रामकृष्ण परमहंस

भावना सर्वोपरि है, विधि- विधान नहीं

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कल जन्माष्टमी का उत्सव था। आज राधा- गोविन्द जी के मन्दिर में नन्दोत्सव है। दक्षिणेश्वर के काली मंदिर की सजावट आज देखते ही बनती है। भक्तजनों के झुंड के झुंड गोविन्द जी के दर्शनों के लिये आ रहे हैं ।। कीर्तन अपनी चरम सीमा पर है। भक्ति रस की धारा प्रवाहित हो रही है।

दोपहर के भोग के पश्चात् गोविन्द जी के विग्रह से शयन के लिये भीतरी प्रकोष्ठ में ले ज़ाते समय पूजक क्षेत्र- नाथ का पाव फिसल जाने से रग में भग हो गया। बह मूर्ति सहित फर्श पर जा गिरे, जिससे मूर्ति का एक पाँव टूट गया। भक्ति रस कई धारा मन्द पड़ गयी उसके स्थान पर भय और आशंका के मेघ मँडराने लगे। मंदिर में बड़ा कोलाहल मच उठा। अपने -अपने मन से सभी भावी अमंगल की सूचना दे रहे थे। सबके चेहरों पर भय की रेखायें खिंच गयी। निश्चय ही कोई सेवा अपराध हुआ है। उसका दण्ड अमंगल के रूप में सबको भोगना होगा।

रानी रासमणी ने सुना तो वह एक दम सिहर उठीं। अब क्या होगा? किंतु जो कुछ हो चुका था,उसे टाल सकने की सामर्थ्य किस में थीं। अब क्या किया जाय,इसके लिये पण्डितों की सभा बुलायी गयी। पण्डित लोगों ने ग्रंथ देखे, सोचे -विचार किया और यह विधान दिया- भग्न विग्रह को गंगा में विसर्जित करके उसके स्थान पर नयी मूर्ति की स्थापना की जाय।

रानी रासमणी को पंडितों का यह निष्ठुर विधान रुचा नहीं किंतु उसके हाथ की बात भी क्या थीं। ब्राह्मणों की सम्पत्ति को टोलना उसके बस में कहाँ था। निदान नयी मूर्ति बनवाने का आदेश दे दिया गया। रानी उदार हो गयी। भला इतनी श्रद्धा और प्रेम से जिन गोविन्द जी को इतने दिन पूजा जाता रहा,उन्हे थोड़ी -सी बात पर जाकर जल में विसर्जित कर देने का कारण उसकी समझ में नहीं आया ।।

रानी स्वामी रामकृष्ण पर विशेष श्रद्धा रखती थीं। उनकी अनूठी निष्ठा व भक्ति के कारण वे उसके द्वारा दिये जाने वाले निर्णय को स्वीकार करने की स्थिति में भी थीं। जामातारानी ने अपने मन की व्यथा रामकृष्ण से कह सुनायी। सुनकर उन्होंने रानी से प्रश्न किया- यदि आप के जामाताओं में से किसी एक का पाँव टूट जाता तो वह उनकी चिकित्सा करवातीं या उनके स्थान पर दूसरे को ले आतीं?

मैं अपने जामाता की चिकित्सा कराती ,उन्हें त्याग कर दूसरा नहीं ले आती। ""

बस उसी प्रकार विग्रह के टूटे पैर को जोड़ कर उसकी सेवा- पूजा यथावत होती रहे तो दोष ही क्या है।

श्री रामकृष्ण परमहंस के इस सहज विधान को सुन कर रानी हर्षित हो उठीं। यद्यपि उनकी यह व्यवस्था ब्राह्मणों के मनोनुकूल नहीं थी। उन्होंने उसका विरोध भी किया पर अब रानी का धर्म -संकट समाप्त हो चुका था। उसे स्वामी जी की बात ही पसंद थी। उसने ब्राह्मणों के विरोध की चिन्ता नहीं की। स्वामी जी ने टूटे विग्रह के पाँव को ऐसा जोड़ दिया की कुछ पता नहीं चलता ।। पूजा -सेवा उसी प्रकार चलती रही।

एक दिन किन्हीं जमींदार महाशय ने उनसे पूछा -मैनें सुना है आपके गोविन्द जी टूटे है। इस पर वे हँस कर बोले- आप भी कैसी भोली बातें करते है जो अखण्ड मण्डलाकार है,वे कहीं टूटे हो सकते है।

