अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य -2

गुरुदेव ने बदली चिन्तन धारा

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  बात १९७५ के ३१ मार्च की है। उन दिनों हमने प्रतिवर्ष टाटानगर से चार बार शान्तिकुञ्ज आने का नियम बना रखा था। ३० मार्च को शिविर समाप्त हुआ था। ३१ मार्च को वापस जाते समय पूज्य गुरुदेव से मिलने गया। उनने पूछा फिर कब आओगे? मैंने कहा अब जून में आएँगे। छूटते ही उनने कहा- जून में मत आना, मैं बहुत व्यस्त रहूँगा, तुम्हें समय नहीं दे पाऊँगा। बात यह थी कि शान्तिकुञ्ज आने पर जब कभी भी हम पूज्य गुरुदेव से मिलने जाते थे तो वे अपने पास बिठा लेते थे। बातें भले औरों से करते रहें लेकिन हमें उठने नहीं देते थे। लगता था मुझे लोगों से डीलिंग करना सिखा रहे हों। अथवा सबसे परिचय करा रहे हों। फिर हमने कहा- अब आपकी इच्छा, आप जब बुला लें तब आ जाऊँगा। ऐसा कहकर उन्हें प्रणाम किया और नीचे आकर स्टेशन जाने के लिए बस में बैठ गया।

    १० मई को अचानक एक पाँच कुण्डीय यज्ञ २२ से २५ मई की तारीखों में श्री डी. एन. झा ‘मस्ताना जी’ के गाँव (नूतन सोनबरसा, थाना बीहपुर, जिला खगड़िया, बिहार) में सम्पन्न कराने जाने की बात तय हो गई। साथ में टाटानगर के श्री के. पी. श्रीवास्तव और गायक श्री प्रेमदास जी की टीम बनी। इसी के साथ अगला पंचकुण्डीय कार्यक्रम दिनांक २७ से ३० मई तक उ.प्र. के देवरिया जिले के लाररोड के समीप तेलियाकलाँ गाँव में सम्पन्न कराने की बात भी तय हो गई।

      तेलियाकलाँ के कार्यक्रम में श्री डी. एन. झा जी भी साथ हो गए थे। गरमी बहुत तेज होने के कारण ३० मई को ११ बजे तक पूर्णाहुति कर लेनी पड़ी। १२ बजे तक सभी का भोजन भी हो गया। इसी समय पता लगा कि लाररोड में पूज्य देवरहा बाबा का भी यज्ञ होने वाला है और वे यज्ञ की तैयारियों के लिए इन दिनों यहीं हैं। हम चारों के मन में उनसे मिलने की प्रबल इच्छा जागी और तपती दोपहरी में उनके दर्शनों के लिए चल पड़े। हममें से किसी ने कहा- बाबा के हाथ का फल खाएँगे।

      लगभग २.३० बजे हम लोग उनके प्रांगण में पहुँचे तो उपस्थित शिष्य समुदाय ने आगे बढ़ने से रोका। हम सब पीले वस्त्र में थे। पूज्य बाबा जी ने माचा पर से हाथ देकर बुलाया। हम सब उनके पास पहुँचे। कड़कती आवाज में उनने पूछा- आप लोग कौन हैं, कहाँ से आए हैं? हमने जवाब दिया.... हम सब वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी के शिष्य हैं। समीप के गाँव तेलियाकलॉ में गायत्री महायज्ञ सम्पन्न कराने आए थे। अभी आपके दर्शनों के लिए आए हैं। पूज्य बाबा ने फिर पूछा आप लोगों का क्या मंतव्य है- हमने जवाब दिया ... भगवान बुद्ध के भिक्षुओं की तरह पर्वतों, जंगलों, रेगिस्तानों, बियावानों को पार करते हुए सम्पूर्ण विश्व में भारतीय संस्कृति की ध्वजा फहराना।

