समर्थ गुरु रामदास

दान लेने में अरुचि

<<   |   <   | |   >   |   >>
समर्थ गुरु के बड़े भाई श्री श्रेष्ठ भी अपनी जन्मभूमि जांब- ग्राम में रहकर भक्ति-मार्ग का प्रचार करते रहते थे। जब उनको अपना शरीर शिथिल होता जान पड़ा तो उन्होंने पत्र लिखकर समर्थ को बुलाया। समर्थ वहाँ गए और एक महीने तक अपने भाई के साथ धर्म- चर्चा करके लौट आए। इसके कुछ ही समय पश्चात् श्रेष्ठ का स्वर्गवास हो गया और उनके दोनों पुत्रों को समर्थ ने अपने पास बुला लिया। जब यह समाचार महाराज शिवाजी ने सुना तो वे समर्थ के आश्रम में आए और उन्होंने इच्छा प्रकट की कि जांब '' तथा अन्य कुछ गाँव मिलाकर श्रेष्ठ के पुत्रों के नाम कर दिए जाएँ जिससे वे पारिवारिक राममंदिर की व्यवस्था करते रहें और अपना खर्च भी चलाते रहें। समर्थ गुरु ने कहा- कि अभी कोई जरूरत नहीं है, फिर देखा जायेगा। इससे शिवाजी महाराज दुःखी होकर कहने लगे- 'मालूम होता है कि भगवान् राम की सेवा करना मेरे भाग्य में नहीं है। '' तब समर्थ गुरु ने आज्ञा दी कि, ''अच्छा, इतना प्रबंध कर दो कि जिससे राम मंदिर की व्यवस्था और वहाँ आने वाले साधु- संतों का सत्कार होता रहे। '' तत्पश्चात् राज्य की ओर से तेंतीस गांव मंदिर के नाम लगा दिए गए, जिससे कितने ही धर्मोत्सव सदैव मनाए जाते रहे।

राष्ट्र- धर्म का प्रचार समर्थ गुरु रामदास की सबसे अधिक महत्ता इसी कारण मानी जाती है कि जहाँ अन्य संत−महात्माओं ने अधिकतर धर्म, उपासना, भजन अथवा नीति और चरित्र का उपदेश दिया, वहाँ इन्होंने जनता को देश, जाति, समाज की रक्षा के लिए विशेष रूप से प्रेरणा दी। वैसे तो उन्होंने उत्तर भारत और मध्य- प्रदेश के अनेक स्थानों में मठों की स्थापना की, जो अभी तक रामदासी मठ '' के नाम से प्रसिद्ध हैं। पूर महाराष्ट्र के गाँव- गाँव में उन्होंने ऐसा जाग्रति का मंत्र फूँका और संगठन कार्य किया कि उस प्रदेश की काया पलट ही हो गई। उस विदेशी पराधीनता के युग में जबकि अधिकांश भारतीय जनता भयभीत और निराश बनी हुई जैसे−तैसे समय काट रही थी। महाराष्ट्र में श्री समर्थ गुरु ने राष्ट्रीयता की जाला प्रज्ज्वलित कर दी। यही कारण है कि जहाँ राजस्थान के वीर- क्षत्रिय एक- एक करके मुसलमान शासकों से दबते चले गए और बहुत- से तो उनके सहायक अनुयायी बन गए वहीं महाराष्ट्र में महाराजा शिवाजी ने हिंदुत्व का झंडा गाढ़ दिया और विदेशी शासक को ऐसा जोरदार धक्का लगाया जिससे उसकी जड़ हिल गई।

यह सब प्रभाव श्री समर्थ गुरु के उपदेशों और प्रचार- कार्य का ही था, जिसने वहाँ की समस्त जनता को उद्यत और संघबद्ध करके, शिवाजी महाराज की सहायतार्थ खड़ा कर दिया। राजस्थान के शासक के क्षत्रिय सैनिक वीर शस्त्र- संचालन में निपुण अवश्य थे, पर वहाँ की जनता सर्वथा उदासीन और निष्क्रिय थी। यही कारण था कि सर्वथा नए और अल्प साधन युक्त होने पर भी महाराज शिवाजी औरंगजेब जैसे प्रसिद्ध सम्राट मुकाबले में टिके रहे और इतनी सफलता प्राप्त कर सके, जिसके परिणामस्वरूप अंत में मुगलों के शासन की जड़ ही उखड़ गई। समर्थ गुरु केवल मुसलमानों के शासन को ही अनुचित नहीं मानते थे, वरन् अंग्रेज, डच, पोर्तगीज आदि की वृद्धि को भी हानिकारक मानते थे। वे भली प्रकार समझते थे कि देश का कल्याण किसी विदेशी के शासन में नहीं हो सकता उसके लिए स्वराज्य और स्वधर्म का होना अनिवार्य है। उनके हृदय में यही भावना सदैव बनी रहती थी। एक बार जब वे अपने बड़े भाई द्वारा 'मात्रा गई मनौती की के लिए "पारघाट '' में देवी की पूजा करने गए तो वहाँ भी उन्होंने के सम्मुख यही प्रार्थना की- तुझा तूँ बाढ़वी राजा, शीघ्र आम्हाँचि देखतां। दुष्ट संहारिले भागें, ऐसे उदंड एकतो।। परंतु रोकडें कोही। मूल सामर्थें दाखवीं।। अर्थात- 'हे माता! इस राजा (शिवाजी महाराज) का उत्कर्ष तू हमारे सामने ही कर दे। मैंने सुना है कि प्राचीन समय में अनेक दुष्टों का दमन किया है। लेकिन इस सामर्थ्य का कुछ प्रभाव मुझे इस समय तो दिखला। ''

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118