भगवान् लोभ- मोह रहित हैं।

रामकृष्ण परमहंस के शिष्य मथुरा बाबू ने एक मन्दिर बनवाया और उसमें विष्णु भगवान की मूर्ति स्थापित करा दी गई। मूर्ति बड़ी लुभावनी थी। वस्त्राभूषण से साज- सँवार की गई थी। कुछ ही दिन बीते होंगे कि चोर मूर्ति के कीमती आभूषणों को चुरा ले गये। प्रतिमा अब उतनी आकर्षक नहीं लगती थी। मथुरा बाबू उदास होकर बोले की भगवान आपके हाथ में गदा और चक्र दो- दो हथियार लगे रहे फिर भी चोर चोरी कर ले गये। इससे तो हम मनुष्य अच्छे। कुछ तो प्रतिरोध करते ही है। पास खड़े रामकृष्ण भी यह वार्तालाप सुन रहे थे। वे बोले पड़े- मथुरा बाबू! भगवान् को गहनों और जेवरों का तुम्हारी तरह लोभ और फिर उनके भण्डार में कमी किस बात की है जो रात भर जागते और तुच्छ गहनों की रख- वाली करते। ""

अंहकार का बीज

रामकृष्ण परमहंस के दो शिष्य इसी बात पर परस्पर उलझ पड़े की उनमें से कौन वरिष्ठ है। विवाद तय न होने पर गुरुदेव के पास जाकर उन्होने पूछा- गुरुदेव ! हम दोनो में से कौन बड़ा है? बस इतनी- सी बात के लिये उलझ रहे थे तुम लोग- परमहंस ने कहा- 'तुम्हारे प्रश्न का उतर तो बहुत सरल है। जो दूसरे को बड़ा समझता है, वही बड़ा भी है और श्रेष्ठ भी। यह समाधान पाकर वे दोनों मन में बहुत लज्जित हुए। उस दिन से बड़ा बनने की ललक और अहंकार का बीज ही मन से मिट गया।

निराभिमानता की मूर्ति

स्वामी रामकृष्ण बगीचे में बैठे हुए ईश्वर चिंतन में लीन थे। इतने ही में डॉ महेन्द्र नाथ सरकार उधर आये और उन्होंने स्वामी जी को बाग का माली समझकर फूल तोड़ लाने को कहा। स्वामी जी मान- अपमान से परे निर्मल स्थिति में थे, उन्होने तत्काल फूल तोड़ कर डॉक्टर साहब को दे दिए। दूसरे दिन ये डॉक्टर साहब स्वामी जी को देखने आये तब उन्हें अपनी भूल मालूम हुई और उसकी निराभिमानता पर द्रवित हो गये। वस्तुत: महान संत साधु व्यक्तियों की पहचान उसके अभिमान शून्य विनय युक्त स्वभाव से ही की जाती है।

निस्पृह माँ

रामकृष्ण परमहंस की माता एक बार कलकत्ता आई और कुछ समय स्नेहवश पुत्र के पास रहीं। दक्षिणेश्वर मंदिर की स्वामिनी रासमणि ने उन्हें गरीब और सम्मानास्पद समझ कर तरह- तरह के कीमती उपहार भेंट किए। वृद्धा ने उन सभी को अस्वीकार कर दिया और मान रखने के लिए एक इलाइची भर स्वीकार की। उपस्थित लोगों ने कहा- ऐसी निस्पृह मातायें ही परमहंस जैसे पुत्र को जन्म दे सकती है।

मुक्त एवं स्वतंत्र आत्माएँ रामकृष्ण परमहंस अपने शिष्यों के साथ टहलते हुये एक नदी के तट पर पहुँचे। वहाँ मछुए जाल फेंक कर मछलियाँ पकड़ रहे थे एक मछुए के पास स्वामी जी खड़े हो गये और शिष्यों से कहा- तुम लोग ध्यानपूर्वक इस जाल में फँसी मछलियों के की गतिविधि देखो। शिष्यों ने देखा कि कुछ मछलियाँ तो ऐसी है जो जाल में निश्चल पड़ी हैं, उन्होंने निकलने की कोई कोशिश ही नहीं की, कुछ मछलियों निकलने की कोशिश तो करती रही पर निकल नहीं पाई और कुछ जाल से मुक्त होकर पुन: जल में क्रीड़ा करने लगीं

