इस प्रकार राममोहन राय के धर्म सुधार- कार्य में उन्हीं के भाई- बंधु पंडितगण जहाँ तक बना, बाधायें डालते गये और उन्हें हर तरह से हानि पहुँचाने का प्रयत्न करते रहे। पर जो महापुरुष आत्मा की आवाज सुनकर लोक- कल्याण का व्रत ग्रहण कर लेते हैं, वे ऐसे विघ्नों से घबडा़ते नहीं और कष्टों को अपनी सच्चाई की परीक्षा मानते हैं। स्वयं राममोहन राय ने 'वेदांत सूत्र- भाष्य' के अंग्रेजी भाषांतर की भूमिका में लिखा है- "ब्राह्मण वंश में जन्म लेकर मैंने इस देश को सुधारने के लिए जो सत्य और ज्ञान का रास्ता पकडा़ है, उससे मेरे वे भाई- बंधु दुश्मन बन गये हैं, जिनका पेट मूर्खतापूर्ण रीति- रिवाजों के कारण ही पलता था। पर कुछ भी हो, मैं ऐसे ही धीरज और विश्वास के साथ सब कुछ सहूँगा और एक दिन ऐसा जरूर आवेगा, जब मेरी साधारण चेष्टा को लोग न्याय की दृष्टि से देखेंगे और कृतज्ञतापूर्वक उसे स्वीकार करेंगे। वे लोग मेरे लिए कुछ भी कहें, पर मुझे इस बात का सुख है कि मेरे हृदय की बात अनेक विचारशील लोगों तक पहुँची है और वे धीरे- धीरे इस प्रकाश की ओर बढ़ रहे हैं कम से कम इस सुख से तो मेरे विरोधी मुझे वंचित नहीं कर सकते।" उनका यह 'वेदांत- भाष्य' बहुत बडा़ ग्रंथ था, जिसे पढ़ने और समझने में अधिक समय और अधिक परिश्रम की आवश्यकता थी। इसलिए उसमें बतलाये गये सिद्धातों का अधिक लोगों को परिचय देने के विचार से उन्होंने उसका संक्षेप करके 'वेदांत- सार' नामक पुस्तक छपवाई। उसी समय उसका अंग्रेजी अनुवाद करके भी छपा दिया। इस पुस्तक का इगलैंड में भी काफी प्रचार हुआ और एक भारतवासी की ऐसी उच्चकोटि की योग्यता देखकर अंग्रेज लोग भी चमत्कृत हो गये। इस पुस्तक में परमात्मा के निराकार स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए राममोहन राय ने लिखा था- "परमात्मा बिना आकार और बिना वर्ण वाला है। वह इंद्रियों से नहीं जाना जा सकता। ऐसी दशा में उसकी मूर्ति आदि बनाकर यह कहना कि परमात्मा ऐसी शकल वाला है। एक प्रकार से उसकी हँसी उडाना है। 'मुंडक उपनिषद् में कहते हैं- "न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा नान्यैर्देवैस्तपसा कर्मणा वा।" अर्थात्- आँखों से या आँखों के अतिरिक्त वाणी आदि अन्य इंद्रियों से अथवा तप, शुभ कर्म आदि से उस ब्रह्म को नहीं जाना जासकता।" इसी प्रकार 'बृहदारण्यक' में बतलाया गया है- "अदृष्टो- दृष्टा अश्रुत श्रोता अस्थूलमनणुः" अथार्त्- वह परमात्मा किसी को दिखाई नहीं पड़ता, पर वह सबको देखता है, उसे कोई नहीं सुन सकता, पर वह सब कुछ सुनता है। वह स्थूल अथवा सूक्ष्म भी नहीं है।" राममोहन राय जनता के सम्मुख यह कहते थे कि निराकार ब्रह्म की उपासना करना मेरा बनाया हुआ कोई नया मत नहीं है, वरन् यही वेद और स्मृतियों का बतलाया प्राचीन मत है। समय के प्रभाव से लोग बाद में उसे भूलकर तरह- तरह के 'पंथ' बनाकर उन पर चलने लगे। पुराणों की कथायें सर्वथा सत्य नहीं मानी जा सकतीं, क्योंकि उनमें अनेक बातें असंभव हैं। पुराण तो मनोरंजन के साथ लोगों को सामान्य धर्म की शिक्षा देने के उद्देश्य से बनाये गये हैं। इस प्रकार जिस समय 'पंडित' नामधारियों ने वेद और शास्त्रों को एक अगम्य रहस्य बनाकर जनता को उनके ज्ञान रूपी प्रकाश से वंचित कर रखा था, तब राममोहन राय ने उनको सर्वसाधारण के सामने प्रकट करके, उनसे लाभ उठाने की प्रेरणा दी। उस समय के अधिकांश पंडित स्वयं ही वेदों से अपरिचित थे और लोगों में उन्होंने ऐसी ही भावना फैला रखी थी कि वेदों में भी दुर्गा, काली, शंकर, कृष्ण, राधा आदि की बातें हैं। जब राममोहन राय वेदों, उपनिषदों और स्मृतियों के कुछ चुने हुए मूल वाक्यों को बंगाली भाषा में अनुवाद सहित प्रकट करना आरंभ किया और यह सिद्ध करने लगे कि वर्तमान समय में 'ब्राह्मण- पंडित' जो धर्म क्रियायें कराते हैं, वे वास्तव में वेद- विरुद्ध हैं, उस समय 'धर्म- जगत्' में एक बडा़ तहलका- कोलाहल मच गया। ब्राह्मण जिन वेदों की भनक भी शूद्रों के कानों में नहीं पड़ने देने थे उनकी पुस्तकें छपाकर राममोहन राय ने हिंदू, मुसलमान, ईसाई सबके हाथों में दे दी। जिस ऊँ का उच्चारण करने पर शूद्रों की जीभ काट डालने का आदेश था, उसने प्रत्येक व्यक्ति को सिखा दिया। यह देखकर 'मंदिरमार्गी' हिंदू काँप उठे। धर्म व्यवसायी लोगों के हाथ में खिलौना बने हुए लोग पुकार उठे- घोर 'कलजुग' आ गया ! पंडित, पुजारी, शास्त्रियों की आँखे क्रोध से लाल हो गईं। वे विवाह- समारोह, श्राद्धों के जमघट, ब्रह्मभोजों के अवसर पर हुलास सूँघते अथवा सुर्ती फाँकते हुए राममोहन राय को गालियाँ देने लगे। |