महायोगी अरविंद

आर्य का प्रकाशन और अन्य रचनाएँ-

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श्री अरविंद ने जो आर्य नामक मासिक पत्र प्रकाशित किया था, उसमें उच्च श्रेणी के आध्यात्मिक और सांस्कृतिक लेख प्रकाशित हुआ करते थे। उसके जो दो उद्देश्य प्रथम अंक में प्रकाशित किये गये थे, वे इस प्रकार थे- (१) अस्तित्व की उच्चतम समस्याओं का विधिवत् अध्ययन। (२) ज्ञान के विशाल समन्वय की रचना। पूर्व और पश्चिम की मानवतायुक्त सभी धार्मिक परंपराओं का मेल। इस कार्य को बौद्धिक और वैज्ञानिक अनुशासन के साथ पूरा किया जायेगा। इसमें प्रथम पाँच- छह वर्षो में जो लेख प्रकाशित हुए थे, उनमें से कुछ विशेष महत्व के ये थे- गीतानिबंधावली- देवी जीवन- योग समन्वय- वेद एकता का आदर्श- भारतीय संस्कृति के पक्ष में- सामाजिकविकास का मनोविज्ञान। इनमें से कई रचनाएँ संशोधित होकर पुस्तकाकार भी प्रकाशित हो चुकी हैं। कुछ लेख तो ऐसे हैं, जो सार्वभौम दृष्टी से स्थायी निधि है। इन लेखों और अपनी अन्य रचनाओं में श्री अरविंद ने जो विचार प्रकट किए हैं, वे एक प्रकार से भविष्य के स्वपन थे और अंतरंग भावनाओं से ही उत्पन्न हुए थे। पर यह स्वीकार करना पड़ता है कि जहाँ अन्य लोगों के स्वपन प्रायः स्वपन ही रह जाते है, उन्होंने अपने स्वपनों को काफी दूर तक सत्य सिद्ध कर दिखाया और उसकी पूर्ति में काफी परिश्रम भी किया। सन् १९४७ की१५अगस्त को जब भारत स्वतंत्र हो गया, तो उन्होंने अपने बयान में कहा था- आज के दिन मैं लगभग समस्त संसार के उन आंदोलनों को देख रहा हूँ, जिन्हें मैं अपने जीवन काल में फलीभूत देखने की आशा करता था। यद्यपि उस समय वे सफल होने के निकट पहुँच चुके हैं या सफलता के मार्ग पर है। भारतवर्ष की स्वाधीनता के पश्चात् मेरा दूसरा स्वप्न था- एशियावासियों के पुनरूत्थान और मुक्ति का, जिससे वह मानव- सभ्यता की प्रगति में अपना महान् योग दे सकें। तीसरा स्वपन था समस्त संसार का एक संघ स्थापित होने का जिसका बाह्य आधार मानव- मात्र का उत्तम, समुज्ज्वल और शिष्ट जीवन हो। ये सभी बातें निकट आती जा रही हैं और कम या ज्यादा अंशों में उनकी संभावना बढ़ती जा रही है।

इसके पश्चात् वर्तमान परिस्थिति पर दृष्टी डालते हुए उन्होंने भविष्य की जो रूपरेख खींची, वह बहुतमहत्वपूर्ण और विश्व- संचालक शक्तियों के संबंध में उनकी जानकारी की परिचायक है। उन्होंने कहा- जो कुछ प्रयत्न किये जा रहे हैं, उनके मार्ग में आपत्तियाँ आ सकती हैं, वे उन यत्नों को नष्ट कर सकती हैं। फिर भी अंतिम परिणाम निश्चित है। कारण यह है कि एकीकरण प्रकृति की आवश्यकता है, यही उसकी अनिवार्य गति है। समस्त देशों के लिए स्पष्ट रूप से यही नियम आवश्यक है।जब तकऐसा एकीकरणच् न होगा, छोटे राष्टों की स्वतंत्रता किसी भी समय खतरे में पड़ सकती है और बड़े तथा शक्तिशाली राष्ट्रों का जीवन भी अरक्षित हो सकता है। ऐसी दशा में एकीकरण में सभी का हित है और केवल मानव की जड़ता और मूर्खतापूर्ण स्वार्थ भाव ही उसमें बाधक बन सकता है। पर प्रकृतिकी आवश्यकता और दैवी इच्छा के आगे ये चीजें सदैव टिकी नहीं रह सकतीं, तो भी इसकी प्राप्ति के लिए केवल बाहरी आधार ही काफी नहीं है। इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय दृष्टीकोणऔर सद्भाव की भी आवश्यकता है। ऐसे अंतर्राष्ट्रीय संगठन और संस्थाओं का निर्माण होना आवश्यक है, जिनसे संसार के सभी भागों में बसने वाले आपस में सब प्रकार का आदान- प्रदान कर सकें। इसका अर्थ यह नहीं कि लोगों की राष्ट्रीयता की भावना सर्वथा जाती रहेगी, पर वह क्रमशः विशुद्ध रूप में पहुँच जायेगी और उसकी युद्धप्रियता नष्ट हो जायेगी। इससे मानव- जाति में एकता की एक नई भावना जागृत हो जायेगी।