     पूज्य बाबा जी ने- ‘‘आप सबकी जय हो, विजय हो’’ कहते हुए दोनों हाथ ऊपर उठाकर आशीर्वाद दिया। स्वयं माचे से नीचे उतरे और साथ आने का निर्देश देते हुए आगे बढ़े। थोड़ी दूर चलने पर भूगर्भ (तलघर) में प्रवेश किया, जहाँ गोबर से लिपाई- पुताई की हुई और बिजली का बल्व जल रहा था। उस गुफा में बाँस से बनी जाली के उस पार- जहाँ उनका आसन बना था, जाकर बैठ गए। इस पार हम सबको आसन देकर बैठाया। अन्दर में सेब, संतरा, केला, अंगूर का ढेर लगा था। हम सब को पर्याप्त मात्रा में फल देकर फलाहार करने का निर्देश दिया। हम सब एक दूसरे का मुख ताकने लगे, क्योंकि हमने फलाहार की इच्छा व्यक्त की थी। हम सब फल खाते हुए पूज्य बाबाजी से बातें कर रहे थे। हमारे मना करने पर भी उनने दुबारा फल दिए, यह कहते हुए कि ग्रामवासियों को भी दे देवें।

       चलते समय हमने बाबाजी को प्रणाम किया। उनने पुनः यशस्वी होने का आशीर्वाद दिया और पूछा कि अब आप यहाँ से कहाँ जाएँगे? बिना सोचे मेरे मुख से बात निकल गई कि परम पूज्य गुरुदेव के दर्शनों के लिए हरिद्वार जाएँगे। इस उत्तर के बाद के दृश्य की हमने कल्पना भी नहीं की थी। पूज्य बाबा ने कहा कि उन दिव्य पुरुष की पार्थिव काया के दर्शनों का सौभाग्य तो जाने कब मिलेगा, किन्तु उनके श्रीचरणों में हमारा साष्टांग प्रणाम अवश्य निवेदित कीजियेगा। इतना कहते हुए उनकी आँखों में आँसू छलके और गाल पर ढुलक आये। सिर झुकाकर, हाथ जोड़कर हमने निर्देश स्वीकारा। तत्काल मस्तिष्क में ख्याल उभरा- देखो ये दिव्य आत्माएँ किस तरह उच्चस्तरीय धरातल पर एक दूसरे के प्रति सम्मान का भाव रखते हुए एकजुट होकर लोक कल्याण के कार्यों में अपने- अपने ढंग से संलग्न हैं।

   गुफा से जब हम बाहर निकले तो अचानक अपनी भूल का अहसास हुआ। जाना था टाटानगर- जमशेदपुर और हमने हरिद्वार जाने की बात कह दी। सोचने लगा, उचित स्थल पर संदेश न पहुँचाने पर संदेशवाहक को पाप लगेगा। इस पाप से बचने के लिए तत्काल हरिद्वार जाने का निर्णय ले लिया। फिर दूसरी बात मस्तिष्क में उभरी, पूज्य गुरुदेव ने जून में हरिद्वार आने को मना कर रखा है। स्थिति धर्म संकट की बन गई।

    स्थान की दूरी और आवागमन की सुविधा पर ध्यान दौड़ाया तो ऐसा लगा कि तेलिया कलाँ पहुँच कर यज्ञ संयोजक से विदा लेकर यदि आज ही चल दिया जाए तो शायद धर्म संकट की स्थिति टल जाए। सो गाँव पहुँचते ही हमने बाबा का दिया प्रसाद यज्ञ संयोजक श्री राम नक्षत्र जी को दिया और तत्काल विदा देने की बात कही। उस समय विदा होने पर मार्ग में होने वाली असुविधा का उनने ध्यान दिलाया, फिर भी हमने दबाव दिया और आधे घण्टे में हम सब तत्काल वहाँ से विदा हो गए।

      गाँव से दो फल्लांग की दूरी पर पक्की सड़क थी। वहाँ पहुँचने पर पता लगा कि लार रोड जाने वाली अंतिम बस जा चुकी है। उन दिनों यात्राओं में स्वाध्याय के लिए मिशन की ढेरों पुस्तकें लेकर चलता था, जिससे सामान का बैग भारी हो जाता था। भारी वजन से कन्धे चरमराने लगे और किसी के सहयोग की आवश्यकता अनुभव होने लगी। अचानक फीट का काला छरहरा जवान कंधे पर खाली कांवर लिये आता दिखाई पड़ा। हमने सोचा, लगता है कि शादी विवाह का या मरनी आदि का न्यौता पहुँचा कर लौट रहा होगा। हमने अपना सामान लाररोड तक पहुँचा देने का निवेदन किया तो उसने हामी भर दी। मजदूरी पूछने पर वह मुस्कुरा दिया, जिससे किसी अदृश्य सहायता मिलने की परिकल्पना मेरे मस्तिष्क में उभरी। लगभग तीन कि.मी. की दूरी तय की तो एक बस खड़ी दिखाई पड़ी।

