जगदगुरु शंकराचार्य

शिक्षा-दीक्षा

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बाल्यावस्था से ही शिवगुरू ने अपने बच्चे में श्रेष्ठ संस्कार डालना आरंभ किया।उसे भूत- प्रेत की कहानियाँ सुनाने की अपेक्षा शिवगुरू उसे तत्कालीन समाज में छाई हुई दुर्व्यवस्था की रोमांचकारी घटनाएँ सुनाया करते और बच्चे के धार्मिक संस्कार परिपुष्ट हों- इसके लिए ईश्वर उपासना, आत्मा, धर्म,दर्शन की जानकारी भी दिया करते थे। सदाचार और सद्गुणों की ओर की ओर प्रेरित करने के लिए रामायण,महाभारत की कथाएँ और महापुरूषों के जीवन चरित्र सुनाया करते। पिता की दीक्षा पुत्र को बलवान् आध्यात्मिक संस्कारों के रूप में मिलने लगी।

इसी बीच शिवगुरू का देहावसान हो गया। माँ कामाँक्षी देक्षरेक्ष करने लगी। शिवगुरू के एक मित्र थे- विष्णु स्वामी। एक दिन उन्होने कामाँक्षी से जाकर कहा। भाभी जी! भाई श्री शिवगुरू बच्चे में जैसे उच्च संस्कारों का प्रकाश डाल गये हैं, उसकी शिक्षा भी उसी के अनुरूप होनी चाहिए। अलवाई के तट पर आचार्य ब्रह्मस्वामी के गुरूकुल है। वे स्वयं भी बड़े तेजस्वी, विद्वान् हैंऔर समाज में नैतिक सदाचार की समुन्नति के लिए एकाकी भाव से लगे रहते हैं। इस गुरूकुल में शिक्षा पाए हुए छात्र बड़े मेधावी और प्रतापी निकलते हैं। बालक शंकर को वहीं पर शिक्षा ग्रहण कराने के लिए भेजना चाहिए।

कामाक्षी ने अपना मोह व्यक्त करते हुए कहा- ‘‘भैया, आपका कहना तो ठीक है,पर मेरे एक ही बच्चा है, इसे यहीं अपने पास रखूँगी। जो- थोड़ा बहुत पढ़ लेगा, वहीं उसको काफी है। मंदिर है इसी में पुरोहित हो जाना हैऔर मुझे कोई लालसा नहीं। मुझे बच्चे को बड़ा नहीं बनाना। यहीं सुख से रहेगा, वहाँ कौन इसकी देख भाल करेगा?’’

विष्णु स्वामी ने हँसकर कहा-‘‘भाभी जी। यह आप क्या कह रही हैं, आप भैया होते तो ऐसा न कहते। वे बच्चे को उच्च गुणों से ओत- प्रोत देखना चाहते थे।इसके लिए गुरूकुल जैसे संस्कारवान् वातावरण ही उपयुक्त हो सकता है। वहाँ नित्य अग्निहोत्र होता है,अक्षर अभ्यास ही नहीं कराया जाता, बल्कि बच्चों में सच्चाई, ईमानदारी, चरित्र, कर्मठता,साहस, श्रम, स्वावलंब आदि महान् गुणों का विकाश किया जाता है।यदि कुछ कठिनाईयाँ और अभाव वहाँ होंगे तो उनसे भी बच्चों का जीवन निर्माण ही होता है। कइिनाईयों में बच्चे की विचार करने की और उचित- अनुचित का निष्कर्ष निकालने की क्षमता जाग्रत् होती है, लौकिक परिस्थतियों का ज्ञान विस्तीर्ण होता है, इनका बच्चों के भावी जीवन पर असर पड़ता है।वे यदि गृहस्थ होते हैं तो कुशल गृहस्थ, पुरोहित होते तो तेजस्वीऔर विद्वान मार्गद्रष्टा और यदि राज-कर्मचारी हुए तो सच्चाई, इ्रमानदारी सेवा-भावना से काम करते हुए प्रजापालन करते हैं। विश्व, समाज और आत्म कल्याण सभी द्रष्टियों से इस प्रकार की शिक्षा सार्थक ही होती है। इसलिए आप अपने बच्चे में संकुचित मोंह की सीमा में बाँधकर उसका अकल्याण न कीजिए।

बालक ने भी विष्णु स्वामी की ही समर्थन किया- हाँ, माँ ! मुझे तू गुरूकुल भेज। वहाँ मैं खूब मेहनत से पढ़ूँगा और तेरा मुख उज्जवल करूँगा। माँ ने भी अनुभव किया कि, बच्चों को गुण संपन्न और प्रतिभाशाली बनाने के लिए गुरूकुल ही उचित स्थान है, इसलिए वह भी विष्णु स्वामी के कथन पर सहमत हो गई।विष्णु स्वामी ने बालक को गुरूकुल पहुँचाया।बालक शंकर वहाँ परिश्रम और मेहनत के साथ विद्याध्ययन करने लगा।

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