परमंहस ने शिष्यों ने कहा- जिस प्रकार मछलियाँ तीन प्रकार की होती है उसी प्रकार मनुष्य भी तीन प्रकार के होते हैं। एक श्रेणी उनकी है जिनकी आत्मा ने बन्धन स्वीकार कर लिया है और इस भव- जाल से निकलने कई बात सोचते ही नहीं, दूसरी श्रेणी ऐसे व्यक्तियों की है जो वीरों की तरह प्रयत्न तो करते हैं पर मुक्ति से वंचित ही रहते हैं और तीसरी श्रेणी उन मनुष्यों की है जो चरम प्रयत्न दाग आखिर मुक्ति प्राप्त कर ही लेते हैं। परमहंस की बात समाप्त हुई एक शिष्य बोला '' 'गुरुदेव। एक चौथी सेवी भी है जिसके सम्बन्ध में आपने कुछ बताया ही नहीं। '' 'हाँ चौथी प्रकार की मछलियों की तरह ऐसी महान् आत्माएँ भी होती हैं जो जाल के निकट ही नहीं आती फिर उनके फँसने का प्रश्न ही नहीं उठता | ''

पूर्ण समर्पण

श्री रामकृष्ण परमहंस शिष्यों के उपदेश दे रहे थे। वह समझा रहे मे कि जीवन में आये अवसरों मे व्यक्ति साहस तथा ज्ञान की कमी के मरण खो देते हैं। अज्ञान के कारण उस अवसर का महत्त्व नही समझने पाते। समझकर भी उसके पूरे लाभों का ज्ञान न होने से उसमें अपने आपको पूरी शक्ति से लगा नहीं पाते शिष्यों की समझ में यह बात ठीक ढंग से न आ सकी तब श्री रामकृष्ण देव बोले- '' 'नरेन्द्र। कल्पना कर तू एक मक्खी है। सामने एक कटोरे में अमृत भरा रखा है। तुझे यह पता है कि यह अमृत है, बता उसमें एकदम कूद पड़ेगा या किनारे बैठकर उसे स्पर्श करने का प्रयास करेगा। ''

उत्तर मिला- '' किनारे बैठकर स्पर्श का प्रयास करूँगा। बीच में एकदम कूद पड़ने से अपने जीवन- अस्तित्व के लिए संकट उपस्थित हो सकता है। साथियों ने नरेन्द्र की ?विचारशीलता के सराहा। किंतु परमहंस जी हँस पड़े। बोले- ''मूर्ख। जिसके स्पर्श से तू अमरता से की कल्पना करता है। उसके बीच में कूदकर, उसमें स्नान करके, सरावोर होकर भी मृत्यु से भयभीत होता है। ''

'' 'चाहे भौतिक उन्नति हो या आध्यात्मिक जब तक आत्मशक्ति का पूर्ण समर्पण नहीं होता सफलता नहीं मिलती' '' यह रहस्य शिष्यों ने उस दिन समझा।

ध्यान की बात

स्वामी रामकृष्ण परमहंस के समय दक्षिणेश्वर मे श्री प्रताप हाजरा नाम के एक महाशय रहते थे। उन्होने साधुओं जैसा जीवन अपना रखा था। वे कभी- कभी रामकृष्ण परमहंस के साथ कलकत्ता जाकर सत्संग का लाभ उठाया मते थे। एक बार वे स्वामी जी के साथ कलकत्ता जाकर जब लौटे तो अपना अँगोछा वही एक भक्त के बर भूल आये।