       कांवर वाले भाई ने बताया कि यही बस लाररोड स्टेशन जाने वाली है। टायर पंक्चर हो जाने से यहाँ रुक गई थी। अब टायर मरम्मत हो गई है और गाड़ी तुरंत जाने वाली है, आप लोग इसी गाड़ी में बैठ जाएँ। इस भाई को पैसा देने में मुझे झिझक हुई। श्री के. पी. श्रीवास्तव को सामान रखवाने को कह कर हम उनके लिए मिठाई लाने चले गए। कुछ देर बाद मैं लौटा और उन्हें ढूँढ़ने लगा तो कहीं पता नहीं चला। वह दूर- दूर तक भी नहीं दिखाई पड़े। हम मन मसोस कर पैकेट लिए गाड़ी में बैठ गए।

     लाररोड स्टेशन पहुँचते ही हमें बनारस जाने वाली ट्रेन मिल गए, जिससे १२ बजे रात में वाराणसी पहुँच गए। पता चला कि सियालदाह से चलकर जम्मू- तवी को जाने वाली ३०५१- अप ट्रेन एक घण्टे लेट है और एक बजे रात में वाराणसी आ रही है। हमें हरिद्वार का टिकट लेने का मौका मिल गया और उसी ट्रेन से चलकर ३१ तारीख की बजे रात में लक्सर आए। यहाँ पर सहारनपुर देहरादून पैसेंजर ट्रेन लगी मिल गए, जिससे १० बजे रात में हम सब हरिद्वार स्टेशन आ गए।

     स्टेशन से शान्तिकुञ्ज जाने के लिए कोई रिक्शा वाला भाई तैयार नहीं होता था। कारण पूछने पर बताया कि रात में उस वीरान इलाके से लौटते समय रास्ते में लोग पैसा छीन लेते हैं। अन्त में एक रिक्शा चालक से बात तय हुई कि हम उसे दूना पैसा देंगे, रिक्शा पर कोई व्यक्ति नहीं बैठेगा, केवल सामान रखा रहेगा। चढ़ाई आने पर हम सब पीछे से धक्का भी देंगे और शान्तिकुञ्ज पहुँचने पर रात्रि में उसके सोने की व्यवस्था भी बना देंगे। इन्हीं शर्तों पर रिक्शा से सामान लेकर हम लोग रात्रि के ११ बजकर ५० मिनट पर शान्तिकुञ्ज गेट पर आ गए, जो इन दिनों गेट नं. के नाम से जाना जाता है। उन दिनों एकमात्र वही गेट था। गेट खटखटाया तो सामने डाकघर के कमरे में सोये डाकपाल श्री किरीट भाई जोशी ने आकर गेट खोल दिया, और इस तरीके से हम लोग ११ बजकर ५५ मिनट पर शान्तिकुञ्ज प्रांगण में आकर मैदान में सो गए।

     शान्तिकुञ्ज में उस समय स्थायी यज्ञशाला का निर्माण नहीं हुआ था। आज के कम्प्यूटर रूम के सामने वाले मैदान में बाँस और कपड़े की बनी अस्थाई यज्ञशाला में प्रातः दैनिक हवन हुआ करता था और हवन यज्ञ के पश्चात् यज्ञशाला को समेट कर रख दिया जाता था। हम लोगों ने भी हवन यज्ञ में भाग लिया और नियमित दिनचर्या के अनुसार प्रातः बजे अखण्ड दीप के दर्शन और पूज्य गुरुदेव, वन्दनीया माता जी को प्रणाम करने प्रथम तल पर पहुँचे। उन दिनों ये शक्ति- युगल अखण्ड दीपक वाले बरामदे में ही बड़े सोफा पर दर्शन देने बैठा करती थीं।   

