देश-दर्शन की यात्रा के संबंध में उन्होंने अपनी ‘‘पुस्तक नोट्स ऑन सम वांडरिंग विद स्वामी विवेकानंद’’ में लिखा है- ‘‘अल्मोड़ा से मुझे अनुभव होने लगा कि मानो मेरा स्कूल जाना आरंभ हो गया है। ठीक इसी भाँति जैसे किसी छात्र को विद्यालय जाना अटपटा लगता है। यहाँ भी मुझे कष्ट की अनुभूति हुई, परंतु दृष्टि का अंधापन तो नष्ट होना ही चाहिए।’’
तीर्थ-यात्रा के अंत में उन्होंने एक पत्र में लिखा- "मुझे दिखाई पड़ता है कि मैं देवात्मा द्वारा उन्मुक्त कर दी गई तथा मुझे अनुभव होता है कि किसी विचित्र ढंग से ही क्यों न हो, इस तीर्थ-यात्रा के परिणामस्वरूप मैं उनके (स्वामी) तथा भगवान् के अधिक निकट पहुँच गई हूँ।"
स्वामी जी ने उन्हें शक्ति-साधना की ओर आकर्षित किया। कश्मीर में क्षीरभवानी की उपासना के बाद जो परिवर्तन हुआ, उसके संबंध में निवेदिता ने लिखा-
"आज उनकी भाव-भंगिमा में आमूलचूल परिवर्तन था। शांतिपूर्वक वे हम सभी के पास से आर्शीवाद देते हुए हमारे सिरों पर सुनहरे पुष्प रखते हुए चले गये। हममें से एक को पुष्पहार भेंट करते हुए उन्होंने कहा- "मैंने इनको माँ के चरणों में समर्पित कर दिया है। कहने की आवश्यकता नहीं कि-यह "एक" निश्चय ही निवेदिता स्वयं ही थीं।"
शिक्षा के संबंध में उन्होंने लिखा- "आघुनिक का राष्ट्रीयकरण तथा पुरातन का आघुनिकीकरण और वह भी इस ढंग से कि इसमें सकल का दर्शन हो सके, यही उनकी सुलझन थी .....।" स्वामी जी इस विचार-विमर्श में विशेष रुचि लेते थे। इन हरिकल्पनाओं के संबंध में घंटो विचार करते थे। इसी सागर मंथन का परिणाम थी भगिनी निवेदिता की पुस्तक- "हिंट्स ऑन ऐजूकेशन इन इंडिया’ जो इसी चर्चा का निष्कर्षण मात्र ही कही जा सकती है।
बैलूरमठ के लिए धन संग्रह करने के हेतु जब स्वामी जी ने कार्यक्रम बनाया, तब निवेदिता को भी साथ ले जाना अनिवार्य हो गया। समुद्र यात्रा करते समय स्वामी जी से जो चर्चाएँ होती रहीं, उनके बीच वे अनेक उपाख्या भी कहा करते थे। उनको अपनी भाषा में लिखकर कर निवेदिता ने एक पुस्तक भी तैयार कर दी, जो कि "क्रेडिल टेल्स ऑफ हिंदूइज्म" के नाम से विख्यात हुई। साथ ही डॉ० जगदीशचंद्र बसु की प्रसिद्ध पुस्तक "लिविंग एंड नॉन लिविंग" का संपादन किया।
बंगाल में क्रांतिकारी जीवन के संबंध में उन्होंने एक पुस्तक लिखी- "ऐग्रेसिव हिंदूइज्म" इसमें उन्होंने लिखा- "हमारा कार्य अब केवल रक्षा करना नहीं, बल्कि दूसरों को परिवर्तित करना है। एक-एक करके जो कुछ हमारे पास था, उसका रक्षण नहीं, वरन् जो हमारे पास कभी नहीं था, उसको भी विजित करने का हमारा दृढ़ निश्चय है। प्रश्न यह नहीं कि दूसरे हमारे विषय में क्या सोचेंगे, वरन् यह कि हम दूसरों के विषय में क्या सोचते हैं? क्या हमने सुरक्षित रखा है, यह विचारणीय नहीं है, वरन् यह कि क्या हमने छीनकर प्राप्त किया है? अब हम शपणागति की कल्पना नहीं कर सकते हैं, क्योंकि संघर्ष हमारी विजय का प्रथम चरण बन गया है।"