स्वामी रामकृष्ण को जब यह पता चला तो उन्होनें हाजरा महाशय से कहा ''ऐसे भुलक्कड़ स्वभाव के कारण तो तुम कभी- कभी भगवान् को भी भूल जाते होंगे। जो नित्य प्रति के सांसारिक व्यवहार में सावधान नहीं रह सकता, वह आध्यात्मिक क्षेत्र में सावधानी बरत सकता है, इसमें सन्देह है। हाजरा महाशय स्वामी जी के कथन का आशय न समझ कर सफाई देते हुए बोले, ''क्या बताऊँ महाराज। भगवान् के भजन में लीन रहने से मुझे कुछ याद ही नहीं रहता। '' '' स्वामी रामकृष्ण परम हंस ने हाजरा महाशय कई झूठी आत्म श्लाघा समझ ली। वे दु: खी हो सोचने लगे साधु का नाम धरा कर इतनी आत्मप्रशंसा। फिर प्रकट में बोले, ''हाजरा तू धन्य है। जो थोड़े से जाप से ही इतना पहुँच गया कि सांसारिक विषयों की याद ही नहीं रहती। एक मैं ऐसा तुच्छ प्राणी हूँ जो दिन- गत भगवान् के चरणों में ही ध्यान दिये रहता हूँ फिर भी आज तक न कभी अपना बटुआ कहीं भूला हूँ और न अंगोछा अब हाजरा महाशय के अपनी भूल का भान हुआ। वे स्वामी जी के चरणों में गिर कर क्षमा माँगने लगे।

मंत्र- शक्ति का प्रभाव

रामकृष्ण परमहंस से किसी जिज्ञासु ने पूछा- 'क्या मन्त्र जप सबके लिए समान फलदायक होते है '' उन्होंने उत्तर दिया- नहीं। ऐसा क्यों '' के उत्तर में परमहंस जी ने जिज्ञासु को एक कथा सुनाई। एक राजा था। उसका मन्त्री नित्य जप करता। राजा ने जप का फल पूछ तो उसने कहा- वह सबके लिए समान नहीं होता इस पर राजा को असमंजस हुआ और वह कारण बताने का आग्रह करने लगा। मन्त्री बहुत दिन तक तो टालता रहा पर एक दिन उपयुक्त अवसर देखकर समाधान कर देने का ही। निश्चय किया मन्त्री और राजा एकान्त वार्ता कर रहे थे एक छोटा बालक और वहाँ खड़ा था 1 मनी ने बच्चे से कहा- 'राजा साहब के मुँह पर पाँच चपत जगाओ, मन्त्री कई वात पर बच्चे ने ध्यान नहीं दिया और जैसे क तैसा ही खड़ा रहा इस अपमान पर राजा के बहुत क्रोध आया और उसने बच्चे के हुक्म दिया कि मन्त्री के मुँह पर जोर से पाँच चाटे लगाओ बच्चा तुरन्त बढ़ा और उसने तड़ातड़ चाटे लगा दिए।

मंत्री ने निश्चिन्ततापूर्वक कहा राजन मंत्र शक्ति इस बच्चे की तरह है जिसे इस बात का विवेक रहता है कि किसका कहना मानना चाहिए ,किस का नहीं। किस का अनुग्रह करना किस पर नही।

उपयुक्त वस्तु ही माँ को अर्पित

रामकृष्ण परमहंस को दक्षिणेश्वर में पुजारी का स्थान मिल गया। ईश्वर भक्त को पूजा उपासना के अतिरिक्त और चाह ही क्या होती है ?? गुजारे के लिए बीस रुपये बाँधे गये जो पर्याप्त थे। पन्द्रह दिन तो तब बीते जब मंदिर कमेटी के सम्मुख उनकी पेशी हो गयी और कैफियत देने के लिए कहा गया। एक के बाद एक शिकायतें उनके विरुद्ध पहुँच चुकी थी। किसी ने कहा यह कैसा पुजारी खुद चखने के बाद भगवान को भोग लगाता है फूल सूँघकर भगवान के चरणों मे अर्पित करता है। पूजा के इस ढंग पर कमेटी के सदस्यों को भी आश्चर्य हुआ आखिर उन्होंने एक दिन बुलाकर पूछ ही लिया क्यों रामकृष्ण इसमें कहा तक सत्यता है कि तुम फूल सूँघकर देवता पर चढ़ते हो? 'मै बिना सूँघे भगवान् पर फूल क्यों चढ़ाऊँ? पहले देख लेता हुँ कि उस फूल में कुछ सुगंध भी आ रही है या नही" रामकृष्ण ने सफाई देते हुए कहा फिर तो दूसरी शिकायत भी सत्य होगी कि भगवान् को भोग लगाने से पहले अपना भोग लगा लेते हो वह दूसरा प्रश्न था। मै अपना भोग तो नहीं लगता। पर मुझे अपनी माँ की याद है की वे भी ऐसा ही करती थी जब कोई चीज बनाती तो चखकर देखता हुँ पता नही जो चीज किसी भक्त ने भोग के लिए लाकर रखी है या मैने ही बनाई है वह भगवान् के देने योग्य है भी या नहीं। रामकृष्ण परमहंस का सीधा उत्तर था।

