सन् १९८३- ८४ की बात है, सुबह के समय मैं एकांत में बैठकर ध्यान कर रही थी। अनायास ही मेरी आँखें खुल गईं। सामने गुरुदेव, माताजी और गायत्री माता की तस्वीर लगी हुई थी। उस पर दृष्टि पड़ते ही मैं चौंक उठी। गुरुदेव की तस्वीर नहीं दिखी। उस स्थान पर ठाकुर श्रीरामकृष्ण परमहंस सशरीर उपस्थित दिखे। मैंने आँखें मलकर फिर देखा, तब भी वही दृश्य दिखा।
उस समय दीक्षा के लिए अधिक दिन नहीं हुए थे। मैंने सोचा- ठाकुर को इतने दिनों से मानती रही हूँ, घर में हमेशा से उनकी तस्वीर देखती हूँ, उनके प्रति श्रद्धा बनी हुई है शायद इसीलिए गुरु के स्थान पर उनको देख रही हूँ। गुरुदेव से अभी मन का जुड़ाव अनुभव नहीं हुआ होगा। लेकिन सन् १९८५ में जब ‘हमारी वसीयत और विरासत’ पुस्तक छपी तो पढ़कर मुझे रोमांच हो आया। उसमें गुरुदेव ने अपने पिछले जन्मों के विषय में लिखा था।
ठाकुर रामकृष्ण ही इस जन्म में पूज्य गुरुदेव के रूप में आए हैं। यह जानकर मुझे उस दिन का वह दृश्य याद आ गया। फिर मेरे मन में यह प्रश्र आया कि मुझ पर यह रहस्य खोलने का गुरुदेव का मन्तव्य क्या रहा होगा? उत्तर अपने अन्तःकरण से ही प्राप्त हुआ- मेरी श्रद्धा बँटने न पाए, पूरी तरह अपने आराध्य में स्वयं को समाहित कर सकूँ। शायद इसलिए गुरुदेव ने अपने उस स्वरूप का दर्शन करा दिया। अथवा यह भी संभव है कि उनके सभी जन्मों के स्वरूप उनमें छाया रूप में समाए हुए हैं। मेरी श्रद्धा ठाकुर रामकृष्ण में बनी हुई थी इसलिए मुझे केवल वे ही दिखे।
प्रस्तुति:श्रीमती कान्ति सिंह, हावड़ा (प.बंगाल)