समर्थ गुरु रामदास

सामाजिक कर्तव्यों का पालन

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समाज में रहने वाले व्यक्तियों को अपना आचरण ऐसा रखना चाहिए कि जिससे अपनी उन्नति और भलाई के साथ समाज का भी हित हो। जो व्यक्ति केवल अपने हित का ध्यान रखते हैं और अपने लाभ के लिए दूसरों का अनहित करने में संकोच नहीं करते, उनको समाज का शत्रु ही समझना चाहिए। इसलिए समर्थ गुरु के उपदेशों का सार यही है कि- स्वयं जियो और दूसरों को जीने दो। '' उन्होंने अनेक अन्य संतों के समान यह नहीं कहा कि, स्वयं कष्ट सहन और सब तरह त्याग करते हुए दूसरे लोगों को ही पहुँचाओ। इस तरह का उपदेश सुनने में भले ही बड़ा,ऊँचा और आदर्श का जान पड़े, पर वह साधारण गृहस्थों के लिए उपयोगी नहीं हो सकता। इसलिए समर्थ गुरु ने वही उपदेश दिया है, जो वास्तव में व्यावहारिक हो सके। वे कहते थे- 'पहले स्वयं आवश्यकतानुसार भोजन कर लेना और तब बचा हुआ अन्त दूसरों को बाँटना चाहिए। इसी प्रकार मनुष्य को पहले स्वयं ज्ञान से तृप्त होना चाहिए और तब वह ज्ञान दूसरों को देना चाहिए। जो तैरना जानता हो उसे दूसरों को डूबने न देना चाहिए। पहले स्वयं उत्तम गुण ग्रहण करने चाहिए और तब वे गुण दूसरे लोगों को सिखलाने चाहिए। बिना स्वयं आचरण किए हुए जो बातें दूसरों को बतलाई जाती है, वे मिथ्या और व्यर्थ होती है। अपनी शक्ति को परोपकार में लगाना चाहिए, जिससे बहुत- से लोगों की भलाई हो सके। देखना चाहिए कि कौन दुःखी और पीड़ित है और यथाशक्ति उसकी सहायता करनी चाहिए। सबसे मधुर भाषण तो करना ही चाहिए। दूसरों के दुःख में दुःखी होना और उनके सुख में सुखी होना चाहिए और सब लोगों की प्रेमयुक्त बातें कहकर अपने साथ मिला लेना चाहिए। ''

'दूसरों के मन का भाव समझकर उसके अनुसार काम करना चाहिए और लोगों को अनेक प्रकार से परखते रहना चाहिए। कम बोलना और तुरंत उत्तर देना चाहिए। कभी क्रोध न करना और सदैव क्षमा- भाव बनाए रखना चाहिए। यदि बराबर दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार किया जाए तो वे लोग भी इसको अनुभव कर लेते हैं। जो सबसे विनीत भाव रखता है, उसे किसी बात की कमी नहीं रहती। चाहे अपना काम हो और चाहे पराया हो, सबको पूरी तरह करना चाहिए। अवसर पड़ने पर काम से चूकना या घबड़ाना ठीक नहीं। यह तो प्रत्यक्ष देखने में आता है कि अच्छी बात कहने से सब लोगों को होता है। दूसरों को भी अपने ही समान समझना चाहिए। बातें सबको बुरी लगती हैं तो फिर ऐसी बुरी या कठोर बात क्यों कही जाएँ?''

