऐसे थे पूज्यवर, अति उत्साह को क्रियात्मक ढंग से वास्तविकता की ओर मोड़कर सहज भाव से अपना बना लेते थे, और बाद में अतीव दुलार कर, इतना अनुदान देते कि व्यक्ति निहाल हो उनका ही होकर रह जाता था।

बेटा, तेरे दो आने खर्च हो गए

    आगरा के पुराने सक्रिय कार्यकर्त्ता श्री पन्नालाल अस्थाना जी ने महापूर्णाहुति के कार्यक्रम में एक लाख रुपये से अधिक मूल्य का युग साहित्य जन-जन तक पहुँचाया था। एक दिन चर्चा के दौरान पंडित लीलापत शर्मा जी ने उनसे पूछा कि युग साहित्य के प्रसार के लिए इतना उत्साह आपमें कैसे पैदा हुआ? तो उन्होंने अपना संस्मरण बतलाया-

    ‘‘बात सन् ६० के दशक की है, तब पूज्य गुरुदेव मथुरा में ही थे। सस्ता समय था। मैं  गुरुदेव से मिलने मथुरा गया तो मैंने पूज्य गुरुदेव के लिए दो आने की एक अच्छी सी फूल माला खरीदी। प्रणाम करके वह उन्हें पहना दी। फिर बातें होने लगीं। पूज्य गुरुदेव ने अचानक पूछा-

    ‘‘बेटा, यह माला तू कितने में लाया?’’ मैंने बतलाया, ‘‘दो आने में गुरुजी।’’ इसपर गुरुजी बोले, ‘‘बेटा, तेरे दो आने खर्च हो गए और यह माला मेरे किसी काम नहीं आई। यदि तू दो आने की मेरी एक छोटी-सी किताब ले जाता तो दसियों लोगों तक मेरे विचार पहुँचते। तेरे पैसे भी सार्थक होते, लोगों का भी भला होता और मुझे भी संतोष मिलता।’’

    श्री अस्थाना जी ने बतलाया कि पू. गुरुदेव द्वारा सहजता से व्यक्त किए गए यह उद्गार मेरे हृदय में गहराई से बैठ गए। मेरी समझ में आ गया कि अपने धन की सार्थकता, जन कल्याण और गुरु की प्रसन्नता, तीनों अर्जित करने के लिए युग साहित्य का प्रसार सबसे सुगम और उपयोगी माध्यम है। इसलिये मैंने ज्ञान-यज्ञ को गति देने के लिये साहित्य-विस्तार का ही लक्ष्य सामने रखा और गुरुकृपा से सफलता भी मिली।’’

केवल उजाड़ना नहीं बसाना भी आना चाहिए
    एक बार श्री संदीप कुमार जी और कुछ अन्य परिजन पटना में नवरात्रि अनुष्ठान कर रहे थे। जिस घर में वे अनुष्ठान कर रहे थे वहाँ भूत-प्रेतों का निवास था। एक कार्यकर्ता, श्री चन्द्रशेखर जी, के बेटे को भूत परेशान करने लगे। वे बेटे को लेकर शान्तिकुञ्ज आए व पूज्यवर को सब बात बताई। पूज्यवर ने बेटे से पूछा, ‘‘भूत तुझसे क्या मांगते हैं?’’ बेटे ने कहा, ‘‘फूल माँगते हैं?’’ गुरुजी ने एक फूल उठाकर दे दिया। उनके जाने के बाद हम लोगों से कहा, ‘‘तुम लोग यज्ञ करते हो, जिससे भूतों का घर उजड़ जाता है। जब तुम्हें उनका घर उजाड़ना आता है तो घर बसाना भी आना चाहिए न।’’ अर्थात् उनकी मुक्ति हेतु भी अनुष्ठान करें। फिर कहा, ‘‘सभी भूतों को नई योनियाँ दे दी हैं।’’ इस प्रकार हर समस्या का समाधान करना व साथ में शिक्षण देना भी उनका सहज स्वभाव था।