  अपनी बारी आने पर मैं श्रीगुरुचरणों में प्रणाम करने झुका तो देखते ही पूज्य गुरुदेव ने कहा- बेटा, जून माह में आने के लिए तुम्हें मना किया था। सहसा मेरे मुँह से निकल गया- नहीं पिताजी, जून में नहीं आया हूँ। रात ग्यारह बजकर पचपन मिनट पर मई माह में ही परिसर में आ गया था। पूज्यवर ने मुस्काते हुए कहा- अच्छा- अच्छा मई माह में ही आ गया था, अच्छा किया। पर बेटा अपने साथ इतना वजन लेकर मत चला करो। तुम्हारा वजन उठाने में मेरे कन्धे चरमरा जाते हैं। सुनकर ३० मई की शाम मिले उस काले आदमी को याद कर हमारी आखें फटी रह गईं। मेरी आँखों में आँसू छलछला आए कि पूज्य गुरुदेव को मेरा बोझ उठाना पड़ा।

      आगे पूज्यवर ने कहा- देख बेटा! इन दिनों शान्तिकुञ्ज में तीन- तीन शिविर चल रहे हैं- १. नौ दिवसीय जीवन साधना शिविर,२. ब्रह्मवर्चस् लेखन शिविर और ३. रामायण प्रशिक्षण शिविर। तीनों शिविर महत्त्वपूर्ण है, तुम तीनों में भाग लेना। तीनों की दिनचर्या की जानकारी नीचे जाकर वीरेश्वर से ले लेना और थोड़ा समय ऊँचा- नीचा करके तीनों में शामिल हो जाना। जी पिताजी, कहकर हमने अपनी सहमति व्यक्त की। फिर देवरहा बाबा का संदेश प्रसंग हूबहू उनके सामने रख दिया। क्षण भर के लिए पूज्य गुरुदेव की आँखें बन्द हो गईं। आँखें खुलीं तो उनकी दोनों आँखें नम थीं। इस दृश्य ने मेरे अन्दर विनम्रता और कृतज्ञता भाव का संचार किया और अपने सहयोगियों के प्रति प्रतिद्वंद्विता की जगह अपनत्व और सहयोग भाव विकसित हुआ। उस दिन से गायत्री परिजनों के प्रति मेरे चिन्तन की धारा ही बदल गई। सभी भगवत् कार्य के सहयोगी दिखाई देने लगे।

     पूज्य गुरुदेव के निर्देशानुसार नीचे आकर मैंने अग्रज श्री वीरेश्वर उपाध्याय जी से भेंट कर उनको सारा हाल बताया। उनसे शिविर दिनचर्या की पूरी जानकारी प्राप्त की और उनके सहयोग से तीनों शिविरों की भागीदारी करके तीनों के प्रमाण- पत्र प्राप्त किए। उन तीनों शिविरों के लिए प्रमाण- पत्र हमें प्रदान करने की विशेष व्यवस्था बनाई गई थी।

     तीनों शिविर एक दूसरे से बढ़कर जानकारी देने वाले, श्रद्धा संवर्द्धन करने वाले और उपयोगी थे। थोड़े समय में इतना बेशकीमती ज्ञान प्रदान करने की व्यवस्था तो कोई समर्थ और हितैषी गुरुसत्ता ही कर सकती है। मैं सतत चिन्तन करता रहता हूँ कि किस प्रकार शुभेच्छु गुरुसत्ता अपनी और शिष्य की वाणी की मर्यादा बचाते हुए शिष्य के विकास के लिए निरन्तर ताना- बाना बुनती रहती है और अच्छे अवसर उत्पन्न कर शिष्य के आत्मिक और जागृतिक विकास में सहयोग प्रदान करती है। धन्य है गुरु शिष्य का यह अद्भुत पावन सम्बन्ध और धन्य हैं ऐसे सौभाग्यशाली शिष्य।

प्रस्तुति: केसरी कपिल
शांतिकुंज, हरिद्वार (उत्तराखण्ड)
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