इसका तात्पर्य यही है कि जिस मनुष्य को समाज में रहना है, उसे अपना व्यवहार और आचरण ऐसा रखना चाहिए. जो सबको अच्छा लगे और वास्तव में लोकोपकारी हो। इसके लिए लोकमत को जानना और उसका आदर करना भी बहुत आवश्यक है। जो मनुष्य लोकमत की उपेक्षा करता है, वह प्राय: उद्दंड और स्वेच्छाचारी हो जाता है। ऐसा व्यक्ति कभी समाज के लिए हितकारी नहीं हो सकता, वरन वह किसी न किसी तरह समाज की हानि करने वाला ही होता है। इसलिए समर्थ गुरु ने आदेश दिया है कि, मनुष्य को लोकमत के विरुद्ध न चलना चाहिए। वे यह भी नहीं कहते कि समाज में मूढ़तावश प्रचलित हो गई कुरीतियों या हानिकारक परंपराओं का पालन किया जाए, पर उनको मिटाने के लिए भी इस प्रकार व्यवहार करना चाहिए, जिससे व्यर्थ का विरोध- भाव उत्पन्न न हो।

ऐसी अवस्था में लोगों को समझा -बुझाकर और अपना उदाहरण दिखाकर ही सुधारने का प्रयत्न करना चाहिए। इस समर्थ गुरु के उपदेशों का विवेचन करते हुए एक विद्वान् ने कहा है ''श्री समर्थ ने आचार और विचार दोनों की ही पर बहुत जोर दिया है। मनुष्य को जन्म से मरण पर्यत अपना आचार- विचार कैसा रखना चाहिए? इसका वर्णन उन्होंने अपने मुख्य ग्रंथ दास बोध '' में किया है। ज्ञान की सबसे अधिक महिमा बतलाई गई है '' आचार- विचार की उसी के द्वारा होती है। इस ज्ञान की प्राप्ति का उपाय '' सत्संग, अध्ययन और सेवा बतलाया है। बात भी बहुत ठीक है। लोग अनेक प्रकार के ज्ञान प्राप्त करते हैं, पर समर्थ गुरु उन ज्ञानों को ज्ञान नहीं मानते, जब तक उनका आधार अध्यात्म न हो और यदि विचारपूर्वक देखा जाए तो वह ज्ञान है ही किस काम का, जिससे इहलोक और परलोक दोनों न सुधरें?''

'प्राय: कहा जाता है कि आधुनिक पाश्चात्य जातियों ने ज्ञान का भंडार बहुत अधिक बढ़ाया है- उसकी अनेक प्रकार से वृद्धि की है, पर उस ज्ञान का उपयोग कैसे कामों में हो रहा है? एक−दूसरे को काटने, मारने, लूटने और दबाने में ही न! तो फिर ऐसे ज्ञान से मानव- जाति का उपकार आ या अपकार '' ऐसे ज्ञान के होने से तो न होना ही अच्छा है। फिर कुछ ज्ञान ऐसा भी होता है, जो अपने और दूसरों के उपकार के लिए उपयोगी हो सकता है। हम ऐसा ज्ञान साधारण शिक्षकों और पुस्तकों आदि से प्राप्त कर लेते है, पर फिर भी उसका ठीक- ठीक उपयोग करना नहीं जानते। इसीलिए श्री समर्थ ने कहा कि सच्चा और वास्तविक ज्ञान वही है, जो इहलोक और परलोक के साधन में पूर्ण सहायक हो सकें। ''

हमारे धार्मिक आचार्य और संतपुरुषों ने भी ज्ञान और आचार-विचार की शुद्धता के विषय में बहुत लिखा है, पर उन्होंने उसको ऐसा अलौकिक और सीमित रूप दे।दिया है कि वर्तमान काल के मनुष्यों को वह व्यावहारिक नहीं जान पड़ता। आध्यात्मिक और दार्शनिक दृष्टि से यद्यपि उनकी बातें बहुत उच्च कोटि की हैं, पर जीवन- संघर्ष और लौकिक प्रगति की दृष्टि से उनको सर्व साधारण के लिए पालन कर सकने योग्य नहीं माना जाता। समर्थ गुरु रामदास के उपदेशों की यह विशेषता है कि उन्होंने आज से तीन- सौ वर्ष पहले व्यक्ति, समाज और राज्य के कर्तव्यों का विवेचन किया, वह वर्तमान समय में भी उपयोगी जान पड़ता है। उनके धर्मग्रंथ 'दासबोध '' की अधिकांश शिक्षाएँ जैसी औरंगजेब के शासन काल में लाभदायक थी वैसी ही इस एटम के युग '' में भी सुख और शांति को प्राप्त करने में सहायक हो सकती हैं।

