पाँच वर्ष की आयु में ही श्री अरविंद को दार्जिलिंग के एक ऐसे स्कूल में दाखिल करा दिया गया, जो पूर्णतया योरोपियन था। इसमें पढ़ने वाले बालक और पढ़ाने वाले शिक्षक सब योरोपियन थे और भारतीय भाषाओं का कोई वहाँ नाम भी नहीं लेता था। दो वर्ष बाद सात वर्ष की अवस्था में उनको विलायत शिक्षा प्राप्त करने भेज दिया गया। कम उम्र होने के कारण उनको होस्टल में न रखकर मि० ड्रिवेट नामक गृहस्थ के घर में रहने की व्यवस्था की गई। वे महाशय योरोप की प्राचीन भाषा लैटिन के, जिसका सम्मान उस महाद्वीप में हमारी संस्कृत भाषा की तरह किया जाता है, बड़े विद्वान् थे। उनके यहाँ रहकर श्री अरविन्द ने छोटी अवस्था में ही इस भाषा का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर लिया। सन् १८८५ में जब मि० ड्रिवेट इंगलैंड छोड़कर ऑस्ट्रेलिया में रहने को चले गये, तो अरविंद को सेंटपाल स्कूल में दाखिल करा दिया गया। वहाँ के हैडमास्टर को इतनी छोटी आयु में इनकी लैटिन भाषा की योग्यता को देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ और उनसे प्रसन्न होकर निजी तौर पर इनको दूसरी प्राचीन भाषा ग्रीक पढ़ाना आरंभ कर दिया। इसको भी उन्होंने शीघ्र ही सीख लिया। योरोप की समस्त वर्तमान भाषाओं की जननी 'लैटिन' और 'ग्रीक' भाषाएँ ही मानी जाती हैं। इनका उच्च ज्ञान प्राप्त कर लेने से श्रीअरविंद को वहाँ की सभी भाषाएँ सीखने में बड़ी सुविधा हो गई और वे बहुत जल्दी ऊँचे दर्जो में चढ़ा दिये गये। वास्तव में उनमें नई भाषा के सीखने की असाधारण क्षमता थी। श्री अरविंद साधारण विद्यार्थी न थे। तेरह वर्ष की आयु में जब उन्होंने मि० ड्रिवेट का घर छोड़ा ,, तभी अपनी विशेष प्रतिभा, समझदारी और विनम्रता से उन्होंने आदरणीय स्थान प्राप्त कर लिया था। अपनी इस विकसित योग्यता के द्वारा उन्होंने सेंटपाल स्कूल की पढ़ाई चार वर्ष में ही पूरी कर लीं और लगभग सत्रह वर्ष की आयु में कैंब्रिज के 'किंग्स कॉलेज' के लिए ८० पौंड (लगभग ५५००रू) की सर्वोच्च छात्र- वृत्ति प्राप्त कर ली। अंग्रेजी और फ्रांसीसी भाषाओं की विशेष योग्यता के साथ उन्होंने जर्मन, इटालियन और स्पेनिश भाषाओं का भी साधारण ज्ञान प्राप्त कर लिया। चौदह वर्ष की आयु में उन्होंने एक कविता- पुस्तक रच डाली, जिसकी अनेक विद्वानों ने प्रंशसा की। ग्रीक और लैटिन की काव्य- संबंधी योग्यता के लिए कैंब्रिज विश्व- विद्यालय में जो पुरस्कार दिये जाते थे, वे प्रतिवर्ष इन्हीं को मिलते थे।
पिता के आदेश से श्री अरविंद ने आई० सी० एस० (इंडियन सिविल सर्विस) की परीक्षा बिना किसी शिक्षक से सहायता लिए ही दे डाली और उसमें उच्च श्रेणी में पास हो गए, पर उन्होंने घुड़सवारी की ओर ध्याननहीं दिया, जिससे परीक्षा का प्रमाण पत्र इनको न मिल सका। पर जो विद्यार्थी अन्य विषयों में अच्छी योग्यता दिखलाते थे, उनको घुड़सवारी का इम्तिहान दुबारा देने का मौका दिया जाता था, पर इन्होंने उसकी तरफ कुछ ध्यान नहीं दिया। इससे अनेक लोगों ने बाद में यह ख्याल किया कि वे इस परीक्षा में जानबूझ कर फेल हो गये, क्योंकि उनकी यह आकांक्षा नहीं थी कि भारतवर्ष में कलेक्टर या कमिश्नर बनकर अंग्रेजी नौकरशाही के एक अंग बन जाएँ। भगवान् को भी यह अभिप्रेत नहीं था कि, जिस व्यक्ति को संसार के मार्ग प्रदर्शन के लिए भेजा गया है, वह कोई बड़ा सरकारी अफसर बनकर खाने- पीने और फैशन की बातों में अपनी जिंदगी बिता दे। इसलिए उनकी विचारधारा किसी दूसरी तरफ ही बहने लग गई थी।