उन्होंने नार्वे देश में एकांत वास करके ईसाई मिशनरियों के विरुद्ध ‘‘लैंब एमंग वोल्वज’’ पुस्तक लिखी तथा दूसरी पुस्तक ‘‘वेव ऑफ इंडियन लाइफ’’ लिखने का प्रयास किया।
स्वामी स्वरूपानंद के आकस्मिक निधन के कारण ‘‘प्रबुद भारत’’ के संपादकीय लेख लिखने का भार निवेदिता पर आ पड़ा। श्री अरविंद का ’’युगांतर’’ भी निवेदिता के सहयोग से चल रहा था। उनके ‘‘वंदे मातरम्’’ पत्र में निवेदिता के लेख नियमित रूप से निकलते थे। मद्रास के श्री तेरूमलाचार्य ने भी अपने पत्र ‘‘बाल-भारती’’ के संचालन का आग्रह निवेदिता से किया था, किंतु वे उसे स्वीकार न कर सकीं। इस प्रकार पत्रकारिता के क्षेत्र में भी निवेदिता ने काफी यश प्राप्त कर लिया था। यहाँ तक कि श्री रामानंद चटर्जी भी उन्हें गुरू मानते थे।
उड़ीसा के अकाल निवारण में अथक परिश्रम करने के कारण निवेदिता बहुत बीमार पड़ गई थीं, किंतु थोड़ा स्वस्थ होने पर उन्होंने अपनी लेखनी चलाना प्रारंभ कर दिया। ‘‘दी मास्टर एज आई सॉ हिम’’ तथा ‘‘क्रैडिल टेल्स ऑफ हिंदूइज्म’’ नामक प्रसिद्ध पुस्तकें उनकी इसी काल की देन है। इसी के साथ श्री जगदीशचंद्र की दूसरी पुस्तक "कंपेरेटिव इलेक्ट्रिक फिजिओलॉजी" का संपादन उन्होंने भी उन्होंने किया। इसके बाद लंदन की रॉयल सोसायटी के पत्र ‘‘ऐग्रेसिव हिंदूइज्म’’ में उनके लेखों में संबंधित लेख पुस्तकाकार रूप ग्रहण कर सके।
श्री अरविंद के पांडिचेरी जाने के बाद उनके चलाये हुए पत्रों के संपादन का भार भी निवेदिता के ऊपर आ पड़ा। इतना ही नहीं, किंतु श्री अरविंद के नाम से उन्हीं के लेख उनमें छपने लगे, जिससे लोगों को उनका अभाव नहीं खटकने पाया। भगिनी निवेदिता का एक और महान् कार्य भारतीय कला का उन्नयन था। उन्होंने सर्व प्रथम भारतीय चित्रकला के मौलिक तत्त्वों के पुनरुज्जीवन की आवश्यकता अनुभव कर उस दिशा में प्रयास किया। वे उस समय के प्रसिद्ध चित्रकारों को बराबर प्रोत्साहित करती रहती थीं।
उनकी साहित्य साधना बराबर चलती रहती थी। अपनी यात्राओं का वर्णन भी बड़े भावपूर्ण शब्दों में वे करती थीं। अपनी पुस्तक ‘‘केदारनाथ और बद्रीनारायण’’ में उन्होंने अपनी यात्रा का सजीव वर्णन किया है। अपने गुरू के प्रति अपने अंतिम कर्तव्य का पालन उन्होंने स्वामी जी से संबंधित पत्रों, भाषणों, लेखों आदि का संकलन कर किया, जो कि ‘‘लाइफ ऑफ स्वामी विवेकानंद बाइ हिज ईस्टर्न एंड वेस्टर्न डिसाइपल्स’’ में संग्रहीत है।
सन् १९११ में जबकि वे क्रियात्मक जीवन से विराम ले चुकी थीं तब भी उन्होंने अपनी लेखनी को विश्राम नहीं दिया और अपनी शेष पुस्तकें ‘‘फुटफॉल ऑफ इंडियन हिस्ट्री’’ तथा ‘‘स्टडीज फ्रॉम ऐन ईस्टर्न होम’’ को निमग्न रहती थीं, इसके अतिरिक्त इसी समय रामकृष्ण वचनामृत को भी संकलित कर डाला।