श्री समर्थ की इस विशेषता का कारण यह है कि उन्होंने जो कुछ कहा है, वह केवल प्राचीन को पढ़कर या उस समय के धार्मिक साधु -महात्माओं की बातें सुनकर नहीं लिखा गया है, वरन् वर्षों तक देश में भ्रमण करके तथा समाज और राज्य की स्थिति का गंभीर अनुभव प्राप्त करके लिखा गया है। यही कारण है कि अन्य धर्माचार्य और महात्मा जहाँ लोगों को यह उपदेश देते थे कि मनुष्य को भगवान के निमित्त तन -मन- धन सबका त्याग कर देना चाहिए और सांसारिक कष्टों को 'भगवान' की कृपा '' समझकर सहर्ष ग्रहण करना चाहिए, वहाँ समर्थ गुरु ने कहा कि 'मनुष्य को पहले अपना उदर पोषण अच्छी तरह से करके शेष सामग्री को समाज के लिए परोपकारार्थ व्यय करना चाहिए। ''

यदि विचार किया जाए तो यही व्यावहारिक मार्ग माना जा सकता है। यदि हम स्वयं रहकर दूसरों का पेट भरते रहेंगे तो हमारा वह परोपकार '' दिन चल सकेगा? प्रत्यक्ष है कि उस दशा में हम दिन पर दिन निर्बल और कार्य- शक्ति से हीन होते चले जायेंगे और थोड़े ही दिनों में ऐसी स्थिति आ जायेगी कि हम न तो अपना निर्वाह कर सकेंगे और न दूसरों का उपकार। इसलिए सामान्य अवस्था में वह उपदेश अव्यावहारिक और काल्पनिक ही रहता है। विशेष परिस्थिति में जैसी भामाशाह आदि के सामने उपस्थित हुई थी, उसे एक महान् आदर्श अवश्य मानना चाहिए और राष्ट्र- रक्षा या समग्र समाज की किसी कठिन समस्या के अवसर पर उसके अनुसार आचरण भी करना चाहिए, पर नित्यप्रति के जीवन में उसके नाम पर स्वयं अभावग्रस्त जीवन व्यतीत करना बुद्धिमानी की बात नहीं कही जा सकती। इसीलिए समर्थ गुरु रामदास ने सदैव यही उपदेश दिया है कि, मनुष्यों को वही मार्ग ग्रहण करना चाहिए, जो इहलोक और परलोक दोनों में सहायक हो, जिससे व्यक्ति और समाज दोनों सुखी हो सकें।

इतना ही नहीं इहलोक' और परलोक' का अर्थ बाह्य और अंतरंग सुख-शांति से भी है। वर्तमान समय में जो लोग परलोक का अर्थ स्वर्ग- नर्क समझकर उस पर अविश्वास करने लगते हैं, उनको समझना चाहिए कि लौकिक का अर्थ बाहरी सुख- साधन और पारलौकिक का अर्थ आंतरिक या आत्मिक सुख- शांति भी है। मनुष्य को उद्योग और परिश्रम द्वारा बाह्य जीवन में सुख, आराम के साधन प्राप्त करने चाहिए और परोपकार तथा सेवा- धर्म द्वारा आंतरिक जीवन को उच्च बनाना- आत्मिक शांति प्राप्त करना चाहिए। इन दोनों का उचित समन्वय करने से ही व्यक्ति और समाज की, समग्र राष्ट्र की उन्नति हो सकती है। यही समर्थ गुरु के उपदेश का रहस्य है।

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