असंतुलन की भरपायी

रामकृष्ण परमहंस के गले में कैंसर हो गया और वे उसका भारी कष्ट सहते हुए मरणासन्न स्थिति में जा पहुँचे। उसके एक भक्त ने कहा- आप भवानी से प्रार्थना क्यों नहीं करते जिससे वे आपका कष्ट दूर कर दें। उत्तर में उन्होंने कहा की एक तो मैंने जीवन भर देना ही देना जाना है। माता को भी समर्पण किया। माँगने की आवश्यकता ही अनुभव नहीं हुई। अब चलते- चलते दानियों में से नाम कटाकर याचकों में गणना क्यों कराऊँ ?आत्म सम्मान क्यों गंवाउँ।

इसके अतिरिक्त दूसरी बात यह है की दु:खियो को अपना पुण्य फल देकर उसके कष्ट घटाता रहा जितना पुण्य जमा था उससे अधिक खर्च कर डाला। उस घाटे की भरपाई के लिए याचकों वाला कष्ट भार मुझे ही सहना होगा। विधि विधान मूल्य पाकर ही किसी को कुछ देता है। भले ही किसी की जेब से उसे चुकाया जाय। कैंसर कष्ट सहकर उसी असंतुलन की भरपाई कर रहा हुँ। जो पीड़ितों को कष्ट सहकर उसी असंतुलन की भरपाई कर रहा हुँ। जो पीड़ितों को कष्ट मुक्त करने के लिए पेशगी खर्च किया था।

नारीमात्र में मातृ दर्शन

सुधीर बोस रामकृष्ण परमहंस के मुँह लगे शिष्य थे। वे बिना संकोच के कई बार ऐसी बातें कह बैठते थे जिससे पीछे नीची आँखें करनी पड़े। एक दिन इन्होंने परमहंस जी से पूछा- "जब आप विवाहित ही है तो पत्नी के साथ दाम्पत्य जीवन का निर्वाह क्यों नहीं करते? परमहंस गम्भीर हो गये बोले- "मै नारी मात्र में मातृशक्ति का दर्शन करता हूँ। शारदा माता भी उसी समुदाय में से एक है इसलिए मुझे माता तुल्य प्रतीत होती है। माता के साथ दम्पत्ति जीवन कैसे बने। सुधीर ने आँखें नीची कर ली। परमहंस की महानता का पहली बार अनुभव हुआ

ईश्वर की प्रतीति

केशव चन्द्र रामकृष्ण परमहंस के बड़े तार्किक शिष्य माने जाते है। रामकृष्ण जितने सीधे थे, केशव चन्द्र उतने ही तेज और अव्वल नम्बर के तार्किक। वे रामकृष्ण से भी तर्क करते रहते और अधिकांश समय यही सिद्ध करने की कोशिश करते कि"कहाँ है ईश्वर? किसने देखा है? "एक दिन तर्क इतनी जोरों से चल पड़ा कि शिष्यों की भीड़ इकट्ठी हो गई। रामकृष्ण की प्रत्येक बात को केशव चन्द्र काट देते थे। किंतु देखते ही देखते बात उलटी हो गई। केशव चन्द्र बिल्कुल नास्तिकों जैसे वक्तव्य देने लगे। रामकृष्ण उठे और नाचने लगे। किंतु केशव चन्द्र को बेचैनी होने लगी कि अब क्या करें ?? यदि रामकृष्ण प्रतिवाद करें तो वाद विवाद आगे बढ़े। किंतु वे तो हार कर केशव चन्द्र की बातें सुनकर नाचते लगते। धीरे- धीरे केशव चन्द्र के सभी तर्क चुक गये। अब केशव चन्द्र ने रामकृष्ण से पूछा की? तो फिर! आप भी मानते है और मेरी बातों से सहमत है कि "ईश्वर नही है। ""

