संत विनोबा भावे

दान नहीं गरीबों का हक

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विनोबा ने भूमिहीनों के लिए पचास लाख एकड़ के लगभग जमीन प्राप्त की है, पर उनका कहना था- ''मैं जमीन मांगता नहीं, मैं भीख नही मांगता। मैं तो गरीबों का हाक माँगकर उनको दे देना चाहता हूँ।'' वास्ताव में मांगने में, दान ग्रहण करने में हीनता की भावना अवश्य ही रहतीहै और उससे मनुष्य की मानवता को धक्का लगता है। एक पौराणिक- कथा है कि जब ब्रह्माजी ने महर्षि वशिष्ठ से सूर्यवंशी राजाओं को पुरोहित बनने को कहा, तो वे बडे़ दु:खी हुए और कहा कि 'प्रतिग्रह' या 'दान' ग्रहण करना आत्मबल और सम्मान को नष्ट करने वाला है, इसलिए मैं पुरोहित के धंधे को बहुत नापसंद करता हूँ। अंत में ब्रह्माजी ने उनको सूर्यवंश में भगवान् के 'अवतार' होने का आश्वासन दिया, तब कही जाकर वे बडे़ संकोच के साथ इस कार्य के लिए तैयार हुए। विनोबा भी इसी विचार के थे, इसलिए वे इस बडी़ उम्र में भी बिना कडी़ मेहनत किये, अपने निर्वाह की सामग्री नही लेते। गरीबों की सामाजिक समस्या को सुलझाने के लिए उन्होंने जो 'भूदान' प्रचलित किया- उसमें भी उन्होंने यही भाव रखा कि मनुष्य जमीन पर परिश्रम करके अपने पसीने की कमाई खाए। एक प्रवचन सभा में जब उन्होंने 'भूमि- दान की अपील की, तो एक व्यक्ति उठकर उनके पास आया और उसके जेब में जितना रुपया- पैसा था सब निकालकर सामने रख दिया और कहा- ''बाबा, आप यह रुपया गरीबों को बाँट दीजिये।''

विनोबा- ''भाई, मैं गरीबों को लज्जित करना नही चाहता। इस 'रुपया ने ही तो सारी खराबी फैलाई है। गरीबों को रुपया बाँटने से काम नही चलेगा। अगर आपको गरीबों से सहानुभूति होती है, तो आप इसी रुपया से थोडी़ जमीन खरीदकर गरीबों को दे डालिये। उस पर वे मेहनत करेंगे और अपना पसीना बहाकर फसल पैदा करेंगे उसमें उन्हे शान मालूम होगी। पैसा बाँटने से तो उनकी शान में बट्टा लगेगा।''

एक मुसलमान भाई से विनोबा की भेंट हुई तो उनसे भी कहा- ''आप गरीबों के लिए अपनी जमीन में से हिस्सा दीजिये।'' उन्होंने जबाब दिया -कितना हिस्सा दूँ ?'' विनोबा- ''छ्ठा हिस्सा दीजिये।'' ''छठा हिस्सा ही क्यों ?? उसके पीछे क्या उसूल है ?'' विनोबा -घर में अक्सर पाँच भाई होते है। मैं छठा भाई बनकर हिस्सा माँगता हूँ।'' उन सज्जन ने कहा- आपका कहना बिल्कुल ठीक है। हम लोग पांच भाई हैं। लेकिन हमारे यहाँ (मुसलमानों में )) बहनों का भी हक माना गया है। मेरी दो बहिनें हैं।" विनोबा- " अगर आप सात भाई- बहन हैं, तो मैं आठवाँ हुआ। मुझे आप आठवाँ भाग दें।" उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक अपनी जमीन का आठवाँ भाग 'भूदान' में दे दिया। विनोबा जब तैलंगना के कम्युनिस्टों से मिले तो उनको समझाया कि -तुम लोग रात मेम क्योम लुटते हो ?? मेरे साथ आओ तो मै तुम्हें बताऊँगा कि दिन- दहाडे़ किस तरह लूटा जाता है ?'' और सचमुच उन्होंने दो- चार दिन में ही अपनी बात को यथार्थ करके दिखा दिया- एक दिन प्रवचन में एक भाई ने उठकर कहा- मैं एक एकड़ जमीन भू- दान के लिए देना चाहता हूँ ।'' विनोबा- आपके पास कुल कितनी जमीन है ?? ''लगभग तीन सौ एकड़ होगी ।'' विनोबा- फिर भी मुझे केवल एक हि एकड़ क्यों देना चाहते है ?? इतना कम देने से आपकी बदनामी होगी। मैं गरीबों और अमीरों दोनों की इज्जत बढाना चाहता हूँ ।। अगर मुझे कोई आश्रम बनाना होता तो मैं आपसे थोडी़ जमीन ही ले लेता लेकिन मैं तो गरीबों का दरिद्र नरायाण का प्रतिनिधि हूँ ।। मुझे तो उनका हक चाहिए।'' इस प्रकार समझाने से वे एक बयाज तीस एकड़ जमीन दे गये ।। इसी प्रकार बिहार की एक चीनी मिल क योरोपियन मैनेजर मिलने को आया तो उसने कहा- ''बाबा ! मेरा एक फार्म है। उसकी पचास एकड़ जमीन मैं भूदान मे देता हूँ।'' विनोबा- ''आपके फार्म में कुल कितनी जमीन है ?'' मैनेजर- ''फार्म में ६००एकड़ जमीन है ।'' विनोबा- ''तो पचास एकड़ मुझे और चाहिए। जमीन का छठा हिस्सा मैं चाहता हूँ।'' मैनेजर -- ''कोई बात नही आप इसे मेरी पहली किश्त मान लीजिए।'' बाबा ने उनकी बात स्वीकर की। साथ ही यह 'प्रार्थना' भी की कि आप अपनी मिल और फार्म में मजदूरों को भी साझीदार मानिए और उनके साथ समानता का व्यवहार कीजिए ।। इसी से आपकी और उनकी उचित रुप में उन्नती हो सकेगी।

इस तरह लगातार १४- १५ वर्ष तक समस्त देश का पैदल भ्रमण करके विनोबा ने लाखों गरीबों की व्यवसथा करने के साथ ही भारतीय जनता की दशा का निरीक्षण किया और उसकी समस्या को समझा ।। उन्होंने देखा जहाँ गरीबों को साधनों की कमी और उच्च वर्गों की असहानुभूति के कारण उनको पतित अवस्था में रहना पड़ता है, वहाँ उनकी अपनी त्रुटियाँ भी उनको दरिद्र्ता और निर्बलता की दशा में ग्रस्त रखने की जिम्मेदारी हैं। इसलिए उन्होंने गरीबों को भूमि दिलाने के साथ ही उनसे दुर्व्यसनों के त्याग,मितव्ययिता,सहयोगी प्रवृतियाँ, अशिक्षा उन्मूलन आदि की प्रति़ज्ञायें भी कराईं उन्होंने उनको समझाया कि अनकी आपस की फूट, मुकदमेबाजी और शराबखोरी की बजह से ही उनको उन्नति का अवसर नही मिलता और उनको सीमित साधन भी हानिकारक प्रवृत्तियों में बरबाद हो जाते हैं। इसलिए उनको यदि 'भूदान के द्वारा लाभ उठाना है तो उनको अपना सुधार भी करना होगा। दोष और दुर्गुणों को त्यागकर हि वे सुखी- जीवन के अधिकारि बन सकेंगे।

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