स्वामी विवेकानंद

देशप्रेम और सेवाभाव

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कलकत्ता नगर में महामारी (प्लेग) का प्रकोप था। प्रतिदिन सैकड़ों व्यक्तियों पर उसका आक्रमण होता था। हालत बिगड़ती देखकर सरकार ने स्थिति का नियंत्रण करने के लिए कड़े नियम बनाए। पर जब नगर निवासी अनुशासन की कमी से उनका पालन करने में ढीलढाल करने लगे तो शहर के भीतर और चारों तरफ फौज तैनात कर दी गई। इससे नगरवासियों में बड़ा आतंक फैल गया और उपद्रव हो जाने की आशंका होने लगी। स्वामी विवेकानन्द उस समय विदेशों में हिन्दू धर्म की ध्वजा फहराकर और भारतवर्ष का दौरा करके कलकत्ता आए ही थे। वे अपने देशी- विदेशी सहकारियों के साथ बेलूड़ में रामकृष्ण परमहंस मठ की स्थापना की योजना में संलग्न थे। लोगों पर इस घोर विपत्ति को आया देखकर वे सब काम छोड़कर कर्मक्षेत्र में कूद पड़े और बीमारों की चिकित्सा तथा सफाई के लिए एक बड़ी योजना बना डाली।

गुरुभाई ने पूछा- स्वामीजी? इतनी बड़ी योजना के लिए ‘फंड’ कहाँ से आएगा?

स्वामीजी ने तुरंत उत्तर दिया- आवश्यकता पड़ेगी तो इस मठ के लिए जो जमीन खरीदी है उसे बेच डालेंगे। सच्चा मठ तो सेवा कार्य ही है। हमें तो सदैव संन्यासियों के नियमानुसार भिक्षा माँगकर खाने तथा पेड़ के नीचे निवास करने को तैयार रहना चाहिए।

सेवा- व्रत को इतना उच्च स्थान देने वाले स्वामी विवेकानन्द (जन्म १२ जनवरी १८६३) कलकत्ता के एक मध्यम श्रेणी के बंगाली परिवार में उत्पन्न हुए थे। उस समय भारत में तीव्र वेग से अंग्रेजी राज्य और ईसाई संस्कृति का प्रसार हो रहा था। इसके परिणाम स्वरूप देश में उच्चवर्ग का विश्वास अपने धर्म और सभ्यता पर से हिल गया था और ऐसा प्रतीत होने लगा था कि कुछ ही समय में इस देश में ईसाईयत की पताका उड़ने लगेगी। पर उसी समय देश में ऐसे कितने ही महामानवों का आविर्भाव हुआ जिन्होंने इस प्रबल धारा को अपने प्रभावों से पूरी तरह मोड़ दिया। उन्होंने हिन्दू धर्म के सच्चे स्वरूप को संसार के सामने रखा और लोगों को विश्वास दिला दिया कि आत्मोन्नति और कल्याण की दृष्टि से हिन्दू धर्म से बढ़कर धार्मिक सिद्धांत संसार में और कहीं नहीं है। इन महामानवों में स्वामी विवेकानन्द का स्थान बहुत ऊँचा है।

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