स्वामी विवेकानंद

देश दशा का अनुभव

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सन् १८८८ में स्वामीजी (नरेन्द्र) देश भ्रमण के लिए निकले। उस समय उन्होंने अपने पास एक भी पैसा न लिया और न किसी तरह की सामग्री। केवल भगवान के भरोसे वे आश्रम से निकल पड़े और वहाँ से वृन्दावन होकर हाथरस पहुँचे। वहाँ का स्टेशन मास्टर शरदचंद्र उनका भक्त बन गया और बड़े आग्रह के साथ उन्हें अपने यहाँ ठहराया। एक दिन उसने पूछा- ‘‘स्वामीजी! आप उदास क्यों जान पड़ते हैं?’’ स्वामीजी ने उत्तर दिया- ‘‘बेटा! मुझे एक महान कार्य पूरा करना है, पर अपने साधनों की अल्पता देखकर मैं निराश हो जाता हूँ। मेरे गुरु का आदेश है कि हमारी मातृभूमि का पुनरुत्थान किया जाए। भारतवर्ष से सच्ची आध्यात्मिकता लुप्त हो गई है और भुखमरी का भूत सर्वत्र घूम रहा है। इसलिए भारतवर्ष को शक्तिशाली बनाकर अपनी आध्यात्मिकता द्वारा विश्व को विजय करना चाहिए।’’

कुछ समय बाद स्वामीजी हाथरस से चल दिए। पर शरदचंद्र ने उनको न छोड़ा। उसने नौकरी से इस्तीफा दे दिया और साधु बनकर इनके साथ ही चल दिया। स्वामीजी हिमालय के विभिन्न स्थानों में भ्रमण करने लगे जहाँ शरदचंद्र बीमार पड़ गया। तब स्वामीजी ने उसकी इतनी अधिक सेवा की जितनी कोई नौकर नहीं कर सकता। फिर हरिद्वार पहुँचकर वे स्वयं बीमार हो गए और पाँच महीने की चिकित्सा तथा सेवा सुश्रूषा से बड़ी कठिनाई से नीरोग हुए। इस बीच में खबर आई कि कलकत्ते का आश्रम आर्थिक संकट के कारण बड़ी बुरी हालत में है। स्वामीजी शीघ्र ही वहाँ पहुँचे और कुछ व्यवस्था करके फिर भारतवर्ष की यात्रा पूर्ण करने को निकल पड़े।

इस यात्रा में स्वामीजी को बड़े अनुभव हुए और उन्होंने विभिन्न भारतीय वर्गों की अच्छी जानकारी प्राप्त की। राजस्थान भ्रमण करने के लिए वे पहले अलवर पहुँचे और वहाँ दो- तीन दिन में ही उनकी ऐसी ख्याति हो गई कि हिन्दू ही नहीं, मुसलमानों के समूह भी दर्शनार्थ आने लगे। अंत में वहाँ के महाराज ने उनको बुलाया और सत्संग करके अपने को धन्य माना।

अलवर में रहते समय एक गरीब बुढ़िया ने उनको बड़े प्रेम से रोटी खिलाई थी। स्वामीजी उसे कभी नहीं भूले। जब अमरीका से विश्व- विजयी बनकर लौटे और अलवर जाने का अवसर आया तो उस बुढ़िया के घर स्वयं ही पहुँचे और उसके हाथ से मोटी रोटी और साग बनवाकर खाया। चलते समय उसके घर वालों को चुपचाप सौ रुपए सहायतार्थ दे आए।

इसी प्रकार खेतड़ी के पास एक गाँव में वे तीन दिन टिक गए। वहाँ के निवासी उनसे प्रश्नोत्तर तो रात- दिन करते रहे, पर किसी ने भोजन तो क्या पानी के लिए भी नहीं पूछा। यह देखकर एक गरीब अछूत को बड़ी व्यथा हुई। रात्रि में सबके चले जाने पर वह स्वामीजी के पास पहुँचकर अपना मनोभाव प्रकट करने लगा। स्वामीजी ने जब उससे रोटी लाने के लिए कहा तो वह अत्यंत डरकर कहने लगा कि अगर मैं आपको रोटी खिलाकर भ्रष्ट कर दूँ तो इस बात को प्रकट होने पर मुझे गाँव से निकाल दिया जाएगा। स्वामीजी के आश्वासन देने पर वह तीन- चार रोटियाँ दे गया और स्वामीजी ने उनमें अमृत के समान स्वाद पाया। फिर जब वे खेतड़ी के राजा के गुरु बनकर राजमहल में ठहरे तो उन्होंने इस घटना का जिक्र किया। राजा साहब ने अछूत को बुलवाया। पहले तो वह बहुत घबड़ाया और क्षमा माँगने लगा, पर राजा ने उसकी बड़ी प्रशंसा की और उसे पुरस्कृत करके उसकी गरीबी को दूर कर दिया।

लिम्बड़ी (काठियावाड़) में स्वामीजी संन्यासियों के एक आश्रम में ठहर गए जो वास्तव में वाममार्गी थे। उन्होंने स्वामीजी को भी अपने ‘भैरवी चक्र’ में शामिल होने को कहा। जब इन्होंने इस प्रकार के व्यभिचार कर्म से घृणा प्रकट की तो उनको एक कोठरी में बंद कर दिया और मारने का भय दिखाने लगे। स्वामीजी बड़ी कठिनाई से उनके फंदे से छूटे और उनको भ्रष्ट कर्म करने के अपराध में गिरफ्तार कराया। इस घटना से स्वामीजी के ब्रह्मचर्य व्रत की दृढ़ता का परिचय मिलता है।

मैसूर में भी महाराज ने उनका बड़ा सत्कार किया। एक दिन वहाँ के दीवान ने उनको कोई भेंट देने का बड़ा आग्रह किया और चैक बुक देकर अपने सेक्रेटरी को साथ में भेज दिया कि नगर की सबसे बड़ी दुकान में स्वामीजी जो कुछ पसंद करें वही दिला दिया जाए। स्वामीजी ने सब कुछ देखा- भाला, पर अंत में बारह आने की कोई छोटी- सी चीज लेकर दीवान साहब के आग्रह की रक्षा कर दी। इस प्रकार उन्होंने अपने व्यवहार से यह सिद्ध कर दिखाया कि सच्चा संन्यासी सांसारिक प्रलोभनों से अपने को दूर ही रखता है।

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