शंकराचार्य ने ज्ञान की महत्ता प्रतिपादित की और कहा कि- ‘‘यह ज्ञान ही मनुष्य की जीवात्मा को पवित्र करेगा। भक्ति और कर्म में समन्वय के लिए ज्ञान आवश्यक है। ज्ञान से बंधन- मुक्ति मिलती है, ज्ञान ही वर्तमान जीवन को क्लेश और कष्टों से बचाने में समर्थ होता है।’’ वे कहा करते थे ‘‘मनुष्य परमात्मा का ज्येष्ठ पुत्र है, उसको परमात्मा ने विचार, वाणि, ज्ञान , बुद्धि, संकल्प सुनने, देखने बातचीत करने के ऐसे सर्वांगपूर्ण साधन दिए, जिनका समुचित सदुपयोग करके मनुष्य अपने आप ब्राह्मी स्थिति तक पहुँच सकता है। मनुष्य पाप, कामना और वासना की अनियंत्रित मर्यादा के कारण लक्ष्य- भ्रष्ट हुआ और मनुष्य-जन्म जैसे ईश्वरीय उपहार को उसने नारकीय- यंत्रणापूर्ण बना डाला। उसे दुष्कर्मो से ऊपर उठकर अपनी आत्मा का विकाश करना चाहिए। अध्यात्म के नाम पर लोगों का परावलंबी नहीं होना चाहिए। अपनी आत्मा का उद्धार आप करना चाहिए।
इस तरह अमृतोपम उपदेशों से जन-जीवन को प्रकाश की नई दिशा देते हुएजगद्गुरू काश्मीर पहुँचे। काश्मीर में भगवती सरस्वती का एक अद्वितीयहस्तकला का प्रतीक विशाल मंदिर था, जिसे प्रतिक्रियावादी तत्वों ने, अज्ञाना और प्रमादियों ने बंद करा दिया था। शंकराचार्य ने लोगों को एकत्रित किया और समझाया कि संसार में ज्ञान पवित्रतम विभूति है। सद्ज्ञान से बढ़कर आत्म- कल्याण का और कोई मार्ग नहीं। सरस्वती के यह दिव्य मंदिर ही भगवान् के सर्वश्रेष्ठ निवास स्थान हैं, जिन्हें बंद करना धर्म की भारी कुसेवा है।
श्रद्धालु जन्ता उमड़ पड़ी।चिरकाल से दबी पड़ी जन- भावनाएँ उमड़ पड़ी। पुजारी ने द्वार खोल दिए। मंदिर की साज, सफाई और टूट-फूट की मरम्मत कराने के बाद वहाँ एक विशाल आयोजन रखा गया। जगद्गुरू के आवाहन पर सैकड़ो नर-नारियों ने दान दिया, पुस्तकें दी, सामान जुटाए और सरस्वती मंदिर के रूप में एक विशाल पुस्तकालय की प्रतिस्ठा की गई। इस पुस्तकालय में प्राचीन ग्रंथों की दुर्लभ पांडुलिपियाँ भी संग्रहित थीं, जिनका अध्ययन करने के लिए अनेक देशों के विद्वान्, पंडितयहाँ आया करते थे। शंकराचार्य के प्रयत्नों से यह सरस्वती पुस्तकालय नालंदा और तक्षशीला पुस्तकालयों से भी समुन्नत और विशाल बना। उसमें कई लाख पुस्तकें थीऔर प्रतिदिन सैकड़ो लोग उसमें विद्याध्ययन किया करते थे।
सहयोगियों की तलाश- जगद्गुरू बद्रिकाश्रम में बैठे विचार कर रहे थे कि, एक अध्यात्मवादी व्यक्ति की शक्ति बहुत बड़ी होती है, पर आज सारे देश में आज्ञानांधकार इतना व्याप्त हो चुका है कि, उसे एकाकी प्रयतनों से समेटना कभी संभव नहीं। राम को भी हनुमान् और सुग्रीव का सहारा लेना पड़ा था। कृष्ण के भाई बलराम प्रत्येक युद्ध में उनके साथ रहे थे। बुद्ध ने अनेक शिष्यों का सहयोग लिया था। योग्य, समर्थ और प्रभावशाली व्यक्तियों का सहयोग प्राप्त करना चाहिए। उन दिनों महिष्मती के आचार्य मंडल मिश्र सारे उत्तरी भारत में विद्वता के लिए सुविख्यात थे। शंकराचार्य उन्हें प्रभावित कर अपना सहचर बनाने के लिए उधर ही चल पड़े।
आचार्य प्रवर ने शंकराचार्य का स्वागत किया और उसके बाद आने का कारण पूछा। शंकराचार्य ने कहा- आचार्यवर, आज देश की जैसी स्थिति है, हम आप सब देख रहे हैं। मैं अपना सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र जननी के सेवा में समर्पित कर दिया है, तथापि अन्धकार इतना प्रगाढ़ है कि अनेक प्रकाशमान्, प्रखर प्रतिभासंपन्न व्यक्तियों की आवश्यकता है और यह योग्यता मुझे आप में दिखाई दे रही है। ब्राह्मण श्रेष्ठ! हम ब्राह्मणों का कर्तव्य है कि समाज को सुसंस्कृत और सुव्यवस्थित रखना। इसलिए हमें आत्म-कल्याण तक ही सीमित न रहकर श्ंकापूर्ण पीड़ित मानवता की सेवा के लिए उत्सर्ग करना चाहिए। यह सारा समाज ही परमात्मा है,उसकी निष्काम सेवा से क्या आत्म- कल्याण का लक्ष्य पूरा नहीं कर सकते?
मंडल मिश्र ने कहा-‘‘आप ठीक कहते हैं, महामहिम आचार्य! किंतु परमात्मा ने यहाँ सबको अलग-अलग पैदा किया है। मनुष्य का उत्तरदायित्व अपने आप तक सीमित है। दूसरों के झगड़े में कौन पड़े? जो जैसा करता है वैसा भरता है,इसमें हम और आप क्या कर सकते हैं?’’ ‘‘ समाज सेवा ही परमात्मा की सेवा है’’-यह गुरू शंकराचार्य का कथन था। विराट् ब्रह्मांड ही परमात्मा है, प्रत्यक्ष की उपासना उपयोगी ही नहीं अनिवार्य भी है,और मंडल मिश्र का तर्क यह था कि-‘‘व्यक्ति दूसरे के कल्याण का जवाबदार नहीं।’’ इसी विषय पर उनमें काफी देर तक विवाद होता रहा। आखिर मध्यस्थता कराने का दोनों ने निश्चय किया। निर्णय के लिए मंडल मिश्र की विदुषी धर्मपत्नी देवी भारती चुनी गई।
विशाल जन-समुदाय, राज्य कर्मचारी और विद्वान् व्यक्तियों की भरी सभा में मंडल मिश्र और शंकराचार्य में विचार- विनिमय प्रारंभ हुआ। यह कोई शास्तार्थ नहीं था। केवल शर्त यह थी कि- यदि मंडल मिश्र शंकराचार्य केविचारों से सहमत हो जाते हैं, तो वे उनका अनुचरत्व स्वीकार कर लेंगे और उन्हीं की तरह अपना जीवन- क्रम बना लेंगे।
विचार-विमर्श कई दिन तक चला। अंत में देवी भारती ने शंकराचार्य के पक्ष का समर्थन कर उन्हें विजयी घोषित कर दिया। उन्होंने स्वयं भी अपने देश के लिए आत्म त्याग किया और अपना शेष जीवन देश में व्याप्त बुराइयों के उन्मूलन और वेदांत के प्रचार में लगाया।