रामकृष्ण ने कहा की"तुम्हे न देखा होता तो शायद मान भी लेता किंतु तुम्हारी जैसी विलक्षण प्रतिभा जहाँ पैदा होती है तो बिना ईश्वर के कैसे होगी? तुम्हें देखकर यह प्रमाण और पक्का हो गया कि ईश्वर जरूर है। "ईश्वर निराकार है। वह तो प्रतिभा प्रतिभासम्पन्न प्रज्ञा के रूप में ही हो सकता है। कहते है ,केशव चन्द्र उस दिन तो भीड़ में से उठ कर चले गये किंतु फिर लौटे तो पक्के आस्तिक होकर और रामकृष्ण के ही होकर रहे।

जगत जननी का ही सर्वत्र दर्शन

स्वामी विवेकानन्द जी के गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस तब २४- २५ वर्षीय नवयुवक थे। यद्यपि उनके क्रिया- कलाप सिद्ध पुरुषों के से थे तया माता शारदा मणि के साथ रहते हुए भी वे ब्रह्मचारी ही थे- तथापि लोगों को उसके चरित्र की परिक्षा लेने की बात सूझी। रानी रासमणि के जमाता श्री मधुरादास जी रामकृष्ण देव के लेकर मछुआ बाजार की एक सुन्दर वेश्या के यहाँ गये। वहाँ जाकर उन्हें तो एक ऐसे कमरे में बैठा दिया जहाँ आठ -दस नवयुवतियाँ अपने सम्पूर्ण सौन्दर्य एवं आवेगों के साथ उपस्थित थीं। स्वामी जी खे पहुँचाकर वे स्वयं यहाँ से चले गये- तब कहीं जाकर परमहंस देव की समझ में सारी बात आई। सुन्दरियाँ अपने हाथ- भाव तया उत्तेजक मुद्राओं द्वारा उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयत्न सने लगीं। बचाव का कोई उपाय न देख, परमहंस देव ने 'माँ' 'माँ' की रट लगादी। और '' 'आनन्दमयी माँ' '' कहकर सभी से प्रणाम करने लगे। उनके नेत्रों से प्रेमाश्रु उमड़ने लगे और वे शीघ्र ही समाधि अवस्था में पहुँच गये। सभी नर्तकियाँ यह देखकर घबरा गई और अपना उद्देश्य भूल गई। थोड़ी देर बाद वे प्रकृतिस्थ हुए। सामने मथुरा बल लज्जावनत खड़े थे। सिर उठाये भी ऊपर न उठता था।

सत्संग की शक्ति

रामकृष्ण परमहंस कई धर्म- पत्नी शारदामणि महिलाओं का अलग सत्संग चलाती थीं। उसमें अधिकांश धार्मिक प्रकृति कि और सम्भ्रान्त घरों कई महिलाएँ आती थीं। एक महिला सत्संग में ऐसी भी आने लगी जो वेश्या के रूप में कुख्यात थी। इस प्रकार अन्य महिलाएँ नाक -भौँ सिकोड़ने लगी और उसे न आने देने के लिए माताजी से आग्रह करने लगीं। इस पर माता जी क्या- ने कहा- सत्संग गंगा है वह मछली, मेढकों के रहने पर भी अशुद्ध नहीं होती। तनिक -सी मलीनता से ही जो अशुद्ध हो जाय वह गंगा कैसी? तुम लोग सत्संग की शक्ति पहचानो और अपने के गंगा के समतुल्य मानो।

यदि पात्र सोने का हो तो

तोतापुरी जी ने अपने चमकते हुए पीतल के लोटे की तरफ संकेत करते हुए कहा" ''देखिए यह लोटा कैसा चमचमा रख है यदि इसे तेज माँजा न जाय तो इस पर मैल चढ़ जायेगा। यही दशा मन खे भी है यदि ध्यान धारण आदि द्वारा मन के निरन्तर स्वच्छ न किया जाय, तो उस पर भी मैल चढ़ जायेगा और उसकी दमक क स्थान मलिनता ले लेगी। '' ''

परमहंस देव ने हँसकर कहा 'किंतु महाराज। यदि यही लोटा सोने का हो- - तब तो मलिन होने की कोई सम्भावना नहीं '' तोतापुरी समझ गये परमहंस का मन वास्तव में स्वर्ण कांति जैसा ही देदीप्यमान तथा अपरिवर्तनशील है।

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