गायत्री माता को मारेगा क्या?
    मिशन की लोकप्रियता व प्रतिष्ठा देखकर एक स्थान पर एक मंदिर के पुजारी ने गायत्री माता की मूर्ति भी मँगवा ली तथा गुरुदेव को उद्घाटन हेतु बुला लिया। गुरुवर सहज ही तैयार भी हो गये। पर जब मंदिर में गये। देखा, वहाँ पूर्व से ही राधा-कृष्ण, सीता-राम, लक्ष्मी-गणेश, शंकर भगवान, हनुमान जी की मूर्तियाँ विद्यमान हैं। उन्हें देखकर उन्होंने कहा, ‘‘यहाँ इतनी मूर्तियाँ तो पहले से ही मौजूद हैं। गायत्री माता को मारेगा क्या?’’

    वहाँ उन्होंने गायत्री माता की प्राण प्रतिष्ठा नहीं की। संभवतः वह अंध श्रद्धा को बढ़ावा नहीं देना चाहते थे। उन्होंने समझ लिया कि यह श्रद्धालुओं को दुहने के लिये ही मूर्ति स्थापना कराना चाहता है।

    युग सर्जक भला अपने बच्चों को अनास्था के गर्त में कैसे ढकेलते, अतः मूर्ति स्थापना नहीं की।


श्री अशोक दाश एवं श्रीमती मणि दाश
(श्री अशोक दाश जी 1981 में  राऊरकेला उड़ीसा में पूज्य गुरुदेव के सम्पर्क में आये, दीक्षा ली और 1984 में स्थाई रूप से परिवार सहित शान्तिकुञ्ज आ गये।)

जो भी मशीन पकड़ेगा, ठीक हो जाएगी

    मुझे माताजी का बहुत प्यार-आश्ीर्वाद मिला। उनके साथ बिताया एक-एक क्षण मेरे लिये धरोहर है। अभी मैं शान्तिकुञ्ज में नया-नया ही आया था। पूज्य गुरुदेव उन दिनों सूक्ष्मीकरण साधना में थे। एक दिन मैं और डॉ. दत्ता जब माताजी को प्रणाम करने गये तो माताजी ने बताया लल्लू मेरा टेलीफोन (इंटरकॉम) खराब हो गया है, ठीक ही नहीं हो रहा। डॉ. दत्ता जी बोले, ‘‘माताजी, यह ठीक कर देंगे।’’ माताजी ने मुझसे पूछा, ‘‘लल्लू, तू ठीक कर देगा? अच्छा! देख तो!’’ मैंने मन में सोचा, ‘‘मैं कैसे करूँगा?’’ पर मैं टेलीफोन को ब्रह्मवर्चस ले आया, उलट-पलट कर देखा और खोलकर साफ कर दिया, वह ठीक हो गया। अगले दिन माताजी का फोन चालू हो गया। माताजी खूब खुश हुईं और बोलीं ‘‘जा, आज से तू गुरुजी का और मेरा फोटो सामने रखकर जो भी मशीन पकड़ेगा, वो ठीक हो जाएगी।’’ उनका वह आशीर्वाद खूब फला। मैं किसी मशीन को उलट-पलट कर देखता भर था कि वह ठीक हो जाती थी। उनके आशीर्वाद से मैंने कितनी मशीनें ठीक कीं, इसका मेरे पास कोई हिसाब नहीं। मुझे ऐसा ही लगता रहा कि माताजी ने स्वयं ही इसे ठीक कर दिया है।  
मैं कोई राजेश खन्ना हूँ?   

        प्रारंभ में ई.एम.डी. विभाग बहुत छोटा सा था। थोड़ा- बहुत गीतों की रिकार्डिंग आदि का काम होता था। साधन भी कम थे और तकनीक भी आज के जितनी विकसित नहीं थी। एक छोटा सा वीडियो रिकार्डर था, जिससे बड़े भाईयों ने गुरुजी का एक प्रवचन रिकार्ड किया था। बार- बार दिखाने
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