एक और स्वप्न है, संसार को भारत की तरफ से आध्यात्मिकता का उपहार, जिसका श्री गणेश हो चुका है। भारत की आध्यात्मिकता योरोप और एशिया में पर्याप्त परिमाण में प्रवेश पा चुकी है। यह आंदोलन बढ़ता ही जायेगा। युग- संकटों के साथ ही संसार की अधिकाधिक आँखें उसकी ओर आशा से देख रही हैं और बहुसंख्यक लोग उसका क्रियात्मक ज्ञान प्राप्त करने को आ रहे हैं।

अंतिम स्वप्न है- विकास की ओर एक नया कदम, जिससे मनुष्य वर्तमान की अपेक्षा उच्च और विशाल चेतना की ओर अग्रसर हो सके।इसके पश्चात् वर्तमान परिस्थिति पर दृष्टी डालते हुए उन्होंने भविष्य की जोरूपरेख खींची, वह बहुत महत्वपूर्ण और विश्व- संचालक शक्तियों के संबंध में उनकी जानकारी की परिचायक है। उन्होंने कहा- जो कुछ प्रयत्न किये जा रहे हैं, उनके मार्ग में आपत्तियाँ आ सकती हैं, वे उन यत्नों को नष्ट कर सकती हैं। फिर भी अंतिम परिणाम निश्चित है। कारण यह है कि एकीकरण प्रकृति की आवश्यकता है, यही उसकी अनिवार्य गति है। समस्त देशों के लिए स्पष्ट रूप से यही नियम आवश्यक है।जब तकऐसा एकीकरण न होगा, छोटे राष्टों की स्वतंत्रता किसी भी समय खतरे में पड़ सकती है और बड़े तथा शक्तिशाली राष्ट्रों का जीवन भी अरक्षित हो सकता है। ऐसी दशा में एकीकरण में सभी का हित है और केवल मानव की जड़ता और मूर्खतापूर्ण स्वार्थ भाव ही उसमें बाधक बन सकता है। पर प्रकृतिकी आवश्यकता और दैवी इच्छा के आगे ये चीजें सदैव टिकी नहीं रह सकतीं, तो भी इसकी प्राप्ति के लिए केवल बाहरी आधार ही काफी नहीं है। इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय दृष्टीकोण और सद्भाव की भी आवश्यकता है। ऐसे अंतर्राष्ट्रीय संगठन और संस्थाओं का निर्माण होना आवश्यक है, जिनसे संसार केसभी भागों में बसने वाले आपस में सब प्रकार का आदान- प्रदान कर सकें। इसका अर्थ यह नहीं कि लोगों की राष्ट्रीयता की भावना सर्वथा जाती रहेगी, पर वह क्रमशः विशुद्ध रूप में पहुँच जायेगी और उसकी युद्धप्रियता नष्ट हो जायेगी। इससे मानव- जाति में एकता की एक नई भावना जागृत हो जायेगी।

"एक और स्वप्न है, संसार को भारत की तरफ से आध्यात्मिकता का उपहार, जिसका श्री गणेश हो चुका है। भारत की आध्यात्मिकता योरोप और एशिया में पर्याप्त परिमाण में प्रवेश पा चुकी है। यह आंदोलन बढ़ता ही जायेगा। युग- संकटों के साथ ही संसार की अधिकाधिक आँखें उसकी ओर आशा से देख रही हैं औरबहुसंख्यक लोग उसका क्रियात्मक ज्ञान प्राप्त करने को आ रहे हैं।

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